unit – III वायुमंडल

unit – III वायुमंडल

वायुमंडल का संघटन एवं संरचना

By Team Rudra on Monday, April 5, 2021

वायुमंडल का संघटन एवं संरचना- पृथ्वी के चारों तरफ कई सौ किलोमीटर से हजारों किलोमीटर की मोटाई में व्याप्त गैसीय आवरण को वायुमंडल कहते हैं। वायुमंडल पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही उसके साथ टीका हुआ है। मूलतः वायुमंडल तीन आधारभूत तत्वों से मिलकर बना है-
वायुमंडल की रचना दो प्रकार की गैसों के द्वारा हुई है जिसमें स्थिर गैसों के अंतर्गत नाइट्रोजन, ऑक्सीजन एवं आर्गन तथा परिवर्तनशील गैसों के अंतर्गत जलवाष्प, ओजोन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि है। वायुमंडल में उपस्थित गैसे जीवो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
चुकी जहां नाइट्रोजन पर ही अप्रत्यक्ष रूप से सभी जीव भोजन के लिए निर्भर हैं वही ऑक्सीजन प्राण युक्त होने के साथ इंधन को भी जलाने में मदद करती है। इसी प्रकार ओजोन के द्वारा पराबैंगनी किरणों के अवशोषण के कारण ही उसे पृथ्वी का रक्षा कवच कहते हैं।
वायुमंडल में निलंबित कणकीय पदार्थ तथा तरल बूंदों को सम्मिलित रूप से एयरोसाल करते हैं। परिवर्तनशील होने के कारण अर्थात वायुमंडल के निचले भाग में सांद्रता अधिक होने के कारण ऊंचाई बढ़ने के साथ इनका सांद्रण कम हो जाती है। एयरोसाल ही वर्णनात्मक प्रकीर्णन, आद्रता ग्राही नाभिक, प्रत्यावर्तन के लिए जिम्मेदार होते हैं।
जलवाष्प अभी वायुमंडल के निचले भागों में तथा भूमध्य रेखा के पास अधिक मात्रा में सकेंद्रित रहता है। इसके कारण ही वर्षण के विभिन्न रूप संभव हो पाते हैं तथा साथ ही ये विकिरण का अवशोषण करके तथा दीर्घतरंगीय पार्थिव विकिरण का अवशोषण करके हरित गैस प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
वायुमंडल की संरचना

चित्र
वायुमंडल की सबसे निचली परत को परिवर्तन मंडल, विक्षोभ मंडल एवं संवाहनीय मंडल कहते हैं। मौसम एवं जलवायु की दृष्टि से ये मंडल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि मौसम संबंधी सभी परिवर्तन इसी मंडल में होते हैं। इसकी औसत ऊंचाई लगभग 16 किलोमीटर है।

क्षोभ मंडल में तापमान में ऊंचाई के साथ कमी आती है।
क्षोभ मंडल एवं समताप मंडल को अलग करने वाली मिश्रित परत को ट्रोपोपॉज कहते हैं। ट्रोपोपॉज के ऊपर स्थित समताप मंडल में तापमान में नगण्य दर से परिवर्तन होने के साथ स्ट्रेटोस्पांस तक पहुंचते 2 डिग्री हो जाता है।
वायुमंडल दशाएं शांत होने के कारण ये वायुयान के उड़ान के लिए आदर्श स्थिति उत्पन्न करती है। इसी में पृथ्वी की रक्षा कवच ओजोन का सर्वाधिक संकेंद्रण होता है।
स्ट्रेटोस्पास के ऊपर स्थित मध्य मंडल में तापमान में गिरावट होकर माइनस में चली जाती है और यह मेसोपास पा ही जाकर बंद होती है। मध्य मंडल एवं ताप मंडल के मध्य तापीय प्रतिलोमन की स्थिति होने के साथ नक्टीलुसेंट बादलों का निर्माण भी इसी मंडल में होता है।
मेसोपाज के ऊपर स्थित ताप मंडल में फिर ताप बढ़ने लगता है लेकिन हवा के विरल होने के कारण ताप का एहसास नहीं हो पाता है। ताप मंडल को आयन एवं आयतन मंडल में बांटा गया है। यह मंडल लघु, मध्यम एवं उच्च आवृत्ति वाली तरंगों के पृथ्वी के तरफ प्रत्यावर्तन के कारण ही बहुत महत्वपूर्ण है साथ में आयन मंडल में औरोरा आस्ट्रालिस एवं औरोरा वोरियालिस की घटनाएं होती हैं।
रासायनिक विशेषताएं- रासायनिक विशेषताओं के आधार पर वायुमंडल को सम एवं विषम मंडल में बांटा गया है। सम मंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, आर्गन, ओजोन आदि गैसों के अनुपात में परिवर्तन नहीं होने के कारण ही इसे सम मंडल नाम दिया गया है। लेकिन वर्तमान समय में इसके अनुपात में परिवर्तन होने के कारण ही अनेक प्रकार की वायुमंडलीय समस्याएं खड़ी हो रही हैं। इसकी ऊंचाई सागर तल से 90 किलोमीटर माना गया है।

विषम मंडल की ऊंचाई सागर तल से 90 किलोमीटर से 10000 किलोमीटर तक पायी जाती है। इस मंडल की भौतिक एवं रासायनिक गुणो में अंतर पाया जाता है। इस मंडल में गैसों की चार स्पष्ट परते पायी जाती हैं जो निम्न है-
1- आणविक नाइट्रोजन परत- 90-200 किलोमीटर
2- आणविक ऑक्सीजन परत- 200-1100 किलोमीटर
3- हीलियम परत- 1100-3500 किलोमीटर
4- एटॉमिक हाइड्रोजन परत- 3500-10000
इस प्रकार वायुमंडल हमारे जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
वर्तमान समय में जीवों के अस्तित्व को बचाने के लिए प्रतिकूल वायुमंडलीय दशाओं में परिवर्तन के कारण वायुमंडल का अध्ययन करना और भी आवश्यक हो गया है।

पवन

By Team Rudra on Monday, March 29, 2021

शुष्क एवं अर्धशुष्क स्थलाकृतियां

परिचय– पवन एक महत्वपूर्ण तृतीय स्थलाकृति के निर्माण का अभिकर्ता है। वायु शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की अपरदन एवं निक्षेप जनित स्थलाकृतियो का निर्माण करता है। उल्लेखनीय है कि 10 इंच (25 सेंटीमीटर) से कम वार्षिक वाले क्षेत्रों को मरुस्थल (शुष्क) तथा 10 से 20 इंच (25 से 50 सेंटीमीटर) वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों को अर्ध शुष्क क्षेत्र कहा जाता है। पवन अपनी अपरदनात्मक कार्य के द्वारा शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में निश्चित एवं आकर्षक स्थलाकृतियों का निर्माण करता है। तथापि अपरदन मुख्यता निम्न कारकों से प्रभावित होता है-

  • पवन वेग
  • रेत तथा धूल कणों की मात्रा तथा स्वभाव
  • शैलो की संरचना
  • जलवायु
  • वनस्पति

पवन का वेग– यदि पवन का वेग कम होगा तो चट्टान पर टक्कर का प्रभाव नगण्य होगा साथ ही धूल कणों को ले जाने की क्षमता कम होगी जिससे अपघर्षण तथा सन्निघर्षण नगण्य होगा।

धूल कणों की मात्रा– पवन के अपरदन का कार्य अपरदनात्मक यंत्र  द्वारा ही संपादित होता है इन यंत्रों में रेत के कण, धूलिकण, कंकड़, पत्थर आदि शामिल हैं। जब हवा तेज बहती है तो उसके साथ रेत के कण से अपरदन करते हैं जैसे-जैसे सतह के ऊपर जाते हैं रेत या धूल कणों की मात्रा तथा आकार दोनों में ह्रास होने लगता है। पवन के निचले स्तर अर्थात धरातल सतह के पास 6 फीट तक अपरदन अधिक होता है।
शैलों की संरचना– कोमल तथा कम प्रतिरोधी शैलों का अधिक अपरदन होता है जबकि कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का कम अपरदन होता है।
जलवायु– जलवायु पवन अपरदन पर असर डालते हैं जैसे- उच्च तापमान वाले मरुस्थल शुष्क हो जाते हैं अतः वहां पवन का अपवहन अधिक होता है।
वनस्पति– जहां वनस्पति का आवरण पाया जाता है वहां पवन का अपरदन कार्य मन्द होता है जबकि जहां वनस्पति का अभाव होता है वहां पवन का अपरदन कार्य अधिक होता है।
पवन द्वारा अपरदन के रूप– अपवहन, सन्निघर्षण, अपघर्षण।
अपवहन– वायु द्वारा चट्टानों के चूर्ण को उड़ा कर ले जाना।
अपघर्षण– पवन के मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर, घिसकर अपरदित करती हैं।
सन्धिघर्षण– शैल कण आपस मे रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं।
पवन द्वारा अपरदन जनित स्थलाकृति– अपवहन गर्त या अपवहन बेसिन, इंसेलबर्ग, छत्रकशिला, भूस्तंभ, ज्यूजेन, यारडंग, ड्राईकांटर, जालीदारशीला, पवनवाताएं / खिड़की
पवन के अपवहन अथवा उड़ाने के क्रिया के द्वारा छोटे-छोटे कणों को उड़ाकर ले जाने से निर्मित अनेक छोटे-छोटे गर्तो को अपवहन गर्त कहते हैं। अपवहन गर्त के गहराई की सीमा भौम जल स्तर द्वारा निर्धारित होती है। अमेरिका में अपवहन बेसिनो को बफैलोवालोस तथा मंगोलिया में पांगकियांग कहते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों में समान सतह से ऊंचे उठे टिल्लो को इंसेलबर्ग कहते हैं। बोर्नहार्ट नामक विद्वान के नाम से जाना जाता है। गुम्बदाकार इंसलबर्ग का निर्माण ग्रेनाइट या निस चट्टानों के अपरदन/ अपक्षयण के द्वारा होता है। पश्शार्गे, डेविस तथा किंग ने भी इंसेलबर्ग का अध्ययन कलाहारी मरुस्थल में किया था। छत्रक शिला मरुस्थलीय भागों में यदि कठोर शैल आवरण के नीचे कोमल चट्टान स्थित हो तो पवनों के द्वारा एक विचित्र प्रकार की स्थलाकृति का निर्माण होता है जिसे छत्रक शिला कहते हैं। चुकी पवन की तीव्रता 6 फीट तक अधिक रहती है इसलिए पवन के द्वारा चारों दिशाओं से अपरदन के कारण निचला भाग कट जाता है तथा ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है।
और इस प्रकार छत्रक शिला के रूप में छतरीनुमा स्थलाकृति का निर्माण करता है। सहारा के रेगिस्तान में गारा के नाम से तथा जर्मनी में पिट्जफेल्सन के नाम से संबोधित किया जाता है।
भूस्तंभ- असंगठित तथा कोमल शैल के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी शैल की उपस्थिति में ऊपर कठोर शैलो के द्वारा नीचली कोमल शैलो को संरक्षण प्रदान किया जाता है। संरक्षण दिए जाने के कारण बनी आकृति को भूस्तंभ कहते हैं।
ज्यूजेन- कठोर तथा कोमल चट्टानों के ऊपर नीचे एक दूसरे के समानांतर/ (क्षैतिज) उपस्थिति में अपक्षय तथा विशेष अपरदन के द्वारा ढक्कनकार दवात के समान बनी विशेष स्थलाकृति ज्यूजेन होती है। ऊपरी कठोर शैल की परतों की संधियों व छिद्रो में ओस भर जाने के कारण तुषार अपक्षय के द्वारा ज्यूजेन जैसे स्थलाकृति बनती है। ज्यूजेन की ऊंचाई 90 से 150 मीटर तक होती है।
यारडंग- कठोर एवं कोमल शैलो के एक दूसरे के लंबवत होने की स्थिति में कठोर शैलो की अपेक्षा मुलायम शैलो का कटाव अधिक होता है। कठोर शैलो के घर्षण क्रिया से कम प्रभावित होने के कारण कठोर चट्टान शिर्ष के रूप में खड़े रह जाते हैं तथा शैलो के पाशर्व भाग में कटाव होने से नालियां बन जाती हैं। यारडंग प्रायः पवनो के दिशा में समानांतर स्थित होते हैं।
ड्राईकांटर- सतह पर पड़े शिलाखंड पर पवन द्वारा अपरदन किए जाने से चट्टानों पर खरोच पड़ जाते हैं। खरोचों के कारण चट्टानों में फलक बन जाते हैं।

जालीदार शिला- मरुस्थलीय भाग में जब विभिन्न स्वभाव वाले चट्टानें पवनों के मार्ग में पड़ जाती है तो ऐसी स्थिति में पवन के द्वारा कोमल शैलो का अपरदन करके उसे अन्यंत्र पहुंचा दिया जाता है जबकि कठोर भाग यथा स्थान पर रह जाता है इस प्रकार अपरदन के कारण बने स्थल रूप को जालीदार अथवा जालक अदिशमक शैल कहते हैं।
पवन वातायन – लंबे समय तक अपरदन के कारण जालीदार शीला में बने छिद्र जब शैल के आर – पार हो जाते हैं तो आर पार बने छिद्रों को पवन खिड़की या वातयन छिद्र कहते हैं। चुकि इस खिड़की से होने वाले अपरदन के अंतर्गत शैलो का नीचे से कटाव हो जाता है। और ऊपरी भाग छत के रूप में विद्यमान रहता है इसलिए मेहराबनुमा आकृति बन जाती है जिसे पूल भी कहा जाता है।
पवन द्वारा परिवहन कार्य –पवन का परिवहन कार्य पवन चलने की दिशा में अनिश्चितता के कारण स्थलाकृतियों के निर्माण हेतु परिणामी या प्रयोज्य नहीं होता है । पवन का परिवहन अधिक दूरी तक विस्तृत क्षेत्रों में होता है इसलिए भी आकृतियां नहीं बन पाती । दिशा सुनिश्चित ना होना भी आकृति निर्माण के समक्ष एक बाधा है।
पवन का नीचे पर कार्य – पवन का निश्चित कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है जब पवन के वेग में कमी आ जाती है अथवा मार्ग में अवरोध आ जाने के कारण पवन अवसादो का निक्षेपण करने लगता है।
पवन द्वारा निक्षेप जनित स्थलाकृति– तरंग, लोयस, बालुका स्तूप।
तरंग चिन्ह– पवन के निक्षेप कार्यों से मरुस्थलीय सतह पर सागरीय तरंगों के समान पवन प्रवाह के समकोण दिशा में लहरदार चिन्ह बन जाते हैं । जिन्हें तरंग चिन्ह अथवा उर्मि चिन्ह कहते हैंं। पवन की दिशा परिवर्तित होने के कारण इनका स्वरूप भी बदलता रहता है।
बालुका स्तूप – पवन द्वारा रेत एवं बालु के नीक्षेप से निर्मित स्तूप को बालुका स्तूप कहते हैं।
आवश्यक दशाएं –1 रेत की अधिकता
2-तीव्र पवन वेग
3-उचित स्थान अवरोध वाले स्थान के आसपास जलीय भाग अथवा गहरे गर्त नहीं होने चाहिए।
4-पवन मार्ग में अवरोध
बालुका स्तूप का वर्गीकरण-
1 – पावनानुवर्ती बालुका स्तूप
2 – अनुप्रस्थ बालुका स्तूप
3 – बरखान
4 – अन्य
पावनानुवर्ती बालुका स्तूप – पवन की दिशा में समानांतर निर्मित लंबे-लंबे स्तूपो को अनुदैर्ध्य बालुका स्तूप कहते हैं। इन स्तूपो को पावनानुवर्ती ढाल मंद तथा पवन विमुखी ढाल तीव्र होता है। विभिन्न स्तूपो के मध्य स्थित रिक्त भागों को कोरिडोर कहते हैं। (सहारा में गासी कहते हैं)
अनुप्रस्थ बालुका स्तूप – जब स्तूपो का निर्माण प्रचलित पवन के दिशा के समकोण पर होता है। तो उसे आणे अथवा अनुप्रस्थ बालूका स्तूप कहते हैं । इसका निर्माण रेगिस्तान की सीमा अथवा रेतीले सागरीय तटों पर होता है यह स्तूप प्रायः लहरदार होते हैं।
बरखान – यह अनुप्रस्थ बालुका स्तूप के विशिष्ट रूप होते हैं इनका आकार चांपाकार या नवचंद्राकार होता है । इनका पवन रूपी ढाल उत्तल तथा पवनबीमुखी ढाल अवतल होता है। बरखान मध्य में काफी ऊंचे होते हैं तथा इनके पूर्ण विकसित दो सिंग होते हैं जो पवन के चलन में होतेे हैं यह तुर्किस्तान में अधिक संख्या में होते हैं।अन्य रूप – झाड़ियों के पृष्ठ भाग से निर्मित स्थल रूपों में नेमका स्थल के नाम से जानते हैं। लूनेट स्थल का निर्माण रेगिस्तानी लघु गर्तो (प्लाया) के पृष्ठ भाग में होता है। अनुदैर्ध्य ( रैखिय) स्तूपों के स्थानांतरण के बाद पीछे छोटी मोटी रेत से निर्मित स्थल रूप में व्हेल बैक कहा जाता है ।अत्याधिक विस्तृत व्हेल बैक स्थल रूप द्रास कहते हैं। तीन या अधिक भुजाओं वाला स्थल रूप को तारा कहते हैं। तारा तथा अनुप्रस्थ स्तूप के मध्य के विशेषताओं वाले स्तूप को विलोन स्तूप कहते हैं
लोयस – पवन द्वारा लाई गई अवसादो केे निक्षेप से निर्मित मैदान को लोअस होता है। सर्वप्रथम जर्मन भूगोलवेत्ता रिच थोपेन ने चीन में लोयस क्षेत्रों का अध्ययन किया था, तथा इसका नामकरण फ्रांस के अल्सास प्रांत में लोयस के नाम पर किया।
आवश्यकताएं दशाएं –

• वनस्पतियां,

• धूल के कण आपस में संबंध होकर नीचे बैठ जाते हैं।

• वर्षा का जल पवन के साथ मिली धूल को नीचे बैठा देता है।अमेरिका में लोयस को अबोढ जबकि बेल्जियम और फ्रांस में इसे लेमन कहते हैं । यह क्षेत्र कृषि तथा ईट बनाने के लिए कच्चा सामग्री का कार्य करता है। कभी-कभी मिट्टी की खुदाई कर खड़े दिवालों के माध्यम से घर बना लिया जाता है ।हालांकि यह घर बाढ़ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं चुकी ये मिट्टी काफी पारग्मय होती है यही कारण है कि लोयस वाले क्षेत्र में प्रवाहित ह्वागहो नदी द्वारा लाए गए बाढ़ के कारण इसे चीन का शोक भी कहते हैं।
जल निर्मित मरुस्थलीय स्थलाकृति – अर्ध शुष्क व शुष्क प्रदेशों में सामायिक वर्षा के द्वारा शैलो के यांत्रिकविघटन तथा जलीय अपरदन से कुछ विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृति या बनती हैं
1 – उत्खात स्थलाकृति
2 – पेडिमेंट
3 – बजादा
4 – प्लाया
उत्खात स्थलाकृति – असामयिक वर्षा के कारण मरुस्थल में छोटी जलधाराएं निकल पड़ती हैं जिनके द्वारा अपरदन के कारण गहरे खाई या गड्ढे बन जाते हैं जिससे उन क्षेत्र की स्थलाकृति अत्यंत उबड़ खाबड़ हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि कार्स्ट स्थलाकृति वाले क्षेत्रों मेंउत्खात स्थलाकृति या रासायनिक अपक्षय से बनती हैं।
पेडिमेंट – पर्वतीय अग्रभाग तथा बाजादा के मध्य आप अपरदित शैल सतह वाले भाग को पेडिमेंट कहते हैंं। जिसका ढाल सामान्य होता है। पेडिमेंट का निर्माण अपक्षय तथा सरिता अपरदन के विभिन्न चट्टानों के (अपरदन ) कटने के कारण होता है।
पेडिमेंट के सिद्धांत से बालसन का पर्वतीय अग्रभाग के पीछे हटने से पेडिमेंट के निर्माण से संबंधित सिद्धांत।
• मैक्डी का चादरी बाढ़ सिद्धांत ।
• गिलबर्ट का क्षैतिज अपरदन द्वारा पेडिमेंट के निर्माण से संबंधित सिद्धांत।
• मॉरिस जानसन ब्लैक बिल्डर का पार्श्विक अपरदन सिद्धांत ‌
• मिश्रित सिद्धांत- डेविस, किंग
बजादा – प्लाया तथा पर्वतीय अग्रभाग के मध्य मंद ढाल वाले भाग को बजादा कहते हैं।
प्लाया – प्लाया बजारा से घिरी हुई एक विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृति है । यह एक प्रकार की झील है । जो प्राय: शुष्क होती है तथा असमयिक वर्षा के कारण कभी-कभार भर जाती है। अधिक नमक वाली प्लाया को सेलिनास कहते हैं। अरब के रेगिस्तान में प्लाया कबारी तथा खलन तथा सहारा के रेगिस्तान में सट्ठ कहते हैं। बालसन एक बेसिन है जो बाजादा से गिरी हुई होती है। इसी बालन के केंद्रीय भाग अथवा न्यूनतम उच्चावच वाले क्षेत्र में होता है।

जलवायु परिवर्तन (climate change)

By Team Rudra on Wednesday, March 24, 2021

जलवायु परिवर्तन (Climate change)

किसी स्थान के अल्पकालीन वायुमंडलीय दशाओं के औसत को मौसम कहते हैं।

परिचय- पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त वायुमंडल प्राकृतिक पर्यावरण एवं जैवमंडलीय पारितंत्र एक प्रमुख संघटक है। क्योंकि जैवमंडल में जीवन का अस्तित्व वायुमंडल में निहित गैसों के कारण ही संभव होता है। जलवायु किसी स्थान के लंबे समय के मौसमी घटनाओं/ (वायुमंडलीय दशाओं) का औसत होता है। अर्थात वायुमंडलीय दशाओं के दीर्घकालीन औसत को जलवायु कहते हैं। पृथ्वी के जलवायु स्थैतिक नहीं है। मौसम एवं जलवायु में प्राकृतिक कारण से स्थानीय, प्रादेशिक एवं वैश्विक स्तरों पर परिवर्तन होता रहता है। किंतु औद्योगिक क्रांति के बाद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास के कारण मानव द्वारा वायुमंडलीय दशाओं में तीव्र गति से परिवर्तन होने लगा है इसका असर संपूर्ण पारितंत्र पर दिख रहा है। जलवायु में होने वाले इसी परिवर्तन को वर्तमान में जलवायु परिवर्तन कहा जा रहा है। दूसरे शब्दों में जलवायु परिवर्तन का भौगोलिक अभिप्राय मौसमी प्रतिरूप में लंबे समय तक के परिवर्तन से है। साधारण शब्दों में चरम घटनाएं जलवायु परिवर्तन की द्योतक है।

जलवायु परिवर्तन के संकेतक

जैविक संकेतक

1- वनस्पति संकेतक

  • पौधों के जीवाश्म
  • ऑक्सीजन के आइसोटोप
  • वृक्ष के तने में पाए जाने वाले वलय में वृद्धि 

2- प्राणीजात संकेतक

  • प्राणीजात जीवाश्म
  • जंतुओं का वितरण एवं प्रसरण

भौमिकीय संकेतक

  • हिमानी निर्मित झीलों में अवसादो का निक्षेपण
  • कोयला अवसादी निक्षेप
  • मृदीय संकेतक
  • उच्च अक्षांशो में हिमानियों के आगे बढ़ने व पीछे हटने के अवशेषिय चिन्ह

हिमीय संकेतक

हिमानीकरण- भूगर्भीय अभिलेखों से हिमयुगों तथा अंतर हिमयुगों में क्रमशः परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रकट होना।

विवर्तनिकी संकेतक

  • प्लेट विवर्तनिकी- ध्रुवो का भ्रमण एवं महाद्वीपीय प्रवाह
  • पूराचुंबकत्व एवं सागर नितल प्रसरण
  • सागर तल में परिवर्तन

ऐतिहासिक अभिलेख

  • बाढ़ अभिलेख
  • सूखा अभिलेख

जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक- जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारकों द्वारा प्रभावित होती है। औद्योगिकीकरण से पहले इस प्रक्रिया में मानवीय कारकों की भूमिका कम थी। औद्योगिकीकरण के पश्चात संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वैश्विक तापन एवं प्रदूषण के रूप में गंभीर समस्या सामने आई। 

जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक व मानवीय कारक निम्न है-

प्राकृतिक कारक

1- सौंर्य विकिरण में भिन्नता

2- सौर्य कलंक चक्र

3- ज्वालामुखी उद्भेदन

4- पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन

5- वायुमंडलीय गैसीय संयोजन में परिवर्तन

6- महाद्वीपीय विस्थापन

मानव जनित कारक

1- संसाधनों का दुरुपयोग

2- नगरीकरण एवं तीव्र औद्योगिकीकरण

3- इंधन का ह्रास

4- बड़े पैमाने पर भूमि उपयोग में परिवर्तन (निर्वनीकरण)

5- वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, सल्फर डाइऑक्साइड आदि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि।

6- समताप मंडल में ओजोन में ह्रास

7- तापमान में वृद्धि

जलवायु परिवर्तन का मानव व पारितंत्र पर प्रभाव

1- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव एवं बीमारियां

2- कृषि एवं भोजन सुरक्षा तथा आहार गुणवत्ता पर प्रभाव

3- पारितंत्र एवं जैव विविधता पर प्रभाव

4- जल के लिए तनाव एवं जल असुरक्षा

5- ग्लेशियर का पिघलना

6- समुद्र जल स्तर में वृद्धि

7- वायुमंडली एवं समुद्री तापमान में वृद्धि

8- भूमि संसाधन पर प्रभाव

9- अत्यंत कठोर मौसमी दशाएं

जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में प्रयास 

  • प्रथम आकलन रिपोर्ट- 1990
  • द्वितीय आकलन रिपोर्ट- 1997
  • तृतीय आकलन रिपोर्ट- 2001
  • चतुर्थ आकलन रिपोर्ट- 2007 (IPCC को नोबेल शांति पुरस्कार
  • पांचवी आकलन रिपोर्ट- 2013-2014
  • छठी आकलन रिपोर्ट- 2021

जलवायु परिवर्तन से संबंधित संगठन एवं अभिसमय

पर्यावरण विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCED) पृथ्वी सम्मेलन/रियो सम्मेलन

क्योटो प्रोटोकॉल UNFCC से जुड़ा एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जो अंतरराष्ट्रीय रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन कटौती लक्ष्यो को पार्टियों हेतु प्रतिबद्ध करता है।इस प्रोटोकॉल को 1997 में अपनाया गया किंतु यह 2005 में क्रियाशील हुआ इस प्रोटोकॉल से संबंधित विस्तृत नियम को मराकेश समझौता (2001) के तहत बनाया गया।

क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत ANNEX-1 के देशों को 2008-2012 के बीच अपनी हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5.2% की कटौती करनी थी। उल्लेखनीय है कि क्योटो प्रोटोकॉल के प्रथम प्रतिबद्धता अवधि 2008-2012 है। तथा इसकी द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि 2013 में शुरू हुई है तथा 2020 में खत्म होना है। क्योटो प्रोटोकॉल के कानूनी क्रियान्वयन हेतु UNFCC के ऐसे 55 देशों, जो 55% वैश्विक कार्बन उत्सर्जन हेतु जिम्मेदार हैं, के द्वारा सत्यापन किया जाना जरूरी है। 

क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत सदस्य देशों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-

ANNEX-1 (परिशिष्ट-1)- इसके अंतर्गत ऐसे विकसित देश शामिल हैं जो 1992 के समय OECD  (1961) के सदस्य थे साथ ही इस श्रेणी में वह देश भी शामिल हैं जिसकी अर्थव्यवस्था उस समय संक्रमण काल से गुजर रही थी। जैसे- बाल्टिक देश, रशियन फेडरेशन, विभिन्न मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देश।

परिशिष्ट-2- परिशिष्ट एक के OECD के सदस्य देश तो हैं लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था संक्रमण काल से नहीं गुजरी है। ऐसे देशों को वित्तीय सहायता के द्वारा विकासशील देशों की ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन संबंधी गतिविधियों को कम करने में मदद करती है।

Non ANNEX-1 –  ज्यादातर विकासशील देश शामिल है।

उत्सर्जन में कटौती हेतु रणनीति

1- उत्सर्जन कटौती प्रतिबद्धता

2- लचीला बाजार तंत्र- लचीले बाजार तंत्र के अंतर्गत तीन तरह के तंत्र सम्मिलित हैं-

(I) अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन बाजार।

(ii) स्वच्छ विकास तंत्र-कार्बन क्रेडिट

(iii) संयुक्त क्रियान्वयन

बाली सम्मेलन 2007- सरकारों ने योजना को पांच मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया-

1- साझा दृष्टिकोण

2- समन या न्यूनीकरण

3- अनुकूलन

4- प्रौद्योगिकी

5- वित्तियन

कोपेनहेगन सम्मेलन- चार न्यून इकाइयों की स्थापना की गई- 

1- REDD + पर एक तंत्र का विकास

2- ग्रीन क्लाइमेट फंड की व्यवस्था

3- एक प्रौद्योगिकी तंत्र

4- एक उच्चस्तरीय पैनल जो वित्तीय प्रावधानों का आकलन कर सके।

पेरिस समझौता (2015)- इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर (1750) से 2 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि से नीचे रखना है। इसके लिए कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 2050 तक 50% तथा 2100 तक 100% तक कटौती करना है। यह समझौता 2020 की अवधि के बाद क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेगा।

पेरिस समझौते के मुख्य प्रावधान

1- CBDR (common but differenciated responsibilities)- RC- (respective capability)

2- NDC- Nationally Ditermine Contribution

3- समन

4- अनुकूलन

5- वित्तपोषण

6- पारदर्शिता

7- प्रौद्योगिकी विकास एवं हस्तानांतरण

8- वैश्विक स्टाक की जांच

9- अंतर्राष्ट्रीय सौर ऊर्जा का गठजोड़ (2015) मुख्यालय गुरुग्राम

10- मिशन इनोवेशन (2015)

भारत एवं जलवायु परिवर्तन

IPCC के चौथे एवं पांचवी रिपोर्ट के अनुसार उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के द्वारा अधिक प्रभावित होने का खतरा है अतः इस कारण भारत भी इन प्रभाव से अछूता नहीं है। भारत के सम्मुख जलवायु परिवर्तन के वैश्विक खतरे से निपटने के साथ-साथ तेजी से विकसित हो रही अपनी अर्थव्यवस्था के विकास दर को बनाए रखना भी एक चुनौती है। जलवायु परिवर्तन के कारण भारत अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है तथा उसके सम्मुख भविष्य में भी चुनौतियां खड़ी होने वाली है। भारत उत्सर्जन कटौती के बाध्यकारी लक्ष्य को नहीं अपना सकता है इसके पीछे कई कारण है।

  • गरीबी उन्मूलन की अनिवार्यता
  • हर मानव का वैश्विक संसाधनों पर समान अधिकार
  • देश को विकास के उच्च पायदान पर ले जाने का संकल्प।

भारत में जलवायु परिवर्तन एवं मौसमी घटनाएं

1- तापमान की बढ़ोतरी

2- वर्षण में अत्यधिक परिवर्तनशीलता

3- समुद्री जल स्तर में वृद्धि

4- हिमालयी ग्लेशियरों पर प्रभाव

5- विषम मौसमी घटनाएं

भारत का जलवायु परिवर्तन हेतु समझौतों एवं वार्ताओं में योगदान

  • पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर
  • UNFCCC को वित्त, प्रौद्योगिकी, एवं अन्य क्षेत्रों पर कई प्रस्तुतीकरण दे चुका है।
  • क्योटो प्रोटोकॉल की द्वितीय प्रतिबद्धता (2013-2014) अवधी पर सहमति

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) -2008

  • 8 कार्यक्रमों का एक समूह

1- राष्ट्रीय सौर मिशन

2- राष्ट्रीय संबंधित ऊर्जा दक्षता मिशन

3- राष्ट्रीय सतत पर्यावरण मिशन

4- राष्ट्रीय जल मिशन

5- हिमालयी पारितंत्र को टिकाऊ बनाने हेतु राष्ट्रीय मिशन

6- राष्ट्रीय हरित मिशन

7- राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन

8- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन रणनीतिक ज्ञान मिशन

  • भारत ने जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन पर भारतीय तंत्र INCCA (2009) ने बनाया।
  • समन्वित ऊर्जा नीति (2006)
  • नई एवं नवीकरणीय ऊर्जा नीति (2005)
  • राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 एवं पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन पर इसकी अधिसूचना

बचत लैंप योजना- ऊर्जा संरक्षण कानून 2001 के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा स्थापित ऊर्जा दक्षता ब्यूरो छोटे स्तर के CDM प्रोजेक्ट विकास का समन्वय करता है तथा विभिन्न राज्य में लैंप योजना को संपादित करता है।

ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता (2007)

ग्रीन बिल्डिंग की संकल्पना

  • भारत सरकार ने संबंधित आवास मूल्यांकन हेतु हरित रेटिंग GRIHA (green rating for integrated habitat assessment) रेटिंग तंत्र का निर्माण किया है।
  • भारतीय उद्योग संघ CCI ने 2001 में Indian green council की स्थापना की है।
  • भारत सरकार LEED (leadership in energy and investment desire) नामक रेटिंग सिस्टम के मानकों का अध्ययन करती है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप के पर्यावरणीय पहलुओं को निर्देशित करने हेतु TERI (the energy and resource institute) ने GHIH council की स्थापना की है। 
  • भारत सरकार ने 2011 में NICRA (national  invention climate resilint agriculture) नामक एक नेटवर्क प्रोजेक्ट बनाया है।
  • भारत सरकार ने UNFCC देशों के मध्य सूचनाओं के संचार हेतु NATCOM की स्थापना की है।
  • भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के साथ-साथ द्वितीय एवं बहुपक्षीय समझौते के माध्यम से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने हेतु हर संभव प्रयास कर रही है।

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