आज के दौर में देखा जा रहा है कि इस तकनीकी युग में जब चारों तरफ कंप्यूटर एवं कृत्रिम बुद्धि का बोलबाला है। तो इस समय पत्रिका निकालना एक दुसाध्य कार्य प्रतीत होता है। पत्रिका में देखा जाए तो एक प्रकार की जीवंतता होती है। जबकि इस मशीनी युग में शासन-प्रशासन चाह रहा है। कि उसके हुक्म का पालन सभी लोग बिना किसी लाग-लपेट के करें। यह कार्य केवल कंप्यूटर मशीन ही कर सकती है।
जबकि पत्रिका के पास जीवन है। जहां जीवन होगा वहां पर संवेदना और सहानुभूति स्वाभाविक रूप से होगी। पत्रिका के पन्ने भले ही निर्जीव हो पर उसमें प्राण फुंकने का कार्य लेखक अपनी लेखनी के माध्यम से करता है। यही पत्रिका सजीव और सामाजिक होती जाती है। जब कोई सांसद या प्रशासक अपने आदेशों का शब्दश: पालन कराना चाहता है, ऐसा संभव नहीं हो पाता है।क्योंकि पत्रिका की जीवनरूपी शक्ति अपने तर्क के आधार पर उन बातों का मूल्यांकन करती है और यदि उनमें कोई खोट होता है तो उनका प्रतिरोध भी करती है। ऐसे में सत्ता हर उस विरोध को दबाना चाहती है। पर एक लेखक ही है जिसके लेखनी रूपी जिजीविषा के सामने सत्ता बोनी नजर आने लगती है ऐसे में यह काफी चुनौती भरा कार्य है। पर-
“ पथ की पथिक कुशलता क्या,
यदि राहों में बिखरे शूल न हो।
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या,
यदि धाराएं प्रतिकूल ना हो । “
इन्हीं पंक्तियों को आदर्श मानते हुए आप हम सभी इस पत्रिका रूपी नौका से समाज की प्रतिकूलताओं से टकराने की हिम्मत करेंगे। आज के सूचना क्रांति के समय में जब सूचनाओं का संजाल चारों तरफ फैला हुआ है। कि वह किसे आत्मसात करें और किसे व्याख्या समझे। इन्हीं उदाहरण में वह उलझा हुआ भटकता रहता है।
ऐसी स्थिति में हमारा प्रयास रहेगा कि वर्तमान समय में, सूचनाओं का जो कबाड़ा भरा पड़ा है या सूचना रूपी जो गंदगी फैली है उसे छानकर उसके शुद्धतम रूप को पाठक के सामने प्रस्तुत कर सके।
पर पत्रिका का दायित्व केवल सूचना परोसना नहीं होता है, उसका कार्य यह भी होता है कि वह समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते रहे या समाज की आगे बढ़ने में क्या-क्या समस्याएं आ रही हैं, समाज में रहने वाले मनुष्य के नैतिक मूल्यों में किस तरह गिरावट आ रही है, किस प्रकार से लोग अपने दायित्व बोध से बढ़ते जा रहे हैं, किस प्रकार से विकसित समय में संवेदना का ह्रास होता जा रहा है, मानव-मानव में गला काट प्रतिस्पर्धा पनपती जा रही है। मनुष्य के जीवन के पीछे कोई सिद्धांत व मूल्य नहीं जा रहे हैं, वह व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं,उसके सारे नैतिक आदर्श जो बचपन में होते हैं वह इस समय की गंदगी में आने के बाद मलिन हो जाते हैं तथा वह युवा होकर भी इस पूंजीवाद के दलदल में आकर पूंजीवाद के दलदल में फंस जाते हैं। जहां पर सारे आदर्श गर्त में फले – फुले हैं। यह बुराई रूपी दिमाग जो समाज को खोखला करती जा रही है।उसको दूर करने का प्रयास तथा समय को एक उचित मार्ग पर लाने का प्रयास इस पत्रिका के माध्यम से किया जाएगा।
यह पत्रिका जो “ढाईआखर” के नाम से प्रकाशित हो रही है अभी इसका स्वरूप गमले में लगे पुष्प के समान है। कहने का तात्पर्य है कि इसका दायरा भले ही छोटा है पर इसका उद्देश्य गमले के पुष्प के समान उन्नत रूप में है।
हम चाहते हैं कि आप सभी का यह दायित्व है इस पत्रिका रूपी पुष्प का हम अच्छे से देखभाल करें तथा अपनी मेहनत, या लग्न रूपी निराई गुड़ाई से इसे निरंतर विकसित व पल्लवित करते रहे। इस पत्रिका में हमारे प्रयास होगा कि हम समय की सभी गतिविधियों चाहे वे साहित्य, राजनैतिक अथवा आर्थिक ,समाजिक वह सांस्कृतिक धार्मिक हो सभी , पर पक्की निगाह बनाए रखते हुए उसे पत्रिका में उचित स्थान दिया जाएगा।
इस पत्रिका का उद्देश्य –
“नहीं श्रांत भाव में टिके रहना किंतु ,
पहुंचना उस मंजिल तक जिसके आगे राह नहीं।“
इस पत्रिका के संबंध में एक सुझाव व कार्य रूप में परिणित करने में अनिल कुमार वर्मा व शैलेंद्र तथा रसल रघुवंशी जी को धन्यवाद व मंगल कामना
नीरज की कलम से