तटीय भू आकृति

तटीय भू आकृति


सागर के तटवर्ती क्षेत्र में अनेक अपरदन हुआ निक्षेप जनित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इनके निर्माण में सागरीय तरंग, सागरिया धारा, ज्वारीय तरंग, सुनामी आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिर भी इनमें सागरीय तरंगों को भू आकृति कार्य (अपरदन निक्षेप परिवहन) सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि सागरीय तरंगे सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रभाव कारी अपरदन का कारक होती हैं। सागरिया तरंगों द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का अध्ययन करने से पूर्व हमारे लिए सागरी तरंगों के विषय में जानना अत्यंत आवश्यक है।
शिखर एवं गर्त से युक्त सागरीय जल के हिमोड को सागरीय लहर या स्वेल कहते हैं। दो क्रमिक शिखर व गर्त के बीच सीधी क्षैतिज दूरी को (तरंग दैर्ध्य) तरंग लंबाई कहते हैं एक तरंग लंबाई की दूरी तय करने में सागरीय लहरों को जितना समय लगता है उसे तरंग अवधि कहते हैं। एक तरंग अवधि एक तरंग लंबाई के बराबर होती है। एक निश्चित बिंदु से प्रति इकाई समय में जितने तरंगे गुजरती हैं उसे तरंग आवृत्ति करते हैं तरंग लंबाई के अनुसार तरंग आवृत्ति बदलता रहता है तरंग लंबाई और तरंग आवृत्ति में विलोम संबंध होता है।

तरंग गति तथा तरंग की लंबाई में सीधा संबंध होता है जब सागरीय तरंग तट की ओर अग्रसर होते हैं तो तरंगों के गति के नली में टकराने के कारण तरंगों का शिखर टूट जाता है तथा उनका रूपांतरण ब्रेकर में हो जाता है टूटने के बाद जनित प्रचंक जल को स्वास अपरस तथा सर्क भी कहते हैं। सागरीय किनारे से समानांतर दूरी पर स्थित वह बिंदु जहां तरंगे सर्क में परिवर्तित होती हैं उनको मिलाने से सागरीय तटो के समानांतर काल्पनिक रेखा को पर तोरण रेखा कहते हैं। तट से टकराने के बाद जो तरंग तट के समानांतर प्रवाहित होती हैं उसे वेलांचली कहते हैं। कुछ तरंगे सागरीय जल के सतह से होकर लौटती हैं उन्हें तरंगीका कहते हैं। कुछ जल सागर के नितल से होकर वापस जाता है तो उसे अध:प्रवाह कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सागरीय तरंग स्थानांतर श्रृंगीय तरंगों का रूप है क्योंकि ऊपरी सतह से लेकर के सागरीय तली का समस्त जल एक ही दिशा में गतिशील होता है दोलन तरंगे इन से भिन्न होता है।

सागरी तट तथा किनारा-
सामान्य अर्थों में तट व किनारों को सामान समझा जाता है जबकि दोनों में अंतर होता है। सागरीय किनारा सागर की उस भाग को कहते हैं जो कि सबसे अधिक व निम्न ज्वारीय जल की सीमा के मध्य होता है। सागरीय किनारे की रेखा उसे कहते हैं जो किसी भी समय जल तल की स्थल की ओर की सीमा को निर्धारित करता है। दूसरे शब्दों में किनारे की रेखा उच्च एवं निम्न ज्वार के मध्य सागरीय जल की स्थल की ओर अंतिम सीमा को प्रदर्शित करता है इस तरह उच्च एवं निम्न ज्वार के समय सागरीय किनारों की रेखा बदलती रहती है। हालांकि अध्ययन के दौरान दोनों को एक ही समझा जाना चाहिए।

सागर किनारे के प्रकार-
1-पृष्ठ किनारा-किनारे की ओर का यह भाग स्थल की ओर की अंतिम सीमा है
2-अग्रिम किनारा-यहां पर सागरीय जल सदैव रहता है
3-सुदूर या अपतट किनारा-महाद्वीपीय मग्नढाल का शेष उठा भाग जो सागरीय जल द्वारा आह्वान होता है या सागरीय तक के सबसे दूर स्थित किनारा होता है सागर यह किनारे से स्थल की ओर के भाग ही सागरीय तट होता है।

सागरीय अपरदन के रूप-
जल गति क्रिया, अपघर्षण द्वारा, सनिघर्षण , दोलन क्रिया, जल दाब

दशाएं – अपरदनात्मक यंत्रों के द्वारा अपरदन अधिक ढाल मंद होने पर अपरदन अधिक तट रेखा स्थित रहने पर अपरदन अधिक चट्टानों की बनावट एवं संरचना के अंतर्गत अवसादी शैल का अपरदन अधिक होता है। समय अधिक मिलने पर अपरदन अधिक

सागरीय की लहरों द्वारा अपरदन जनित स्थलाकृति –
तटीय क्लिफ
तटीय कंदरा तथा उससे संबंधित रूप
तरंग घर्षित बेदी
तटीय क्लिफ – सागर के तटीय भागों में कागार के समान यह एक विचित्र स्थलाकृति है भू पृष्टिय अनाच्छादन सागरीय अपरदन तथा चट्टानों के स्वभाव व संरचना के सम्मिलित प्रभाव से इस स्थलाकृति की उत्पत्ति एवं विकास होता है। सागर की लहरों द्वारा तक के संलग्न चट्टानों का इस तरह अपरदन किया जाता है कि क्लिफ का ऊपरी भाग सागर की तरह लटकता रहता है तथा आधार पर खांच या दाग का निर्माण हो जाता है।
क्लिफ के सिर्फ भाग को नीचे से सहारा न मिलने के कारण व दूर-दूर तक नीचे गिरता रहता है जिसके कारण क्लिफ निरंतर पीछे हटता रहता है।
तटीय कंदरा तथा उससे संबंधित रूप – पूर्व विकसित चट्टानों की संधियों में सागरीय जल के प्रविष्ट का अपरदन करने से कठोर शैल के बीच स्थित मध्य कोमल शैल अपरदित होना आरंभ हो जाती है । जिससे सर्वप्रथम छोटी कंदरा का निर्माण होता है धीरे-धीरे अपरदन कार्य चलने से कंदरा की गहराई व आकार दोनों में विस्तार होता रहता है । जब कंदरा के ऊपर छत का कुछ भाग टूट कर नीचे गिर जाता है और इस तरह कंदरा का संबंध जहां ऊपरी सतह से हो जाता है । उसे केंद्र का प्रवेश द्वार कहते हैं। दाब के कारण कंदरा के हवा छत को तोड़कर क्षेत्रों के द्वारा ऊपर आवाज करती हुई निकलती है तो इस तरह के छिद्रों को प्राकृतिक चिमनी वाद छिद्र कहते हैं ।
कंदरा के बड़े पैमाने पर ध्वस्त होने से विकसित छोटी छोटी खाड़ियों को प्रवेश द्वार या निवेशीका कहते हैं। स्टॉकलैंड में इसे जिओ के नाम से जाना जाता है। तटीय भागों में जल की ओर निकले शिर्ष की तरफ दोनों पास किनारों पर दीक्षित के अंदर आए जब एक दूसरे से मिल जाती है तो जल शिर्ष स्थल के आर पार बहने लगता है। इसी को प्राकृतिक मेहराब कहते हैं।प्राकृतिक मेहराब के छत के ध्वस्त हो जाने से शिर्ष स्थल का सागर के लंबवत खड़ा भाग स्टैक या सागरीय स्तंभ के नाम से जाना जाता है जिसे चिमनी शैल या स्केरी भी कहते हैं।
अंडाकार कटान अथवा लघु निवेशिका – तटवर्ती क्षेत्रों में स्थित सागरी लहरों द्वारा कोमल शैलो के अपरदित किए जाने के कारण निर्मित छोटी छोटी खाड़ियों को लघु निवेशिका अथवा अंडाकार कटान कहते हैं।

तरंग घर्षित वेदी – हम जानते हैं कि क्लिफ का निर्माण सागर तरंगों द्वारा अपरदन के द्वारा किया जाता है। जब उसके द्वारा निरंतर खांच का विस्तार किया जाता है तोउस स्थिति में क्लिफ का शिष्यवर्ती भाग सहारा न पाने के कारण निरंतर टूट कर गिरता रहता है। और इस तरह क्लिफ के निरंतर पीछे हटने से जल के अंदर सामने तटीय भाग पर बने मैदान को तरंग घर्षित मैदान या बेदी कहते हैं।

निक्षेपण जनित स्थलाकृति –
सागरीय तरंगों द्वारा अपरदीत पदार्थों का तट के सहारे अथवा तट से दूर निक्षेप होता रहता है जिससे विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया बनती हैं।

पुलीग
राधिका तथा रोध
अपतर रोधिका
स्टिक
हुक
लुब या छल्ला
संयोजक रोधीका
तटीय तरभाग
सबका
पुलीन – जल मग्न तट का उथला भाग ही पुलीन कहलाता है। सागरीय के तट के सहार मालवा के नीचे से उच्च ज्वार तथा निम्न ज्वार के मध्य यह विकसित होते हैं। इनका निर्माण स्थानांतरित चरणों के साथ आधा प्रवाह तथा सील तरंगों के संयुक्त प्रभाव से होता है।
भारत में जोहू ( मुंबई ) कोलाबा, कुलनगुर , अंजना (गोवा ) कोबलन ( केरल ) मेरिना ( चेन्नई ) दीघा ( बंगाल ) पूरी ( उड़ीसा ) बीच भारत के प्रमुख पुलिन हैं।
सागरीय कटिया भागों में रेट गुलास्म बजरी से निर्मित कटक युक्त पुलिनो को कष्त पुलिन कहा जाता है।
रोधिका एवं रोध – तरंगों एवं जल धाराओं द्वारा निर्मित कटको को रोधिका कहते हैं। राधिका के विपरीत रोध जल से ऊपर बने रहते हैं।
अपतर रोधिका – तट से दूर तथा उस से निर्मित रोधीकाओ को अपतर रोधिका कहते हैं।
स्पिट – जब मालवा का निक्षेप इस तरह हो रहा है कि राधिका का एक हिस्सा सागर में निकला रहता है तथा दूसरा हिस्सा तटीय भाग से संलग्न रहता है तो इस तरह के स्थलाकृति को स्पिट या भू जीवा कहते हैैं।
रामेश्वर भारत का प्रमुख स्पिट है।
हुक – जब धाराओं के द्वारा स्पिट को मोड़ कर हुक का आकार दे दिया जाता है तो तो उसी को हुक कहते हैं। कई हुको के बनने से मिश्रित हुको का निर्माण होता है
लुप या छल्ला – जब विरोधी धाराएं स्पिट को इतना मोड़ देती है कि वह थॉट से जाकर मिल जाती है तो उसी को लुट या छल्ला कहते हैं।
संयोजक रोधिका – राधिका का अधिक विस्तार होने से जब दो सिर्फ स्थल आपस में जुड़ जाते हैं तो उस जोड़ने वाली राधिका को संयोजक राधिका कहते हैं। टोम्बोलो संयोजक राधिका को उस स्थिति में कहते हैं जब राधिका किसी द्वीप या स्थल को जोड़ने का कार्य करती है।

रोधिका के प्रकार – खाड़ी मुख्य रोधिका का निर्माण खाड़ी के मुहाने पर खाड़ी के शीर्ष पर खाली शिर्ष रोधक तथा खाड़ी के मध्य स्थित रोधिका को मध्य रोधिका कहते हैं।
तटीय तरभाग – तटीय क्षेत्रों के विकसित सपाट दलदली भाग तटीय तर भाग होते हैं जैसे भारत में मैंग्रोवन वाला क्षेत्र है।
सबखा – शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के तटीय भाग में सपाट निश्चित जनित कष्टों को साल्ट फ्लैट या सबखा कहते हैं‌।
सांगरीय अपरदन को प्रभावित करने वाली

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