जलवायु परिवर्तन (Climate change)
किसी स्थान के अल्पकालीन वायुमंडलीय दशाओं के औसत को मौसम कहते हैं।
परिचय- पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त वायुमंडल प्राकृतिक पर्यावरण एवं जैवमंडलीय पारितंत्र एक प्रमुख संघटक है। क्योंकि जैवमंडल में जीवन का अस्तित्व वायुमंडल में निहित गैसों के कारण ही संभव होता है। जलवायु किसी स्थान के लंबे समय के मौसमी घटनाओं/ (वायुमंडलीय दशाओं) का औसत होता है। अर्थात वायुमंडलीय दशाओं के दीर्घकालीन औसत को जलवायु कहते हैं। पृथ्वी के जलवायु स्थैतिक नहीं है। मौसम एवं जलवायु में प्राकृतिक कारण से स्थानीय, प्रादेशिक एवं वैश्विक स्तरों पर परिवर्तन होता रहता है। किंतु औद्योगिक क्रांति के बाद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास के कारण मानव द्वारा वायुमंडलीय दशाओं में तीव्र गति से परिवर्तन होने लगा है इसका असर संपूर्ण पारितंत्र पर दिख रहा है। जलवायु में होने वाले इसी परिवर्तन को वर्तमान में जलवायु परिवर्तन कहा जा रहा है। दूसरे शब्दों में जलवायु परिवर्तन का भौगोलिक अभिप्राय मौसमी प्रतिरूप में लंबे समय तक के परिवर्तन से है। साधारण शब्दों में चरम घटनाएं जलवायु परिवर्तन की द्योतक है।
जलवायु परिवर्तन के संकेतक
जैविक संकेतक
1- वनस्पति संकेतक
- पौधों के जीवाश्म
- ऑक्सीजन के आइसोटोप
- वृक्ष के तने में पाए जाने वाले वलय में वृद्धि
2- प्राणीजात संकेतक
- प्राणीजात जीवाश्म
- जंतुओं का वितरण एवं प्रसरण
भौमिकीय संकेतक
- हिमानी निर्मित झीलों में अवसादो का निक्षेपण
- कोयला अवसादी निक्षेप
- मृदीय संकेतक
- उच्च अक्षांशो में हिमानियों के आगे बढ़ने व पीछे हटने के अवशेषिय चिन्ह
हिमीय संकेतक
हिमानीकरण- भूगर्भीय अभिलेखों से हिमयुगों तथा अंतर हिमयुगों में क्रमशः परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रकट होना।
विवर्तनिकी संकेतक
- प्लेट विवर्तनिकी- ध्रुवो का भ्रमण एवं महाद्वीपीय प्रवाह
- पूराचुंबकत्व एवं सागर नितल प्रसरण
- सागर तल में परिवर्तन
ऐतिहासिक अभिलेख
- बाढ़ अभिलेख
- सूखा अभिलेख
जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक- जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारकों द्वारा प्रभावित होती है। औद्योगिकीकरण से पहले इस प्रक्रिया में मानवीय कारकों की भूमिका कम थी। औद्योगिकीकरण के पश्चात संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वैश्विक तापन एवं प्रदूषण के रूप में गंभीर समस्या सामने आई।
जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक व मानवीय कारक निम्न है-
प्राकृतिक कारक
1- सौंर्य विकिरण में भिन्नता
2- सौर्य कलंक चक्र
3- ज्वालामुखी उद्भेदन
4- पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन
5- वायुमंडलीय गैसीय संयोजन में परिवर्तन
6- महाद्वीपीय विस्थापन
मानव जनित कारक
1- संसाधनों का दुरुपयोग
2- नगरीकरण एवं तीव्र औद्योगिकीकरण
3- इंधन का ह्रास
4- बड़े पैमाने पर भूमि उपयोग में परिवर्तन (निर्वनीकरण)
5- वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, सल्फर डाइऑक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि।
6- समताप मंडल में ओजोन में ह्रास
7- तापमान में वृद्धि
जलवायु परिवर्तन का मानव व पारितंत्र पर प्रभाव
1- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव एवं बीमारियां
2- कृषि एवं भोजन सुरक्षा तथा आहार गुणवत्ता पर प्रभाव
3- पारितंत्र एवं जैव विविधता पर प्रभाव
4- जल के लिए तनाव एवं जल असुरक्षा
5- ग्लेशियर का पिघलना
6- समुद्र जल स्तर में वृद्धि
7- वायुमंडली एवं समुद्री तापमान में वृद्धि
8- भूमि संसाधन पर प्रभाव
9- अत्यंत कठोर मौसमी दशाएं
जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में प्रयास
- प्रथम आकलन रिपोर्ट- 1990
- द्वितीय आकलन रिपोर्ट- 1997
- तृतीय आकलन रिपोर्ट- 2001
- चतुर्थ आकलन रिपोर्ट- 2007 (IPCC को नोबेल शांति पुरस्कार
- पांचवी आकलन रिपोर्ट- 2013-2014
- छठी आकलन रिपोर्ट- 2021
जलवायु परिवर्तन से संबंधित संगठन एवं अभिसमय
पर्यावरण विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCED) पृथ्वी सम्मेलन/रियो सम्मेलन
क्योटो प्रोटोकॉल UNFCC से जुड़ा एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जो अंतरराष्ट्रीय रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन कटौती लक्ष्यो को पार्टियों हेतु प्रतिबद्ध करता है।इस प्रोटोकॉल को 1997 में अपनाया गया किंतु यह 2005 में क्रियाशील हुआ इस प्रोटोकॉल से संबंधित विस्तृत नियम को मराकेश समझौता (2001) के तहत बनाया गया।
क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत ANNEX-1 के देशों को 2008-2012 के बीच अपनी हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5.2% की कटौती करनी थी। उल्लेखनीय है कि क्योटो प्रोटोकॉल के प्रथम प्रतिबद्धता अवधि 2008-2012 है। तथा इसकी द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि 2013 में शुरू हुई है तथा 2020 में खत्म होना है। क्योटो प्रोटोकॉल के कानूनी क्रियान्वयन हेतु UNFCC के ऐसे 55 देशों, जो 55% वैश्विक कार्बन उत्सर्जन हेतु जिम्मेदार हैं, के द्वारा सत्यापन किया जाना जरूरी है।
क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत सदस्य देशों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-
ANNEX-1 (परिशिष्ट-1)- इसके अंतर्गत ऐसे विकसित देश शामिल हैं जो 1992 के समय OECD (1961) के सदस्य थे साथ ही इस श्रेणी में वह देश भी शामिल हैं जिसकी अर्थव्यवस्था उस समय संक्रमण काल से गुजर रही थी। जैसे- बाल्टिक देश, रशियन फेडरेशन, विभिन्न मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देश।
परिशिष्ट-2- परिशिष्ट एक के OECD के सदस्य देश तो हैं लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था संक्रमण काल से नहीं गुजरी है। ऐसे देशों को वित्तीय सहायता के द्वारा विकासशील देशों की ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन संबंधी गतिविधियों को कम करने में मदद करती है।
Non ANNEX-1 – ज्यादातर विकासशील देश शामिल है।
उत्सर्जन में कटौती हेतु रणनीति
1- उत्सर्जन कटौती प्रतिबद्धता
2- लचीला बाजार तंत्र- लचीले बाजार तंत्र के अंतर्गत तीन तरह के तंत्र सम्मिलित हैं-
(I) अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन बाजार।
(ii) स्वच्छ विकास तंत्र-कार्बन क्रेडिट
(iii) संयुक्त क्रियान्वयन
बाली सम्मेलन 2007- सरकारों ने योजना को पांच मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया-
1- साझा दृष्टिकोण
2- समन या न्यूनीकरण
3- अनुकूलन
4- प्रौद्योगिकी
5- वित्तियन
कोपेनहेगन सम्मेलन- चार न्यून इकाइयों की स्थापना की गई-
1- REDD + पर एक तंत्र का विकास
2- ग्रीन क्लाइमेट फंड की व्यवस्था
3- एक प्रौद्योगिकी तंत्र
4- एक उच्चस्तरीय पैनल जो वित्तीय प्रावधानों का आकलन कर सके।
पेरिस समझौता (2015)- इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर (1750) से 2 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि से नीचे रखना है। इसके लिए कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 2050 तक 50% तथा 2100 तक 100% तक कटौती करना है। यह समझौता 2020 की अवधि के बाद क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेगा।
पेरिस समझौते के मुख्य प्रावधान
1- CBDR (common but differenciated responsibilities)- RC- (respective capability)
2- NDC- Nationally Ditermine Contribution
3- समन
4- अनुकूलन
5- वित्तपोषण
6- पारदर्शिता
7- प्रौद्योगिकी विकास एवं हस्तानांतरण
8- वैश्विक स्टाक की जांच
9- अंतर्राष्ट्रीय सौर ऊर्जा का गठजोड़ (2015) मुख्यालय गुरुग्राम
10- मिशन इनोवेशन (2015)
भारत एवं जलवायु परिवर्तन
IPCC के चौथे एवं पांचवी रिपोर्ट के अनुसार उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के द्वारा अधिक प्रभावित होने का खतरा है अतः इस कारण भारत भी इन प्रभाव से अछूता नहीं है। भारत के सम्मुख जलवायु परिवर्तन के वैश्विक खतरे से निपटने के साथ-साथ तेजी से विकसित हो रही अपनी अर्थव्यवस्था के विकास दर को बनाए रखना भी एक चुनौती है। जलवायु परिवर्तन के कारण भारत अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है तथा उसके सम्मुख भविष्य में भी चुनौतियां खड़ी होने वाली है। भारत उत्सर्जन कटौती के बाध्यकारी लक्ष्य को नहीं अपना सकता है इसके पीछे कई कारण है।
- गरीबी उन्मूलन की अनिवार्यता
- हर मानव का वैश्विक संसाधनों पर समान अधिकार
- देश को विकास के उच्च पायदान पर ले जाने का संकल्प।
भारत में जलवायु परिवर्तन एवं मौसमी घटनाएं
1- तापमान की बढ़ोतरी
2- वर्षण में अत्यधिक परिवर्तनशीलता
3- समुद्री जल स्तर में वृद्धि
4- हिमालयी ग्लेशियरों पर प्रभाव
5- विषम मौसमी घटनाएं
भारत का जलवायु परिवर्तन हेतु समझौतों एवं वार्ताओं में योगदान
- पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर
- UNFCCC को वित्त, प्रौद्योगिकी, एवं अन्य क्षेत्रों पर कई प्रस्तुतीकरण दे चुका है।
- क्योटो प्रोटोकॉल की द्वितीय प्रतिबद्धता (2013-2014) अवधी पर सहमति
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) -2008
- 8 कार्यक्रमों का एक समूह
1- राष्ट्रीय सौर मिशन
2- राष्ट्रीय संबंधित ऊर्जा दक्षता मिशन
3- राष्ट्रीय सतत पर्यावरण मिशन
4- राष्ट्रीय जल मिशन
5- हिमालयी पारितंत्र को टिकाऊ बनाने हेतु राष्ट्रीय मिशन
6- राष्ट्रीय हरित मिशन
7- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन
8- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन रणनीतिक ज्ञान मिशन
- भारत ने जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन पर भारतीय तंत्र INCCA (2009) ने बनाया।
- समन्वित ऊर्जा नीति (2006)
- नई एवं नवीकरणीय ऊर्जा नीति (2005)
- राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 एवं पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन पर इसकी अधिसूचना
बचत लैंप योजना- ऊर्जा संरक्षण कानून 2001 के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा स्थापित ऊर्जा दक्षता ब्यूरो छोटे स्तर के CDM प्रोजेक्ट विकास का समन्वय करता है तथा विभिन्न राज्य में लैंप योजना को संपादित करता है।
ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता (2007)
ग्रीन बिल्डिंग की संकल्पना–
- भारत सरकार ने संबंधित आवास मूल्यांकन हेतु हरित रेटिंग GRIHA (green rating for integrated habitat assessment) रेटिंग तंत्र का निर्माण किया है।
- भारतीय उद्योग संघ CCI ने 2001 में Indian green council की स्थापना की है।
- भारत सरकार LEED (leadership in energy and investment desire) नामक रेटिंग सिस्टम के मानकों का अध्ययन करती है।
- भारतीय उपमहाद्वीप के पर्यावरणीय पहलुओं को निर्देशित करने हेतु TERI (the energy and resource institute) ने GHIH council की स्थापना की है।
- भारत सरकार ने 2011 में NICRA (national invention climate resilint agriculture) नामक एक नेटवर्क प्रोजेक्ट बनाया है।
- भारत सरकार ने UNFCC देशों के मध्य सूचनाओं के संचार हेतु NATCOM की स्थापना की है।
- भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के साथ-साथ द्वितीय एवं बहुपक्षीय समझौते के माध्यम से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने हेतु हर संभव प्रयास कर रही है।