पारिस्थितिकी- यह एक संकल्पना है जिसके अंतर्गत जैव एवं अजैव घटक तथा विभिन्न जीवो के मध्य होने वाली पारस्परिक अंर्तक्रिया का अध्ययन करते हैं। अर्नेस्ट हैकल ने इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था।
पारितंत्र- पारितंत्र एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई है, जिसके अंतर्गत विभिन्न जीव आपस में अंतरक्रिया करते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति ए०जी० टेसले ने किया था। यह जैव एवं अजैव घटकों से मिलकर बना है। यह खुला तंत्र होता है तथा अपेक्षाकृत स्थिर दशा में होता है।
- पारितंत्र एक प्रकार का लैब है, जिसमें पारिस्थितिकी नियमों को जांचा परखा जाता है।
Ecological principle-
- पारितंत्र पारिस्थितिकी तंत्र की आधारभूत इकाई है।
- भौतिक एवं जैविक प्रक्रम एकरूपतावादी के नियम का अनुसरण करते हैं।
- ऊर्जा का मुख्य स्रोत सूर्य है।
- पारितंत्र में ऊर्जा प्रतिरूप तथा ऊर्जा प्रवाह ऊष्मागतिकी के प्रथम तथा द्वितीय नियम पर आधारित है।
- ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन होता है।
- रूप में परिवर्तन होने से कार्य होता है तथा उर्जा में क्षय होता है।
- ऊर्जा का प्रवाह एक दिशीय होता है।
- बढ़ते पोषण स्तर के साथ ऊर्जा के सापेक्षिक दर में ह्रास होती है।
- पारितंत्र में तत्वों तथा पदार्थ का गमन चक्रीय रूप में होता है।
- पोषक तत्वों के चक्रण को ही भू-जैव रसायन चक्र करते हैं।
- यह एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई है।
- यह जैवमंडल में एक निश्चित क्षेत्र धारण करता है।
- पारितंत्र में अंत: र्निर्मित स्वत: नियंत्रण क्रिया विधि को होमियोस्टैटिक मेकैनिज्म कहते हैं।
- होमियोस्टैटिक मेकैनिज्म प्रकृति के प्रतिरक्षा तंत्र की स्थिति को बताता है। इसके फेल होने पर ही पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यह दो कारकों पर निर्भर करती है।
- पारितंत्र की उत्पादकता दो कारकों पर निर्भर करती है।
1- सौर्यिक ऊर्जा की उपलब्धता।
2- हरे पौधों की सौर्यिक ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने की क्षमता।
- डार्विन के अनुसार पारितंत्र में प्रजातियों का उद्भवन प्राकृतिक चयन एवं अनुकूलन की प्रक्रियाओं द्वारा होता है।
- हयूगोडीब्रीज के अनुसार जीन में म्यूटेशन (गुणसूत्र परिवर्तन ) के द्वारा भी नई प्रजातियों का उद्भवन होता है।
पादप समुदाय का विकास सुलभ पर्यावरणीय दशाओं वाले किसी निवास क्षेत्र में अनुक्रमिक विकास द्वारा होता है जो 5 अवस्थाओं में संपादित होता है।
वनस्पतियों के विकास के दो अनुक्रम होते हैं
1- प्राथमिक अनुक्रम
2- द्वितीयक अनुक्रम
- पारितंत्र में ऊर्जा ह्रास का 10% नियम लागू होता है जिसे लिण्डेमान का नियम कहते हैं।
- संपूर्ण जैव मंडल एक जटिल पारितंत्र है।
- पारितंत्र के विकास एवं संवर्धन के कई अनुक्रम होते हैं। विकास के अनुक्रमो को संक्रमण कालीन अवस्थाओं का शेरे या क्रमक कहते है।
- इस तरह शेरे पारितंत्र के श्रृंखलाबद्ध विकास को प्रदर्शित करता है जो प्राथमिक अनुक्रम से प्रारंभ होकर अंतिम अनुक्रम में समाप्त होता है जिसे चरम या जलवायु चरम कहते हैं।
- जलवायु चरम की अवस्था में पारितंत्र सर्वाधिक स्थिर अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
- किसी भी पारितंत्र में जितनी अधिक (पोषण स्तर) होंगे। आहार श्रृंखला जितनी जटिल होगी उतना ही पारितंत्र समृद्ध होगा तथा स्थिरता भी अधिक होगी। अर्थात जितनी अधिक विविधता होगी उतनी ही अधिक समृद्धि व स्थिरता होगी।
पोषण स्तर के अंग
(i) स्वपोषी जीव
(ii) परपोषी जिव
पोषण अस्तर आहार श्रृंखला एवं आहार जाल
- कई पोषण अस्तर मिलकर खाद्य श्रृंखला बनाते हैं।
- इन पोषण स्तरों के माध्यम स ही ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। यह खाद्य श्रृंखलाएं अलग अलग नहीं है, प्रकृति में बहुत सारी खाद्य श्रृंखलाएं है वह एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
- खाद्य श्रृंखलाओं के जटिल रूप को खाद्य जाल कहते हैं।
- खाद्यजाल या खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक स्तर को पोषण स्तर कहते हैं।
- आहार श्रृंखला में सामान्यतः तीन से चार पोषण स्तर होते हैं।
- यह खाद्य स्तर आपस में मिलकर पारितंत्र पिरामिड का निर्माण करते हैं।
पारितंत्रीय पिरामिड या पारिस्थितिकी पिरामिड
- पारिस्थितिकी पिरामिड शब्द का निर्माण (1972) एल्टन ने किया था।
पारिस्थितिकी पिरामिड के प्रकार
- जीव संख्या पिरामिड
- जैव भार
- उर्जा पिरामिड
पारितंत्रीय अनुक्रम- किसी भी पारितंत्र या आवास में वनस्पति के एक समुदाय के दूसरे समुदाय के प्रतिस्थापध को अनुक्रम करते हैं। इस तरह अनुक्रम पारितंत्र के श्रृंखलाबद्ध विकास को प्रदर्शित करता है। पारितंत्र में इस तरह के परिवर्तन के क्रम को शेरे (Shere) अथवा क्रमक कहते हैं।
जब किसी आवास में वनस्पति समुदाय परिवर्तन के विभिन्न अवस्थाओं के गुजरने के बाद स्थिर दशा को प्राप्त कर लेता है तो क्रमक पूर्ण हो जाता है। इस दशा में पादकों का सर्वाधिक विकास होता है।
क्लीमेन्ट ने वनस्पति के अनुक्रमणीय समुदाय के विकास की पांच प्रवस्थाओं का विकास किया।
- विविस्टीकरण ( Nidation)
- प्रवास ( Migration)
- आस्थापन ( Oesis)
- स्पर्धा ( Competition)
- प्रतिक्रिया ( Reaction)
- स्थिरीकरण (Stabilization)
क्लीमेन्ट ने अनुक्रम के दो प्रकार बताए हैं
1- प्राथमिक अनुक्रम- जब किसी पारितंत्र में पहली बार वनस्पतियों का विकास होता है तो उसे हम लोग प्राथमिक अनुक्रम कहते हैं।
2- द्वितीयक अनुक्रम- कोई भी अनुक्रम सामान्य परिस्थिति में जलवायु चरम की आदर्श अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता है। जब वनस्पतियों के अनुक्रमिक विकास के क्रम में प्राकृतिक व मानवीय कारणों सेअनुक्रमक के द्वारा वनस्पतियों का विकास होता है।
निकेत (Niche) वह स्थान जहां जीव निवास करते हैं आवास कहलाता है एक आवास में कई निकेत हो सकते हैं। एक प्रजाति को जीवित रहने के लिए जिन जैविक, भौतिक व रासायनिक कारकों की जरूरत होती है उन्हें सम्मिलित रूप में निकेत कहते हैं। प्रत्येक प्रजाति का एक विशिष्ट निकेत होता है तथा कोई दो प्रजातियां एक ही निकेत में नहीं रह सकती हैं।
जैव मंडल- पृथ्वी का वह भाग जहां जीवन पाया जाता है उसे जैवमंडल कहा जाता है। जैव मंडल पृथ्वी पर स्थित सभी पारितंत्रो का समूह है।
प्राणियों तथा पादकों सहित सभी प्रमुख पारितंत्र बायोम कहलाते हैं इसे जीवीय कटिबंध भी कहते हैं। यह जैव मंडल के प्रमुख उपविभाग होते हैं।
जैविक समुदाय- जब एक ही क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों की संख्या रहती है तथा एक दूसरे के साथ परस्पर क्रिया करती है जैविक समुदाय कहलाती है। सभी जीव पारितंत्र के सफल संचालन में ऊर्जा के प्रवाह तथा पोषक तत्वों के चक्रण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। जैविक समुदाय के बीच अंतः क्रियाएं परस्पर आदान-प्रदान या लेनदेन संबंधों को व्यक्त करता है। अंतः क्रिया ए मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं- धनात्मक अंतः क्रिया और ऋणात्मक अंतः क्रिया।
चित्र
किस्टोन प्रजाति- वह प्रजाति अथवा प्रजातियों का समूह जिसका समुदाय अथवा पारिस्थितिकी पर प्रभाव मात्र उनकी अत्यधिक संख्या के कारण ही नहीं बल्कि आशा से कहीं अधिक उनके कार्यों से अभिव्यक्त होते हैं उन्हें कीस्टोन प्रजाति कहते हैं।
अन्य महत्वपूर्ण प्रजातिया-
Foundactin प्रजाति- ऐसी प्रजातियां जो अन्य प्रजातियों के संरक्षण में मुख्य भूमिका प्रदान करती हैं जैसे- कोरल प्रजाति
अंब्रेला प्रजाति- यह बहुत हद तक कीस्टोन प्रजाति की तरह ही है। इसका संरक्षण उसके निवास में रहने वाले अन्य प्रजातियों के लिए संरक्षण का कार्य करती है।
संकेतक प्रजाति- ऐसी प्रजातियां पर्यावरण परिवर्तन के लिए काफी संवेदनशील होती हैं। यह पारितंत्र की हानि से तुरंत प्रभावित होती है तथा संभावित समस्या हेतु चेतक (चेतावनी) का कार्य करती है जैसे- लाइकेन व मछली
संक्रमिका तथा कोर प्रभाव- यह दो पारितंत्रो के मध्य संक्रमण क्षेत्र होता है जिसे ईकोटोन कहते हैं। इस ईकोटोन क्षेत्र में दोनों पारितंत्रो की विशेषता पाई जाती है।
इकोटोन की विशेषता-
- तनाव व प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र
- यह अधिक जैव विविधता वाले क्षेत्र हैं।
- कुछ नई प्रजातियां मिल सकती हैं।
कोर प्रभाव- कोर प्रभाव एक पारिस्थितिकी अवधारणा है। यह इकोटोन क्षेत्र ही होता है जहां विशाल विविधता पाई जाती है।
पारिस्थितिकी उत्पादकता- किसी क्षेत्र में स्वपोषीत प्राथमिक उत्पादक (हरे पेड पौधे) द्वारा प्रति इकाई सतह में प्रति इकाई समय में सकल संचित ऊर्जा की मात्रा को पारिस्थितिकी उत्पादकता कहते है।
- प्राथमिक उत्पादक द्वारा जैविक पदार्थों या ऊर्जा उत्पादन को प्राथमिक उत्पादन करते हैं।
- प्राथमिक उत्पादकता का मापन दो रूपों में होता है-
1- सकल प्राथमिक उत्पादन- प्राथमिक उत्पादक द्वारा किए गए कुल उत्पादन को सकल प्राथमिक उत्पादन करते हैं।
2- शुद्ध प्राथमिक उत्पादन- पोषण स्तर एक में स्वसन द्वारा खर्च के बाद सकल संचित ऊर्जा या शक्ल संचित उत्पादन को शुद्ध प्राथमिक उत्पादन करते हैं।
शुद्ध प्राथमिक उत्पादन- सकल प्राथमिक उत्पादन-श्वसन द्वारा नष्ट ऊर्जा की मात्रा
जैव संचयन एवं जैव आवर्धन- खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषण स्तरों में संचित होने वाले अनिम्नीकृत प्रदूषक की प्रक्रिया को जैवसंचयन कहते हैं।
जैव आवर्धन- बढ़ते पोषण स्तर के साथ-साथ जब प्रदूषकों का सांद्रण बढ़ता जाता है तो उसे जैव आवर्धन करते है।
पारिस्थितिकी दक्षता- सौर्य ऊर्जा अथवा भोजन को जैव भार में परिवर्तित करने की क्षमता पारिस्थितिकी दक्षता तथा कुशलता कहलाती है।
ऊर्जा प्रवाह- खाद्य श्रृंखला में खाद्य पदार्थों का या ऊर्जा का क्रमबद्ध स्थानांतरण होता है। जय हो संश्लेषण तथा जैव अवनयन में ऊर्जा प्रवाह प्रमुख भूमिका अदा करती है। उल्लेखनीय है कि जैव पदार्थों के बनने को जैव संश्लेषण तथा जैविक पदार्थों के नष्ट होने को अवनयन कहते हैं।
ऊर्जा प्रवाह की विशेषता
1- ऊर्जा प्रवाह एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर की तरफ
2- 10% का नियम / लिण्डेमान का नियम – अर्थात निचले पोषण स्तर से अपने ऊपर के पोषण पर केवल 10% ही जैवभार का स्थानांतरण होता है तथा 90% का नियम स्वशन कार्यो में खर्च हो जाता है।
3- ऊर्जा प्रवाह एक दिशीय होता है।
4- ऊर्जा प्रवाह की दिशा अचक्रीय होती है इनका चक्रण व पुन: चक्रण नहीं होता हैं। ऊर्जा का प्रवाह रेखीय होता है।
5- बढ़ते पोषण स्तर के साथ ऊर्जा के सापेक्षिक ह्रास की दर बढ़ती जाती है अर्थाात प्रााप्त ऊर्जा की मात्रा घटती जाती है।