हिमनद

हिमनद


परिचय– हिमनद अन्य अपरदन के कारकों के समान भूतल पर समतल स्थापना का कार्य करता है, हालांकि इसके अपरदनात्मक कार्य काफी विवादग्रस्त हैं। हिमनद धरातल पर सरिताओं के समान ही हिमयुक्त नदि के समान होते हैं उनकी गति मंद होती हैै। हिमनद वास्तव में हिम समूह होते हैं जो हिमक्षेत्र से गुरुत्व के कारण प्रवाहित होते हैं।

हिमनद के प्रकार-
हिमटोपियाॅ (Ice-caps)- पर्वत की चोटियों पर स्थित हिमचादर ‘हिम टोपी’ कहते है।
1- महाद्वीपीय हिमनद– इसका विकास विशाल क्षेत्र में लगातार हिम के संचयन के कारण होता है।
2- पर्वत हिमननद या घाटी हिमनद– इसे अल्पाइन हिमनद भी कहते हैं इसका विकास पर्वत घाटी में होता है।
3- गिरिपद हिमनद- इसका विकास पर्वत के आधार व तली पर होता है अलास्का का मेलास्पिना हिमनद इसका प्रमुख उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि अलमैन महोदय ने सन 1948 में हिमनदो का विधिवत वर्गीकरण किया था।
हिमनद पर्वत के प्रमुख हिमनद-
1- कंचनजंगा
2- जेमू
3- गंगोत्री
4- सासाईनी
5- सियाचिन
6- बाल्टोरों
7- बियाफा
उल्लेखनीय है कि हिमनद के प्रवाहित होने के दिशा में निर्मित हिमनद को अनुदैर्ध्य अथवा लम्बवत हिमनद कहते हैं। जबकि गतिशील हिमनद को समकोण हिमनद कहते हैं।
हिमनद का गतिशील होना– सर्वप्रथम स्विट्जरलैंड के निवासी अगासीज ने व्यक्तिगत प्रेक्षण के आधार पर गतिशीलता को प्रमाणित किया। लुई अगासीज ने हिमनदो के गति के विषय में दिलचस्प तथ्यों का प्रतिपादन किया।
1- हिमनदो में गति होती है तथा किनारों की अपेक्षा मध्य में अधिक गति होती है।

2- हिमनद की गति तली के अपेक्षा सतह पर अधिक होती है।
3- हिमनद के गति के कारण ढाल प्रवणता होती है।
4- सरल शब्दों में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हिमनद के आगे बढ़ने तथा पीछे हटने को हिमनद का निवर्तन कहते हैं।
5- हिमनद का अगला भाग जब वाष्पीकरण तथा गलने के कारण नष्ट हो जाता है तो पीछे सरकते प्रतीत होता है।

हिमनद के अपरदनात्मक कार्य – हिमनद के अपरदनात्मक कार्य के संदर्भ में विद्वानों में दो प्रकार के मत प्रचलित है दोनों विचार परस्पर विरोधी है प्रथम वर्ग के विद्वानों के अनुसार हिमनद शैल को संरक्षण प्रदान करता है क्योंकि यह ऊपर से शैल को ढके रहता है। अतः हिमनद का अपरदनात्मक कार्य नगण्य होता है इस विचारधारा को संरक्षणात्मक संकल्पना कहते हैं।
दूसरा विद्वानों का वर्ग हिमनद के अपरदनात्मक सामर्थ्य में विश्वास रखता है। रेमजे तथा टिण्डल ने हिमनद को अपरदन का सक्रिय कारक माना है तथा वह नवीन स्थलों का सृजन भी करता है।
अपरदन के सामान्य रूप – हिमनद का अपरदनात्मक कार्य अनेक रूपों में संपन्न होता है। अनेक रूपों में अपघर्षण तथा उत्पाटन प्रमुख है ।
अपघर्षण क्रिया के अंतर्गत हिमनद अपरदन के यंत्रों के सहायता से अपने घाटी के तली तथा किनारों को अपरदित करता है। उत्पाटन की क्रिया में हिमनद चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़ों को तोड़कर उन्हें अपने साथ कर लेता है। घाटी हिमनद द्वारा उत्पाटन के रूप में अपरदन द्वारा हिमनद अपने शीर्ष की ओर अपरदन करता है।
दी मार्तोनी ने हिमनद अपरदन के सिद्धांत का प्रतिपादन किया उनके अनुसार यदि तली का ढाल सामान नहीं है जो कि एक तथ्य है जो दरार क्षेत्र के दोनों और ऊपर और नीचे सर्वाधिक अपरदन होता है। सरल शब्दों में जब हिमनद अवतल ढाल की ओर बढ़ता है और उससे होकर अग्रसर होता है तो उसकी ऊपरी सतह में दबा तथा खिंचाव के कारण दरारे बढ़ जाती हैं इस कारण ढाल से नीचे उतरते समय हिम के बड़े-बड़े खंड होकर नीचे सरकने लगते हैं जिस कारण हिमनद की गति तीव्र हो जाती है।
परिणाम स्वरूप जब हिमनद उत्तल ढाल के तरफ पड़ता है तथा उसे पार करके दूसरी ओर उतरता है है तो दोनों भाग में अधिक अपरदन होता है।
इस तरह उत्तर ढाल के दोनों किनारों पर सर्वाधिक अपरदन होता है जबकि अवतल ढाल पर न्यूनतम अपरदन होता है।
हिमनद ( पर्वतीय हिमनद या घाटी हिमनद ) के अपरदनात्मक स्थल द्वारा रूप –
• यू आकार की घाटी
• लटकती या निलम्बित घाटी
• सर्क या हिमगहवर
• टार्न
• अरेत या तीक्ष्ण या कटक
• हार्न या गिरिश्रृंग
• नुनाटक
• श्रृंग या पुच्छ
• हिमसोपान
• भेड़पीठ शैल या राॅश मुटोनेेे• फियोर्ड


यू आकार की घाटी – अपघर्षण उत्पाटन क्रिया द्वारा अपने घाटी को काटकर चौड़ा करती है। खड़े ढाल वाले अनुदैर्ध्य घटिया ही अंग्रेजी के यू अक्षर के समान होती हैं जबकि अनुप्रस्थ घाटियां यू आकार की नहीं होती हैं। सामान्यत: नदियों द्वारा पूर्व नदियों को हिमनद परिवर्तन संशोधन के द्वारा इस तरह घाटी का निर्माण होता है।
लटकती या निलंबित घाटियां – जब हिमनद की मुख्य घाटी के तल से उसमें मिलने वाली सहायक घाटियों के तल अधिक ऊंचे हो जातेे है जो सहायक घटियाॅ मुख्य घाटी पर लटकती हुई प्रतीक होती है उसे लटकती या निलम्बित या बर्हिर्लम्बी घाटीया कहते हैं। हिम के पिघल जाने पर जब इन घाटियों से जल निचली घाटी में गिरता है तो इसी कारण से प्रपात घाटी का निर्माण होता है।

सर्क या हिमगह्वर – पर्वतीय क्षेत्रों में घाटी हिमनद द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों में सर्क सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है तथा यह प्रायः प्रत्येक हिमानीकृत पर्वतीय भाग में मिलता है । सर्क घाटी के शीर्ष भाग पर एक अर्द्धवृत्ताकार या कटोरे के आकार का विशाल गहरा गर्त होता है । जिसका पार्श्व या किनारा खड़े ढाल वाला होता है। सर्क का आकार गहरी सीट वाली आरामकुर्सी से मिलता जुलता हैं। यह प्रायः हिम से भरे रहते हैं। इसका निर्माण तुषारचीरण द्वारा हिमनद की सतह पर बनता है। तापीय अंतर के कारण दिन रात के समय एक दूसरे के हिम व जल में परिवर्तन होने से चट्टान पर दबाव पड़ता है और इस प्रकार दबाव के कारण संलग्न चट्टानों के टूटने से विशाल गर्त का निर्माण होता हैं।
सर्क या हिमगव्हर के निर्माण से संबंधित सिद्धांत –
• यफ० जे० गारवुड की परिकल्पना
• जानसन का वर्गश्रुण्ड सिद्धांत
• हाब्स की संकल्पना
टार्न – सर्क की बेसिन में अपरदन जनित गड्ढे शैल वेसिन के हिम के पिघलने से बनी झील सर्क झील या टार्न कहते हैं।
हार्न या गिरिश्रृंग – जब किसी पहाड़ी के किनारे पर कई सर्क बन जाते हैं तथा जब वे निरंतर अपघर्षण के कारण पीछे हटते जाते हैं तो उनके आधार पर पिरामिड के आकार की चोटी का निर्माण होता है इस प्रकार कि नुकीली चोटी को ही हार्न या गिरिश्रृंग कहते हैं।
नुनाटक – विस्तृत हिम क्षेत्रों में ऊंचे उठे टीले को नूनाटक कहते हैं। जो चारों तरफ से हिम से घिरे होते हैं यह विशाल हिमराशि के बीच बिखरे हुए द्वीप के समान लगते हैं इसी कारण इन्हें नुनाटक को हिमान्तर द्वीप भी कहते हैं। हिमनद द्वारा क्षैतिज अपरदन तुषारक्रिया तथा घर्षण द्वारा अपरदित होकर नुनाटक छोटा होता जाता है कभी-कभी यह पूर्णतय: घिसकर विलीन हो जाता है।
आरेट या तीक्ष्ण कटक – पर्वतीय भागों में जब किसी पहाड़ी के दोनों ओर अर्धवृत्ताकार गर्त एक दूसरे की ओर से सरकने लगते हैं तो उसके मध्य का भागा प्रतीत होकर नुकीला हो जाता है और इस तरह नुकीले तीक्ष्ण कटक को आरेट या एरेटी या सिरेट कटक कहते हैं।
श्रृंग या पूच्छ – जब किसी हिम प्रभावित स्थल भाग में बेसाल्ट या ज्वालामुखी प्लग ऊपर गांठ के रूप में निकलता रहता है तो जिस ओर से हिमनद आता है उस ओर प्लग या बेसाल्ट के उठे हुए भाग पर स्थित मुलायम मिट्टी का हिमनद द्वारा अपरदन होता है। तो इस तरह प्लग का यह भाग उबड़ खाबड़ हो जाता है। ढाल से होकर हिमनद जब बेसाल्ट के उठे भाग को पार करके दूसरी ओर उतरने लगता है तो प्लग के साथ संलग्न सतह का अपरदन ना करके संरक्षण प्रदान करता है इस कारण यह ढाल काफी मन्द होता है तथा काफी विस्तृत क्षेत्र में फैला होता है। बेसाल्ट या प्लग वाले उच्च भाग को श्रृंग अथवा उसके पीछे वाले भाग को पुच्छ कहते हैं। ऊपर उठे प्लग का ढाल तीव्र होता है तथा इसी का अपरदन भी होता है जबकि इससे संलग्न विस्तृत क्षेत्र में फैले पूछ ढाल मंद होता है तथा इसे अपरदन के कारकों द्वारा संरक्षण प्राप्त होता है।
भेड़पीठ शैल या राशि – हिमानीकृत क्षेत्रों में कुछ ऐसी हिम अपरदित शिलाएं होती हैं जो कि दूर से देखने पर ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कोमल ऊन वाली भेड़ बैठी हो। डी सासर ने इस तरह की टीलों के लिए राश मुटोने शब्द का प्रयोग किया।हिंदी में इसे भेड़ पीठ शैल या मेष शिला कहते हैं। हिमनद मार्ग में पड़ने वाले टिलों का अपरदन होता रहता है । इन टिलो पर जिस ओर से हिमनद आगे बढ़ते हैं वह भाग अपघर्षण द्वारा चिकना व हल्के ढाल वाले होते हैं , हल्के ढाल के सहारे हिमनद आसानी से हिमनद टीले पर चढ़ जाता है उतरते समय शीलाखंडों से कम संपर्क के कारण अपरदन कम होता है किंतु उत्पाटन द्वारा खरोंच पड़ने से उबड़ खाबड़ हो जाता है मेष शिला का यह भाग तीव्र ढाल वाला होता है।
हिमसोपान – हिम सोपान हिमनदीय क्षेत्र में स्थित सोपानाकार सोपानाकार सीढ़ीयां होती हैं। जब हिमनद के मार्ग में भ्रंश द्वारा कई कागार (सोपाना का ) इनमें कागारो से हिमनद में प्रवाहित होने से अपघर्षण एवं उत्पाटन क्रिया द्वारा इस तरह के हिम सोपानो का निर्माण होता है क्लिफ के आधार पर स्थित गर्तो में जल एकत्र होने से पैटरनास्टर झील का निर्माण होता है कि और इस प्रकार की झील हिम सोपान के प्रत्येक स्थान पर पाए जाते हैं।
फियोर्ड -उच्च अक्षांशों में जलमग्न हिमानीकृत घाटियों को फिर्योड कहते है। फिर्योड एक प्रकार का तट या किनारा होता है यह गहरे जल के सागरिया भाग होते हैं जिनकी दीवाले खड़ी ढाल वाली होती हैं। फिर्योड किनारे के पास अधिक गहरा होता है तथा सागर की ओर कुछ दूर जाने पर उथला हो जाता है । पुनः गहरा होने लगता है उथले हुए भाग को ही फिर्योड का चौखटा कहते हैं यदि किसी कारण वश फिर्योड की ओर का चौखटा भाग सागर से ऊपर आ जाए फिर्योड का संपर्क सागर से समाप्त हो जाता है तो फिर एक मात्र जल पूर्ण बेसिन के रूप में ही रह जाएगा। जिसे फिर्योड झील या पीडमाण्ट झील कहा जा सकता है।
हिमनद का परिवहन एवं निक्षेपण कार्य – हिमनद द्वारा परिवहन किए जाने वाले पदार्थ को सम्मिलित रूप में ग्लैसियल ड्रिफ्ट कहते हैं । हिमानी द्वारा जमा किए गए अवर्गीकृत तलछट को सम्मिलित रूप में टिल कहते हैं। ग्लैसियल ड्रिफ्ट वास्तव में हिमनद द्वारा निक्षेपित पदार्थ होता है टिल ग्लैसियल ड्रिफ्ट का रूप है।
निक्षेप जनित स्थलाकृति – हिमोढ़ , ड्रमलिन
हिमोढ – हिमनद द्वारा अवसादो का परिवहन ना कर पाने के कारण उनका निक्षेप होने लगता हैै। इन निक्षेपित पदार्थ को हिमोढ़ कहते हैं जिसमें टीले की मात्रा सर्वाधिक होती है।
दूसरे शब्दों में हिमोढ़ टिल के जमाव से निर्मित स्थल रूप होती है। हिमोढ लंबे कटक के रूप में होते हैं। निक्षेप के आधार पर हिमोढ को 4 वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है
• पार्श्विक हिमोढ
• मध्यस्थ हिमोढ
• तलस्थ हिमोढ
• अंतिम हिमोढ
पार्श्विक हिमोढ – हिमनद के किनारे पर टिल केे निक्षेप से लंबे लेकिन पतले कटक के रूप में हिमनद की घाटी के दीवाल के समांतर निर्मित हिमोढ होते हैं।
मध्यस्थ हिमोढ – दो हिमनदो के मिलने से निर्मित हिमोढ को मध्यवर्ती या मध्यस्थ हिमोढ कहते हैं। यह घाटी के मध्य में उठे हुए कटक के रूप में चिन्हित किए जा सकते हैं वास्तव में इनका निर्माण भीतरी पार्श्विक हिमोढ के मिलने से होता है।
तलस्थ हिमोढ – हिमनद की तली या आधार पर टीले के जमाव से तलस्थ हिमोढ का निर्माण होता है।
अंतिम या अंतस्थ हिमोढ – जब हिमनद का अंतिम भाग पिघल जाता है तथा हिमनद का आगे बढ़ना रुक जाता है तो उसके द्वारा लाए गए पदार्थ अग्र भाग में घोड़े की नाल या अर्द्धचंद्राकार में एकत्रित हो जाते हैं इस अर्द्धचंद्राकार रूपी कटक को ही अंतिम या अंतस्थ हिमोढ कहते है। जिसका हिमनद घाटी की ओर ढाल अवतल होता है । अनियमित अंतिम हिमोढ वाले भाग अनेक टीले या बेसिन बन जाती है टीले तथा बेसिन से युक्त हिमोढ़ के इस भाग को “नाब और बेसिन” वाला क्षेत्र कहते हैं।
ड्रमलिन – गोलाश्म मृतिका के द्वारा निर्मित ढेर या टीलों को हिमानी क्षेत्रों में ड्रमलिन कहते हैं जो देखने पर कटे हुए उल्टे अंडे या उल्टी नौका के समान प्रतीत होती है। हिमानी क्षेत्रों में चुकी ये सैकड़ों की संख्या में पाए जाते हैं इसलिए हिमनदी क्षेत्र के इस भाग को “अंडे की टोकरी वाली स्थलाकृति” कहते हैं। इसका ढाल समान होता है अर्थात हिमनद कि मुख की ओर का भाग खड़े ढाल वाले तथा खुरदुरा होता है जबकि दूसरा भाग मंद चिकना व विस्तृत होता है। लेबरेट नामक विद्वान ने ड्रमलिन के निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया।
हिमानी-जलोढ़ निक्षेप जनित स्थलाकृति – प्रवाहित घाटी ऐसे भाग में पहुंच जाता है जहां पर तापमान इतना अधिक होता है कि हिम अपने रूप में नहीं रह सकता तो हिमनद का अग्रभाग पिघलने लगता है जिसे हिमनद का अवसान या अब्लेशन कहते हैं। हिम के पिघलने से प्राप्त जल हिमनद के अग्रभाग से जलधारा के रूप में निकलने लगता है तथा यथास्थान अवसादो का निक्षेपण करता रहता है इस तरह हिमनद का जल के सम्मिलित रूप से निक्षेपण कि क्रिया हिमानी जलोढ़ निक्षेपण कहते हैं इस तरह के निक्षेपो द्वारा अनेक स्थल रूप का निर्माण होता है।
एस्कर , केम , केटिल तथा हमाक, हिमनद अपक्षेप
हिमनद अपक्षेप – अग्रस्थ या अंतस्थ हिमोढ़ के पीछे एकत्रित जल अधिक होने के कारण जब हिमोढ़ को पार करके विस्तृत क्षेत्रों में फैल कर चलता है तो अंतस्थ हिमोढ़ का कुछ मालवा हिमोढ़ के आगे विस्तृत क्षेत्रों में बिछा दिया जाताा है। जिससे एक मैदान का निर्माण होता है । जिसे हिमनद अपक्षेप मैदान कहते हैं बड़े कण हिमोढ़ के निकट तथा छोटे कण दूर निक्षेप होते हैैं।
एस्कर – ये लंबे सकरे कटक होते हैं । जिसके किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं इसके निर्माण में उच्चावच की असमानता का प्रभाव नहीं पड़ता है । हिमनद के पिघलने से निर्मित जलधारा के मार्ग में अवरोध पडने से मालवा का आकार सर्क के रूप में एक लंबे लहरदार कटक के रूप में हो जाता है । कुछ कुछ अंतर पर एस्कर की मोटाई अधिक हो जाती है ये चौड़े भाग धागे में पिरोई गई दाने या मोतियों के समान प्रतीत होती है । इस प्रकार के एस्कर को माला एस्कर या मणिका एस्कर कहते हैं हिमनद के अग्रभाग पर हीम के पिघलने के कारण टीले के रूप में निक्षेपित ढेर को केम कहा जाता है केटील का निर्माण बड़े-बड़े बर्फ के टुकड़े के पिघल जाने के कारण होता है यह एक प्रकार की झील होती है इसी झील के मध्य स्थित छोटे-छोटे टीले हमाक कहलाते हैं।
हिमकाल के कारण- पृथ्वी की भूगर्भिक इतिहास में कई बार हिम युगो का आगमन हुआ है अब तक तीन प्रमुख हिम कालों का विवरण प्राप्त किया जाए सका है।
• कैंब्रियन युग से पूर्व के हिमकाल
• परमोकार्बानिफरस युग
• प्लीस्टोसीन हिमकाल
प्लेस्टोसीन हिमकाल – (एक मिलियन से प्रारंभ हुआ 10 हजार मिलियन से पूर्व) – प्लेस्टोसीन हिमकाल में कई बार हिम चादरों का निवर्तन हुआ। इस काल में हिम चादरों का प्रसार होता है उसे हिमकाल की अवस्था कहते हैं। दो हिम काल की अवस्थाओं के बीच जब हिमचादरें पिघलकर लुप्त हो जाती है तब उसे अन्तर्हिमकाल कहते हैं। कई हिमकाल की अवस्थाओं तथा अन्तर्हिमकाल की अवस्थाओं के सम्मिलित समय को हिमकाल कहा जाता है वर्तमान समय के हिमकााल को होलोसीन (अन्तर्हिमकाल) काल माना जाता है इसी कारण प्लीस्टोसीन हिमकाल तथा वर्तमान अन्तर्हिमकाल को सम्मिलित रूप से क्वाटरनरी हिमकाल कहा जाता है।
पेंक तथा ब्रुकनर ने यूरोप महाद्वीप में गुंज, मित्तल, रिस तथा वर्म नामक चार हिमचादरों के चार क्रमिक चादरों के प्रसार का वर्णन किया है।
इसी प्रकार अमेरिका भी हिम चादरों के चार क्रमिक चादरों का प्रसार मिलता है – नेब्रास्कन, कन्सान, इल्लीन्वायन तथा विसकासिन।

प्लीस्टोसीन हिमकाल का वर्तमान स्थलाकृति पर प्रभाव

1 – नदियों में नवन्मेष के कारण अनेक गार्जो तथा अंत: समुंद्री कैनियनो का निर्माण।
2 – प्लीस्टोसीन हिमकाल में सागर तल के नीचे गिरने के कारण तरंगों द्वारा निर्मित प्लेटफार्म पर हिमचादरों के पिघलने के बाद सागर तल में वृद्धि के समय प्रवाल पालिप ने प्रवाल भित्तियों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया। स्थलीय भाग पर हिमचादरों के प्रसार व निवर्तन के परिणाम स्वरूप बड़े-बड़े हिमोढ़ के समानांतर कटको का निर्माण व विकास होगा।
3 – अनेक हिमानीकृत झील फिनलैंड को झीलों का वाटिका कहतेे हैं।
4 – अनिश्चित प्रतिरूपों का विस्तार
5 – हिमानी द्वारा निर्मित अनेक अपरदन जनित निक्षेप जनित स्थलाकृतियों का निर्माण जैसे-यू आकार की घाटी तथा फियोर्ड तट का निर्माण
हिमकाल के कारण –
• स्थलाकृतिक उच्चावच में परिवर्तन – पर्वतीकरण
• ध्रुवो के स्थान परिवर्तन – वेगनर
• महाद्वीपों का विस्थापन – वेगनर का सिद्धांत
• कार्बन डाइऑक्साइड परिकल्पना – चैम्बरलिन
Co2↑=Inter ice Age
Co2↓= Ice Age
ज्वालामुखी राख परिकल्पना
1 ज्वालामुखी पदार्थ↑ + Atmosphere – Ice Age
2 – ज्वालामुखी पदार्थ ↓ – Inter Ice Age
• सागरिया गर्म धाराओं के मार्ग में अवरोध
• सूर्य विकिरण में परिवर्तन –
Sunspot↑ – सूर्यातप↑
Sunspot↓ – सूर्यातप↓
सिम्पसन की परिकल्पना – सौर विकिरण में परिवर्तन चक्रिय रूप में होता है।

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