मात्रात्मक क्रांति
भूगोल में गणितीय एवं सांख्यिकी विधियों का अधिकाधिक प्रयोग ही मात्रात्मक क्रांति है। भौगोलिक अध्ययन में आनुभाविक विधि तंत्र के प्रयोग के कारण द्वितीय विश्व युद्ध तक भूगोल के एक विषय के रूप में मान्यता पर प्रश्न खड़ा होने लगा। भूगोल को खुद को बचाने के लिए प्रिंसटन विश्वविद्यालय द्वारा (1949) world science conference का आयोजन किया गया है। इसके अंतर्गत मात्रात्मक विधियों के प्रयोग की बात की गई है। बर्टन ने 1963 में अपने शोध पत्र “quantitative revoluation and theoretical geography” में मात्रात्मक क्रांति की प्रासंगिकता पर चर्चा की।
मात्रात्मक क्रांति के विकास के चरण
i- प्रथम चरण (1952-58) – वेरी, नेल्सन तथा बुंगी, जिप्स इस चरण के मुख्य भूगोलवेत्ता है। इस चरण में सांख्यिकी विधियों के अंतर्गत भौगोलिक आंकड़ों का प्राथमिक स्तर पर संग्रह, केंद्रीय मान का मूल्यांकन तथा विचलन मान के मूल्यांकन के अनुप्रयोग को बढ़ावा दिया गया। सरल सांख्यिकी विधियों जैसे- माध्य, ,बहुलक, विचलन आदि के प्रयोग को भूगोल में काफी महत्व दिया गया।
इस
इसके अंतर्गत निम्नलिखित सिद्धांतों के निर्माण पर जोर दिया गया।
A- अवस्थिति सिद्धांत
B- केंद्रीय स्थल सिद्धांत
C- विसरण सिद्धांत
C- स्थानिक विश्लेषण
D- सामाजिक भौतिक सिद्धांत
i- सामाजिक गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत
ii- न्यूनतम प्रयास सिद्धांत
iii- दूरी का घर्षण सिद्धांत
II- द्वितीय चरण – (1958-68) – एकरमैन, चोर्ले, हैगेट इस चरण के प्रमुख भूगोलवेत्त। सहसम्बन्ध विश्लेषण पर पर्याप्त जोर दिया गया। एस्कोर्ट एवं मोसर ने बहुचर विधि का उपयोग करते हुए भविष्यवाणी का व्यवस्था का निर्माण।
III- तृतीय चरण ( 1968-78) – वोल्स ,नुल्श, तथा चोर्ले एवं हैगेट आदि ने मॉडल निर्माण पर अत्यधिक जोड़ दिया। जैसे– बहुभुज मॉडल
IV- चौथा चरण (1978 से अब तक)-
इस चरण में GIS एवं GPS पर आधारित आंकड़ों के अध्ययन पर जोर दिया गया। भौतिक भूगोल तथा पर्यावरण भूगोल के साथ संसाधन भूगोल को इसका विशेष लाभ मिला।
प्रसंगिकता
- मात्रात्मक क्रांति ने भूगोल को अधिक तर्कसंगत व वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया।
- मॉडल व वैज्ञानिक सिद्धांतों का निर्माण सहजता से संभव हुआ।
आलोचना
- मात्रात्मक विधि की जटिलता व कठिनाई के कारण समझने में कठिनाई। फलस्वरूप अल्पसमक्ष के कारण निष्कर्षों के भ्रामक होने की संभावना।
- वर्णनात्मक एवं विश्लेषणात्मक विधि तंत्र की भूगोल में अपनी विशिष्ट प्रासंगिकता है। प्रत्येक स्थान पर सांख्यिकी विधियों का अनावश्यक प्रयोग अनुचित है।
- मानव सहित जीव जंतुओं की आवश्यकता ओं का अतिक्रमण।
- मानव की भावनाओं तथा सामाजिक मुल्यो आदि की उपेक्षा।
निष्कर्ष
मात्रात्मक क्रांति ने जहां भूगोल को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान कर भूगोल की एक विषय के रूप में प्रासंगिकता को पुनः सिद्ध किया वही इसके द्वारा भूगोल की विषय वस्तु ,विधि तंत्रों का अतिक्रमण किए जाने के कारण अनेक पेचीदगियों ने भूगोल में जन्म लिया। यही कारण है कि मात्रात्मक क्रांति के फलस्वरूप आलोचनात्मक क्रांति का जन्म हुआ।