सागरीय लहरें (Oceanic waves)
By Team Rudra on Friday, April 2, 2021
सागरी लहरें- सागरीय लहरों, धाराओं, सुनामी, ज्वारीय तरंगों आदि के द्वारा सागरीय जल का कार्य संपन्न किया जाता है। वायु जनित कारकों, चंद्रमा सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति, सागरीय भाग में होने वाली ज्वालामुखी क्रियाओं एवं भूकंपो (अंत: सागरीय भूकंपो एवं अंतः सागरीय ज्वालामुखी) चक्रवातों एवं मानव जनित कारकों के द्वारा क्रमशः वायुजनित तरंगे, ज्वारीय तरंगे, सुनामी, तूफान तरंगों की उत्पत्ति होती है।
सागरीय लहरें जिस जल स्तर पर होकर प्रवाहित होती हैं उसे फेंच कहते हैं। फेंच पर प्रवाहित लहरो का कुछ भाग उठने एवं कुछ भाग नीचे गिरने के कारण क्रमशः श्रृंग एवं गर्त का निर्माण हुआ। क्रमशः दो श्रृंगो एवं दो गर्तो के बीच की दूरी को तरंगदैर्ध्य कहते हैं। तथा एक लहर के द्वारा दो क्रमबद्ध श्रृंग या गर्तो को तय करने में लगे समय को ही तरंग आवृत्ति कहते हैं। इस तरह आवृत्ति का तरंग दैर्ध्य से विपरीत संबंध होने के कारण तरंगों की आवृत्ति अधिक होने पर तरंगों का वेग भी अधिक होता है।
महासागरीय जल जब तट की ओर प्रवाहित होता है तो उस समय गहराई कम होने के कारण तरंग की ऊंचाई अधिक होने लगती है। तरंगों की ऊंचाई अत्यधिक होने तथा तरंगों की मार्ग में सागरीय नितल द्वारा बाधा उत्पन्न किए जाने के कारण तरंगों के श्रृंग टूट जाते हैं इन्हीं टूटी तरंगों को सर्फ ब्रेेकर या स्वाश कहते हैं। उस बिंदु पर जहां समान ऊंचाई वाली तरंगों के श्रृंग टूट कर सर्फ में बदल देते हैं। उन बिंदुओं को मिलाते हुए समुद्री तट के समानांतर खींची गई रेखा को प्लंज लाइन कहते हैं। ये सर्फ जब तट से टकराते हैं तो इनका जल कई भागों में बांट जाता है। इनमें तट के समानांतर प्रवाहित होने वाले जल को बेलांचली कहते हैं। जल की सतह के रास्ते पुनः समुद्र की ओर लौटने वाले जल की तरंगिका तथा जलीय सतह के नीचे प्रवाहित समुद्रोन्मुखी जल को अध: प्रवाह कहते हैं।
टूटे हुए श्रृंगो के अपरदनात्मक कार्यों के द्वारा ढांचा क्लिफ, वेवकट प्लेटफॉर्म (wavecut platform) निक्षेपात्मक कार्यों के द्वारा पुलिन, wavebuild platform)जैसी स्थलाकृतियों की उत्पत्ति होती है। वही अध: प्रवाह द्वारा स्थलाकृतियों का विनाश भी होता है। धाराओं के माध्यम से सागरीय जीवो को प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों से सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र धनी होता है वही यह धाराएं व्यापार पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। इसी तरह सुनामी द्वारा प्राकृतिक आपदा की स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है।
इस तरह सागरीय तरंगों द्वारा जहां अनुकूल परिवर्तन होता है वहीं यह विपरीत ढंग से भी प्रभावित करती हैं।FacebookWhatsAppEmailTwitterMessengerSMSTelegramCopy LinkShare
नदी
By Team Rudra on Monday, March 29, 2021
बहते हुए जल के द्वारा जल गति क्रिया पवन द्वारा, अपवहन तथा हिमनद के लिए उत्पाटन की क्रिया से असंगठित चट्टानें अपरदित होती हैं । इसी प्रकार अपघर्षण अपरदन के कारकों तथा अवसादों के सम्मिलित प्रभाव से होने वाली एक क्रिया है। जिसके द्वारा संलग्न सतह का कटाव होता है अर्थात अपरदन के यंत्र/कारक संलग्न सतहों पर अपहरण के द्वारा कटाव करते हैं । यह अपरदन से संबंधित सभी क्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।
जब अवसादों के आपास में टकराने से विघटन की प्रक्रिया होती है तो उसे सन्निघर्षण कहते हैं जब अपरदन के कारकों में जल गति क्रिया के द्वारा असंगठित चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उसे हम रसायनिक अपरदन अथवा संक्षारण कहते हैं। अपरदन के कारकों में बहते हुए जल का प्रभाव सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्रों में होता है। यही कारण है कि डेविस द्वारा प्रतिपादित सामान्य अपरदन चक्र को सरिता अपरदन चक्र भी कहते हैं।
जैविक अपरदन के अंतर्गत मुख्य रूप से मानव की गतिविधियों को शामिल किया जाता है। जो कि वर्तमान में भौतिक व रासायनिक अपरदन को बढ़ावा देने में मुख्य अभिकर्ता के रूप में उभरा है। नदियां अपरदन की क्रिया कई तरीके से संपन्न करती हैं जैसे – शीर्षवर्ती अपरदन के द्वारा नदी अपने उद्गगम क्षेत्र की ओर अपरदन करती हैं । जिससे नदी की लंबाई में वृद्धि होती है । नदी के द्वारा संपन्न किया जाने वाले अपरदन के दौरान पर्वतीय क्षेत्र में सरिता अपरदन जैसी सरिता अपहरण की घटना घटित होती है।पर्वतीय क्षेत्र में ढाल अधिक होने के कारण नदी की तीव्रता काफी अधिक होती है जिससे नदी निम्नवर्ती अथवा ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा घाटी को गहरा करने का कार्य करती है। नदी अपरदन के इस रूप को हम घाटी गर्तन भी कर सकते हैं।
जब वर्षा जल गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से एक निश्चित दिशा में बहने लगता है तो उसे नदि सरिता कहते हैं नदियां भूतल पर समतल स्थापन का कार्य तीन रूपों में करती हैं ।
नदियों का बहता हुआ जल घाटी के पार्श्व अवतली को खरोचता और कुरेदता है। जिस कारण चट्टान चूर्ण को नदी की घाटी से नदी अपने साथ लेकर प्रवाहित होती है । नदी के कटाव वाले कार्य को अपरदन तथा मलवा के स्थानांतरण को परिवहन कहते हैं जब नदियां अवसादो को ले जाने/ प्रवाहित करने में असमर्थ हो जाती है तो वह निक्षेप करने लगती है।
नदी का अपरदन कार्य – नदी का प्रमुख कार्य अपरदन करना है।
सैलसेबरी के अनुसार– नदी के प्रमुख कार्य में एक स्थल का सागर तक ले जाया जाना है।”
गिलबर्ट ने नदी की अपरदन शक्ति को एक फार्मूले के रूप में प्रदर्शित किया ।
अपरदन शक्ति ( नदी का वेग)2
अर्थात नदी का वेग यदि दोगुना कर दिया जाए तो अपरदन शक्ति 4 गुना हो जाएगा तथा 4 गुना कर दी जाए तो 16 गुना हो जाएगा ।
अपरदन जनित स्थलाकृति-
नदी अपनी युवावस्था में पर्वतीय क्षेत्रों में ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा V आकार की घाटी का निर्माण करती है। हालांकि पार्श्विक अपरदन के कारण घाटी के चौड़ा होने का कार्य निरंतर जारी रहता है।
गार्ज एवं कैनियन दोनों ही V आकार की घाटी के रूप में होते हैं जिनके किनारे की दीवार अत्यंत ढाल वाली होती है तथा चौड़ाई की अपेक्षा गहराई अधिक होती हैै। हालांकि गार्ज और कैनियन में अंतर स्थापित करना मुश्किल है फिर भी सामान्यता गार्ज के विस्तार के रूप को कैनियन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कैनियन गार्ज की तुलना में विशाल आकार वाले किंतु सकरे होते हैं ।
पहाड़ी क्षेत्रों में नदियां जब खड़े ढाल अथवा क्लिप की ऊपरी भाग से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरती है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। क्षिप्रिका भी जलप्रपात का एक रूप है किंतु क्षिप्रिका की ऊंचाई जलप्रपात से कम तथा ढाल सामान्य होता है। अर्थात क्षिप्रिका को जलप्रपात का छोटा रूप समझना चाहिए। जलप्रपात के तल पर निर्मित गर्तों को जल गर्तिका कहते हैं। जल गर्तिका के विस्तृत रूप को अवनमन कुण्ड कहते हैं। हिमानी क्षेत्रों में भी यह आकृति बनती है तथा जलप्रपात वाले क्षेत्रों के अतिरिक्त भी घाटी की तली में इन आकृतियों का निर्माण अपरदन के द्वारा हो सकता है। नदी के मार्ग में कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतों का क्रमवार क्षैतिज रूप में पाए जाने की स्थिति में घाटी के दोनों तरफ विशेषक अपरदन के द्वारा सोपनाकार सीढिया बन जाती हैं।
चुंकि इनके निर्माण में चट्टानों की कठोरता एवं कोमलता का योगदान होता है । इसीलिए इन्हें संरचनात्मक सोपान भी कहते हैं नदी वेदिका इससे मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसके निर्माण में संरचना का योगदान नहीं होता है बल्कि ये आकृतियां नवोन्मेष जनित होती हैं इस प्रकार के आकृतियों को घाटी के अंदर घाटी के अथवा दो तले वाली घाटी भी कहते हैं जब नदियां मैदानी क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं तब ऐसी स्थिति में ढाल कम होने के कारण नदी का वेग कम हो जाता है तथा नदियां मैदानी ढाल का अनुसरण करते हुए टेढ़े- मेढ़े रास्ते का अनुसरण करती हैं इस कारण नदियों के मार्ग में कई मुडाव होते हैं। और इन्हीं मुड़ाव वाले स्थानों को विसर्प कहते हैं विसर्प पांच प्रकार के होते हैं।
1- अधाकर्तित विसर्प
2- गभीरीकृत विसर्प
3- इन्ट्रेचतु विसर्प
5- अध: कर्तित विसर्प
इन विसर्पो में अध:कर्तित विसर्प नवोन्मेष का उदाहरण है।
जब नदियां मुडाव वाले मार्ग को छोड़कर अपने मार्ग को सीधा कर लेती है तब ऐसी स्थिति में मुड़ाव वाले क्षेत्रों में गोखुर झील या चाप झील का निर्माण होता है।
नदियां क्षैतिज अपरदन के दौरान समप्राय मैदान का निर्माण करती है । इस तरह के आकृतियों का निर्माण तब होता है जब नदियां अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है। समप्राय मैदान के लिए पेनीप्लेन शब्द का प्रयोग डेविस ने किया जबकि पेंक ने इण्ड्रम शब्द का प्रयोग किया है। समप्राय मैदान पर स्थित अवशिष्ट पहाड़ियों के लिए डेविस ने मोनाडनाक तथा पेंक ने इंसेलवर्ग का प्रयोग किया है ।
हागवैक एवं क्वेस्टा – क्वेस्टा और हागवैक्स का निर्माण झुकी हुई अवशादी वाली शैल वाले क्षेत्रों में चट्टानों के क्षरण के द्वारा होता है। हागवैक्स का किनारा जहां सामान्य ढाल वाला तथा समतल होता है वही दूसरा किनारा तीव्र ढाल वाला एवं उबड़ – खाबड़ होता है। तीव्र एवं उबड़-खाबड़ का संबंध कोमल चट्टानों से होता है । नदिया जब अपने मार्ग पर आगे बढ़ती है तो कोमल चट्टान को का कटाव करते हुए पुनः कठोर चट्टानों के सहारे नीचे उतर कर आगे बढ़ जाती है । तब इस दौरान हागवैक्स जैसी स्थलाकृति का निर्माण होता है। क्वेस्टा भी सुकर कटक से मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसका ढाल सुकर कटक से सामान्य होता है।
परिवहन कार्य – नदी के समतल स्थापन कार्यों में परिवहन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है ।
गिलवर्ट ने परिवहन के संबंध में छठवीं शक्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है ।
परिवहन शक्ति = (नदी का वेग)6
इसका तात्पर्य यह है कि नदी के वेग को 2 गुना कर दिया जाये तो नदी के बोझ ढोने की क्षमता में 64 गुना की वृद्धि हो जाएगी । नदियां परिवहन का कार्य कई रूपों में करती है
जैसे –
1 कर्षण द्वारा अथवा लुढ़ककर
2 उत्परिवर्तन द्वारा– उछल कर
3 लटक कर
4 – घुलकर
निक्षेप जनित स्थलाकृति – निक्षेप जनित स्थलाकृतियों को स्थानीय स्तर पर रचनात्मक स्थलाकृति का दर्जा दिया जाता हैै। जबकि अपरदन जनित स्थलाकृतिया विनाशात्मक होती है । जब नदिया परिवहन करने की स्थिति में नहीं होती है तब निक्षेप कार्य प्रारंभ कर देती है ।
निक्षेप के कारण-
जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु– जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु गिरीपदीय मैदान में नदी द्वारा निक्षेप जनित एक रचनात्मक स्थलाकृति है। जब नदियां पर्वत से उतर कर मैदान में प्रवेश करती हैं तब उनकी परिवहन शक्ति में कमी आने के कारण वे अवसादों के रूप में बड़े-बड़े चट्टानों के टुकड़ों को पर्वत पाद के पास तथा बारीक कणों को अपेक्षाकृत परिधिए भागों में अर्धचंद्राकार रूप में निक्षेपित कर देती हैं गिरीपदीय मैदान में बनी इस प्रकार की स्थलाकृति जलोढ़ पंख या जलोढ़ शंकु का लाती है। जलोढ़ पंख काढाल एवं ऊंचाई जब सामान्य से अधिक हो जाता है तो उसे जलोढ़ शंकु कहते हैं। टालस शंकु जलोढ़ पंख एवं शंकु से भिन्न होते हैं क्योंकि इनका निर्माण बृहद क्षरण से उत्पन्न अवसादो के सामूहिक स्थानांतरण के द्वारा यथोचित स्थान पर होता है। इस प्रकार टालस शंकु के निर्माण में नदी का कोई योगदान नहीं होता है। जलोढ़ पंख द्वारा निर्मित गिरीपदीय जलोढ मैदान भौगोलिक एवं आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इन्हीं जल लोड पंखों के परिधि वाले भागों में मानव आवास के साथ खेती, के लिए आवश्यक भूमि उपलब्ध हो जाती है। अद्धशुष्क प्रदेशों में यह क्षेत्र खेती के लिए उत्तम स्थल होते हैं।
प्राकृतिक तटबंध- नदी का तल भी निक्षेप के कारण धीरे-धीरे ऊंचा होता रहता है। मिसीसिपी तथा ह्वेंग ही नदियों से प्राकृतिक तटबंध का निर्माण हुआ है। प्रायः यह तटबंध नदी के जल तल से एक या 2 मीटर ऊंचे होते हैं परंतु कई बार ऊंचाई काफी अधिक होती है उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसीसिपी नदी के प्राकृतिक तटबंध कहीं-कहीं 6 से 7 मीटर तक ऊंचे होते हैं। कभी-कभी यह तटबंध बाढ़ के जल के दबाव का सामना नहीं कर पाते। इन में दरार पड़ने या टूटने से दूर-दूर तक बाढ़ का प्रकोप फैल जाता है। चीन की ह्वेंग ही नदी घाटी में आनेे वाले भीषण बाढ का यही कारण है। इसलिए ह्वेंग ही नदी को ‘चीन का शोक’ कहा जाता है।
ह्वेंग ही मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।
बाढ़ का मैदान- प्रायः प्राकृतिक तटबंध आसपास के क्षेत्र को नदी बाढ़ से बचाते हैं। परंतु कभी-कभी इन तटबंध में दरार आ जाती है या यह टूट जाते हैं और नदी का जल आसपास के क्षेत्र में फैल जाती है। बाढ़ की समाप्ति पर नदी अपना तलछट वहीं पर निक्षेपित कर देती है इस प्रकार एक विस्तृत मैदान का निर्माण हो जाता है जिसे बाढ़ का मैदान करते हैं। यह मैदान प्रतिवर्ष नदियों द्वारा लाई गई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं इसलिए यह बहुत उपजाऊ होते हैं। ह्वेंग ही, मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।
वर्षा ऋतु में नदी में जल की मात्रा अधिक हो जाने से जब नदी में बाढ़ आती है तो नदी का जल नदी के किनारों को पार करके बहने लगता है। इस अवस्था में नदी की परिवहन शक्ति तथा नदभार दोनों ही अधिक हो जाते हैं। बाढ़ के समाप्त हो जाने पर नदी अपना नदभार का निक्षेप करना आरंभ कर देती है। यह नीचे नदी के किनारे पर सबसे अधिक होता है क्योंकि किनारों पर घर्षण के कारण बैग सबसे कम हो जाता है। यह क्रम प्रतिवर्ष चलता रहता है और नदी के किनारे ऊंचे होते रहते हैं। इस प्रकार नदी के किनारों पर एक बांध बन जाता है जिसे हम प्राकृतिक तटबंध कहते हैं।
डेल्टा- जब नदियां सागर व झील में कितने हैं तो उनके प्रवाह में अवरोध व वेग में निहायत कमी के कारण समुद्र तथा उसके संलग्न क्षेत्र में एक विशेष प्रकार की रचनात्मक स्थलाकृति का निर्माण होता है जिसे प्रथम बार नील नदी के अध्ययन के दौरान हेरोडोटस ने ग्रीक अक्षर डेल्टा के नाम से संबोधित किया।
डेल्टा के निर्माण की आवश्यक दशाएं-
उचित स्थान- सागर, झील
नदी का आकार तथा आयतन अधिक
मार्ग लंबा
मुहाने के पास नदी का वेग अत्यंत मंद
सागरिया लहरें तथा ज्वारीय तरंगे निर्बल हो
सागरीय तट सागरीयय पेंदा स्थायी हो।
आकृति के अनुसार–
चापाकार डेल्टा
पंजाकार डेल्टा
ज्वारनदमुख डेल्टा
रुण्डित डेल्टा
पालयुक्त (क्षींण डेल्टा)
विस्तार के अनुसार-
बृद्धिमान डेल्टा
अवरोधित डेल्टा
परित्यक्त डेल्टा
चापाकार डेल्टा- इसका निर्माण उस समय होता है जब नदी की मुख्यधारा द्वारा पदार्थों का निक्षेप पर बीच में अधिक होता है इससे बीच का भाग निकला हुआ एवं किनारे का भाग संकरा होता है। इस प्रकार के डेल्टा का आकार वृत्त के चाप या धनुष के समान होता है। उदाहरण- गंगा नदी का डेल्टा, राइन नदी का डेल्टा, नील नदी एवं ह्वांहो, सिंधु, मिकांग नदियों का डेल्टा।
पंजाकार डेल्टा- इस प्रकार का डेल्टा प्राकृतिक नदी तटबंधों के जलीय भाग में मनुष्य की उंगलियों के आकार में धारा की शाखाओं में बटने से निर्मित होता है। इनका आकार पक्षियों के पैरों के पंजों से मिलता है। उदाहरण- मिसिसिपी नदी का डेल्टा।
ज्वारनदमुख डेल्टा- नदी का जल मग्न मुहाना जहां सागर की लहरें निक्षेपित पदार्थों को बहाकर ले जाती हैं एश्चुअरी कहलाता है। ऐसे मुहानो में संकरे डेल्टा का निर्माण होता है।
उदाहरण- नर्मदा, मैकेंजी, हडसन, विस्चुला, ताप्ती, ओडर, एल्ब, सीन, ओब, साइन नदिया इसी प्रकार के डेल्टा हैं।
रूण्डित डेल्टा– सागरीय लहरों के द्वारा डेल्टा निरंतर कटता छटता रहता है। ऐसे कटे-फटे डेल्टा मग्नाकार या रूण्डित डेल्टा कहलाते हैं।
उदाहरण– रायोग्राण्डे का डेल्टा (संयुक्त राज्य अमेरिका) होंग नदी का डेल्टा (वियतनाम)
पालियुक्त डेल्टा- जब नदी की मुख्यधारा की अपेक्षा उसके मुहाने पर किसी वितरिका द्वारा अलग डेल्टा का निर्माण किया जाता है इस प्रकार केेे डेल्टा को पालियुक्त डाटा कहते हैं। इससे मुख्य डेल्टा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
महासागरीय धाराएं
By Team Rudra on Friday, March 26, 2021
महासागरीय धाराएं
- महासागरों के एक भाग से दूसरे भाग की ओर विरोध दिशा में जल के निरंतर प्रवाह को महासागरीय धारा कहते हैं।
- धारा के दोनों किनारों तथा उसके नीचे का जल स्थिर रहता है।
- महासागरीय धाराएं स्थलीय नदियों की अपेक्षा अधिक विशाल होती हैं।
महासागरीय जल धाराओं के भिन्न-भिन्न रूप होते हैं जैसे-
1- प्रवाह (Drift) सीमाविहिन, पवन द्वारा प्रभावित जल जो मंद गति से आगे की ओर बढ़ता है उदाहरण- उत्तरी अटलांटिक प्रवाह
2- धारा (Current)- निश्चित राशि, निश्चित दिशा तथा प्रवाह की अपेक्षाकृत तीव्र गति से प्रवाहित होते हैं।
3- विशाल धारा (Stream)- जल के अत्यधिक आयतन के साथ तीव्र गति से निश्चित दिशा में नदियों की तरह प्रवाहित होते हैं।
धाराओं के उत्पन्न होने के कारण
1- पृथ्वी का घूर्णन, गुरुत्वाकर्षण बल तथा विक्षेपक बल
2- वायुदाब तथा हवाएं, वाष्पीकरण तथा वर्षा
3- महासागरीय तापमान, लवणता, घनत्व में अंतर
4- प्रमुख स्थलाकृतियां
धाराओं के उत्पत्ति के कारक
1- पृथ्वी के परिक्रमण से संबंधित कारक
- कोरियालिस बल
- एकमैन स्पाइरल
2- महासागरों से संबंधित कारक
- तापमान में भिन्नता
- लवणता में भिन्नता
- घनत्व में भिन्नता
3- बाह्य महासागरीय कारक
- वायुदाब तथा हवाएं
- वाष्पीकरण तथा वर्षा
1- पृथ्वी की परिक्रमण संबंधी कारक– पृथ्वी के पश्चिम से पूर्व की दिशा में घूमने के कारण स्थल से जल अपना सामंजस्य नहीं बैठा पाता और पीछे हट जाता है। परिणामत: पूर्व से पश्चिम की दिशा में जल की एक धारा प्रवाहित होने लगती है।उदाहरण- विषुवत धारा
- कभी-कभी कुछ जल पृथ्वी की परिक्रमण की दिशा में प्रवाहित होने लगते हैं। उदाहरण- प्रति विषुवतीय धारा
महासागरों से संबंधित कारक
1- तापमान- भिन्न भिन्न तापमानों के कारण भी जल धाराओं की उत्पत्ति होती है।
2- घनत्व- घनत्व में भिन्नता भी जलधाराओं की उत्पत्ति का कारण है। महासागरीय जल उच्च घनत्व से निम्न घनत्व की तरह प्रभावित होते हैं । उदाहरण-ध्रुवीय जल धाराओं का विषुवतीय जल धाराओं की तरफ बढ़ना।
लवणता में भिन्नता- लवणता से सागरीय जल का घनत्व प्रभावित होता है अतः उच्च लवणता से निम्न लवणता की तरफ धाराओं की उत्पत्ति होती है।
वाह्य सागरीय कारक- वायुदाब तथा हवाएं भी सागरीय जल के प्रवाह तथा दिशा को निर्धारित करते हैं।
- निम्न दाब से उच्च दाब की तरफ जल धाराएं प्रवाहित होती हैं।
- प्रचलित/सनातनी पवने भी जल धाराओं के उत्पत्ति में सहायक होती है।
- उदाहरण के तौर पर व्यापारिक पवनों के प्रभाव में विषुवतीय धारा की उत्पत्ति तथा दिशा।
- निम्न वाष्पीकरण से उच्च वाष्पीकरण तथा उच्च वर्षा स्थल (उच्च जल स्तर) से निम्न वर्षा स्थल की तरफ भी जल धाराएं प्रवाहित होती हैं।
महासागरीय धाराओं को दो वर्गों में बांटा जाता है-
1- गर्म जल धाराएं- ये समानत: भूमध्य रेखा से ध्रुव की तरह प्रवाहित होते हैं।
2- ठंडी जलधाराएं- ये उच्च अक्षांशो या ध्रुवो से भूमध्य रेखा की तरह प्रवाहित होते हैं।
आंध्र महासागर की धाराएं
1- ठंडी धाराएं
- कनारी
- लेब्राडोर
- फाकलैंड धारा
- दक्षिणी अटलांटिक धारा
- बेंगुला धारा
- उत्तरी अटलांटिक धारा
गर्म धाराएं
- उत्तरी विषुवतीय जलधारा
- दक्षिणी विषुवतीय जलधारा
- गल्फ स्ट्रीम
- फ्लोरिडा धारा
- ब्राजील की धारा
प्रशांत महासागर की धाराएं
गर्म धाराएं-
- उत्तरी विषुवतीय धारा
- दक्षिणी विषुवतीय धारा
- प्रति विषुवतीय धारा
- क्यूरोशियो तंत्र
- सुशिमा धारा
- एल नीनो
- पूर्वी आस्ट्रेलिया धारा
ठंडी धाराएं-
- ओशियो धारा
- कैलिफोर्निया की धारा
- पेरू की धारा
- ला नीना
- क्यूराइल
हिंद महासागर की धाराएं
गर्म धाराएं-
- दक्षिण विषुवतीय धारा
- मोजाम्बिक धारा
- अगुलहास धारा
ठंडी धाराएं-
- पश्चिमी आस्ट्रेलिया धारा
प्रवाल भित्ति
By Team Rudra on Friday, March 26, 2021
प्रवाल कीट- प्रवाल कीट जुओजेन्थली के साथ सहजीवी के रूप में रहने वाले समुद्री जीव हैं। जुओजेन्थली हरे भूरे सैवाल की एक प्रजाति होती है जो प्रकाश संश्लेषण के द्वारा प्रवालों के लिए भोजन तैयार करते हैं। इसी कारण प्रवाल कीटों का रंग हरा भरा नजर आता है। जब कभी भी प्रवाल कीटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तो जुओजेन्थली प्रवाल कीटों से अलग होने लगते हैंं। जिससे प्रवाल कीटों का रंग परिवर्तित होने लगता है। जुओजेन्थली के प्रवाल कीटों से अलग होने के कारण प्रवाल कीटों के समक्ष भोजन का संकट खड़ा हो जाता है। जो अंततः उनके मृत्यु का कारण बन जाता है। क्योंकि प्रवाल कीटों को दो तिहाई भोजन जुओजेन्थली द्वारा बनाए गए कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त होता है। सरल शब्दों में प्रवाल कीटों के रंगहीन होने की क्रिया ही प्रवाल विरंजन है जो प्रवाल कीटों के आकस्मिक मृत्यु का परिचायक है। समुद्री जैविक घटकों में प्रवाल कीटों की जैव विविधता सर्वाधिक होती है इसलिए उन्हें समुद्री वर्षा वन भी कहा जाता है।
प्रवाल कीटों के विकास के लिए आवश्यक दशाएं-
- तापमान
- जल की लवणता
- जल की गहराई
- जल की स्वच्छता
- अंतः समुद्री चबुतरा
तापमान- जलीय सतह का औसत तापमान 22- 23% के आसपास होने की स्थिति में प्रवाल कीटों के विकास पर सर्वाधिक अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अत्यंत उष्ण व शीतल जल में इनका विकास सामान्यता नहीं हो पाता है। यही कारण है कि ध्रुवीय क्षेत्र के विपरीत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में इनका विकास अधिक होता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में भी ठंडी जलधारा से आच्छादित तटीय क्षेत्रों में इनका विकास नहीं हो पाता है।
जल की लवणता- 27-30 प्रति हजार महासागरीय जल लवणता वाले क्षेत्र प्रवाल कीटों के लिए अनुकूल होता है यही कारण है कि जलीय सतह से नीचे जाने पर जल की लवणता तथा तापमान में कमी आने के कारण प्रवाल कीटों का विकास नहीं हो पाता है। स्वच्छ जल तथा अवसाद युक्त जल दोनो प्रवाल कीटों के विकास के प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न करता है क्योंकि स्वच्छ जल में पोषक तत्वों का अभाव होता है जबकि अवसाद युक्त जल से प्रवाल कीटों का मुख भर जाने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
जल की गहराई- सभी दशाओ के अनुकूल होने के बावजूद छिछले जलीय भागों में (30-38 फैदम) कीटों की उत्पत्ति व विकास हो पाता है।
अंतः समुद्री चबूतरा- प्रवाल कीटों के विकास के लिए अंतः समुद्री चबूतरा का विकास होना आवश्यक है क्योंकि इन्हीं जलमग्न स्थल खंडों के छिछले जलीय भागों में पहले तटीय सतह की ओर फिर तट से दूर होने लगता है।
प्रवाल भित्ति व प्रवाल भित्ति के प्रकार- प्रवाल कीटों के अस्थिपंजरों से निर्मित समुद्री स्थलाकृति को प्रवाल भित्ति कहते हैं। यह चूना पत्थर से निर्मित एक प्रकार की संरचना होती है।
प्रवाल भित्ति के प्रकार-
1- तटीय प्रवाल भित्ति- तट से संलग्न जलीय भागों में प्रवाल कीटों के विकास के द्वारा तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है। इसका स्थलमुखी ढ़ालमग्न मंद तथा समुद्रवर्ती ढाल तीव्र होता है। सामान्यतया इस प्रकार की प्रवाल भित्ति में लैगून नहीं बनते हैं लेकिन जब कभी भी अपरदन के द्वारा गड्ढे बन जाते हैं तो उस प्रकार की जलीय आकृति को Boat channel कहते हैं।
2- अवरोधक प्रवाल भित्ति- तट से दूर लेकिन उसके समानांतर अवरोधक प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है। यह सभी प्रवाल भित्तियों में सर्वाधिक विस्तृत व लंबी होती हैं। जैसे- ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर निर्मित ग्रेट बैरियर रीफ। इस अवरोधक प्रवाल भित्ति में तट और प्रवाल भित्ति के मध्य लैगून जो एक प्रकार का झील होता है स्थित होता है।
एटाॅल- जब किसी जलमग्न द्वीप के चारों ओर प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है तब ऐसी दीर्घ वृत्ताकार प्रवाल भित्ति को एटाॅल कहते हैं। इसके मध्यवर्ती भाग में लैगून स्थित होता है।
प्रवाल भित्ति के उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित सिद्धांत-
- डार्विन डाना का अवतलन सिद्धांत
- मरे का स्थिर स्थल सिद्धांत
- डेली का हिमानी निर्मित सिद्धांत
- डेविस का सिद्धांत
डार्विन के अवतलन सिद्धांत के अनुसार प्रवाल भित्ति के विभिन्न प्रकारों का विकास स्थलखंड के क्रमिक अवतलन के द्वारा होता है। सर्वप्रथम तट से संलग्न जलीय भागों में जलीय प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति होती है। जब स्थलखंड के अवतलन होने के कारण प्रवाल कीट अधिक गहराई में जाकर डूब कर मरने लगते हैं तो पुनः पोषक तत्वों को प्राप्त करने के लिए पहले तटीय क्षेत्रों के और फिर तट से दूर विकसित होते हैं जिससे तटीय प्रवाल भित्ति अवरोधक प्रवाल भित्ति के रूप में विकसित होने लगता है। जब इस प्रकार के प्रवाल भित्ति से निर्मित द्वीप जलमग्न हो जाते हैं तो अवरोधक प्रवाल भित्ति का विकास एटाॅल के रूप में हो जाता है। इस तरह डार्विन डाना का अवतलन सिद्धांत यह कहता है कि तटीय अवरोधक या एटाॅल प्रवाल भित्ति के विकास की क्रमिक अवस्थाएं हैं।
सिद्धांत के समर्थन में दिए गए साक्ष्य-
- क्लिफ की अनुपस्थिति
- लैगून में जल का छिछलापन
- प्रवाल भित्ति का विस्तार गहरे जलीय भागों में होना
- सागरीय लहरों द्वारा निर्मित क्लिफ स्थिर तटीय भागों में संभव है
- लैगून का छिछलापन तथा तट की तीव्रता स्थल के अवतलन के द्वारा ही संभव है।
- इसी तरह अधिक गहराई में प्रवाल भित्तिया अवतलन के द्वारा भी जा सकती हैं।
आलोचना-
1- केवल स्थल खंड के अवतलन के द्वारा ही प्रवाल भित्तिया नहीं बनती हैं बल्कि समुद्र जल स्तर में वृद्धि के द्वारा भी प्रवाल कीट अधिक गहराई में जाकर प्रवाल भित्ति में परिवर्तित हो जाते हैं।
2- यदि स्थलखंड की अवतलन एक सतत प्रक्रिया होती तो महासागरों के अधिकांश द्वीप जलमग्न हो गए होते।
3- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की सतह और अस्थायी व परिवर्तनशील है इसके अनुसार केवल अवतलन ही नहीं स्थलखंडों का उत्थान भी होता है।
4- इनके अनुसार किसी स्थल खंड के विभिन्न तत्वों पर एक विशेष स्थिति में एक ही प्रकार की प्रवाल भित्ति का निर्माण होना चाहिए जबकि हम जानते हैं कि आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर अवरोधक प्रवाल भित्ति पाई जाती है वहीं दक्षिणी तट पर तटीय प्रवाल भित्ति मिलते हैं।
मरे का स्थिर स्थल सिद्धांत
• 30 फैदम की गहरायी वाले स्थलखंड के सहारे विकास होता है।
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मरे ने प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने को स्पष्ट करने के लिए स्थिर स्थलसिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार 30 फैदम की गहराई में स्थिर स्थलखंड पर प्रवाल कीटों के विकास से प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति होती है।स्थलखंड की ऊंचाई अधिक होने पर अपरदन के द्वारा और गहराई अधिक होने पर निक्षेपण के द्वारा प्रवाल कीटों के विकास के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न होती है।
इस वाह्य कारकों के प्रभाव से प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने का प्रयास किया। लेकिन पृथ्वी की सतह के अस्थायी और परिवर्तनशील होने के कारण जहां इनके स्थिर स्थल की मान्यता गलत हो जाती है वही सिद्धांत भी अधूरा प्रतीत होता है। यहां तक कि मरे के अनुसार अपरदन और निक्षेपण दो स्थलखंडों पर होने वाली प्रक्रिया है। जबकि इनका संबंध अनाच्छादन के अंतर्गत होने वाली क्रिया से है जो एक ही स्थलीय सतह के अलग-अलग क्षेत्र में होते हैं।इन्होंने अपने सिद्धांत द्वारा एटाल के विकास को केवल स्पष्ट किया है तटीय तथा अवरोधक के विषयों में मौन है।
डेली का हिमानी नियंत्रण सिद्धांत
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डेली ने समुद्र जल स्तर में परिवर्तन के आधार पर प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए हिमानी नियंत्रण सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार प्लेस्टोसीन हिम युग के पहले जो स्थल सतह जलमग्न थे। प्लेस्टोसीन हिम युग के आने पर जल के हिम में परिवर्तन से जल के स्तर में 30 फैदम, कमी आई जिससे जलमग्न स्थलीय सतह समुद्री सतह से बाहर अनावृत हो गए।
वाह्य कारकों के प्रभाव से इन्हीं सतहो का कटाव होने के कारण ऊंचाई में कमी आई हिमयुग के समय जहां अत्यंत कम तापमान होने के कारण प्रवाल कीटों का विकास नहीं हो सका वही हिम युग के बाद तापमान में वृद्धि होने से प्रवाल कीटों के विकास के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न हुई। साथ ही समुद्र जल स्तर में वृद्धि होने पर जलमग्न स्थलखंड के छिछले जलीय भाग प्रवाल कीटों के विकास के कारण प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई।
इस प्रकार डेेेली के अनुसार सभी प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति प्लेस्टोसीन हिमयुग के बाद समुद्र जल स्तर में वृद्धि के कारण हुई है। इन्होंने अपने सिद्धांत में पृथ्वी के अस्थाई और परिवर्तनशील प्रभाव को सम्मिलित नहीं किया। जबकि स्थल खंड के अवतलन के कारण भी प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हो सकती थी।
यहां तक प्रवाल भित्ति से निर्मित संरचना के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि सभी प्रवाल भित्तिया प्लीस्टोसीन हिमयुग के पहले भी प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई है।
डेविस ने प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति से संबंधित किसी स्वतंत्र सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया था बल्कि डार्विन डाना के अवतलन सिद्धांत और डेविस के हिम नियंत्रण सिद्धांत का समर्थन किया था। इनका ये मानना था कि प्लेस्टोरसीन हिम युग के पहले स्थल खंड के अवतलन के कारण जबकि प्लेस्टोंसीन हिमयुग के बाद समुंद्र जल स्तर में वृद्धि के द्वारा स्थलखंड के जलमग्न होने पर प्रवाल कीटो के विकास के द्वारा प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार डेविस ने डार्विन डाना और डेली के द्वारा दिए गए विचारों को प्रसांगिक बनाने का प्रयास किया।
प्रवाल विरंजन (coral bleaching)
प्रवाल विरंजन के कारण
प्रवाल भित्ति के रंगहीन होने की प्रक्रिया को प्रवाल विरंजन कहते हैं।
जू-जैन्थली और प्रवाल कीट सहजीवी के रूप में रहते हैं।जब प्रवाल कीटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न होता है तब जू-जैन्थनी के अलग होने के कारण ही प्रवाल विरंजन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
कारण–
1- तापमान – प्रवाल कीटो के विकास के लिए जल की सतह के तापमान 22 से 23 डिग्री होना चाहिए जब कभी-कभी इससे अधिक या कम तापमान हो जाता है तब प्रवाल कीटों के विकास प्रभावित होने लगते हैं। वर्तमान समय में भूमंडलीय तापन प्रवाल विरंजन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है।
2- लवणता – लवणता कम या अधिक भी प्रवाल किटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न करते हैं। जल के तापमान में वृद्धि के द्वारा वाष्पीकरण की दर अधिक होने से लवणता में वृद्धि होने से प्रवाल निरंजन की प्रक्रिया में वृद्धि होती है।
3- जल प्रदूषण – प्रदूषित जल में प्रवाल कीट मरने लगते हैं। औद्योगिक देशों के तटीय प्रदेशों में औद्योगिक विकास एवं खनन कार्यों की कारण जल प्रदूषण ही प्रवाल विरंजन का एक महत्वपूर्ण कारण है।
Xenbiotices – जेनोबायोटिक्स वैसे सूक्ष्मजीव होते हैं जो विषैले या प्रदूषित रसायनिक तत्वों का उत्सर्जन करते हैं।इनके द्वारा प्रवाल कीटों में संक्रमित बीमारियों के होने पर भी प्रभाव विरंजन की दर में वृद्धि हो जाती है।
इस प्रकार प्रवाल विरंजन सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाली एक प्राकृतिक क्रिया है वही मानव के द्वारा पर्यावरण में किए जाने वाले परिवर्तन से इस प्रक्रिया की दर में वृद्धि हुई है जिससे प्रवाल कीटो के मृत्यु के कारण ना केवल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है बल्कि विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं।
प्रवाल विरंजन के दर के आधार पर प्रवाल भित्तियों को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है।
• 20 % – नगण्य प्रवाल विरंजन
• 30 से 35% – सामान्य प्रवाल विरंजन
• 50 से 70% – तीव्र प्रवाल विरंजन
• 70% से अधिक – प्रचंड प्रवाल विरंजन
ज्वार भाटा
By Team Rudra on Thursday, March 25, 2021
हैरिश का स्थैतिक तरंग सिद्धांत-
ज्वार भाटा प्रत्येक महासागर में स्वतंत्र रूप से संपादित होता है। हैरिस ने अपने सिद्धांत के प्रतिपादन के पहले एक छोटा सा प्रयोग किया। उन्होंने जल से भरे आयताकार बर्तन के एक किनारे को हिलाया। हिलाने से दोलन प्रारंभ हुई एवं स्थाई तरंगों की उत्पत्ति हुई। नोडल केंद्र बर्तन के बीच में स्थित एक ऐसा केंद्र है जहां पर जल तल में कोई परिवर्तन नहीं होता है बर्तन में जल तल में परिवर्तन सिर्फ एक रेखा के सहारे होता है जिसे nodal line कहा। बर्तन में जल का दोलन काल जल की गहराई बर्तन की लंबाई एवं उस में लगाए जाने वाले झटके पर आधारित है।
उपर्युक्त प्रयोगों के आधार पर हरीश ने बताया कि पृथ्वी पर स्थित विभिन्न महासागर जल पूर्ण बर्तन के समान होते हैं। चंद्रमा के ज्वारीय बल के कारण महासागरीय जल में दोलन उत्पन्न हो जाती है परंतु पृथ्वी के परिभ्रमण गति के कारण पठ दोलन एक सीधे के सहारे न होकर एक केंद्र के चारों तरफ होता है। केंद्र पर जल तल समान जबकि केंद्र के चारों तरफ जल तल असमान होता है। सभी महासागरों में उत्पन्न स्थाई तरंगे घड़ी की सुइयो की विपरीत दिशा में चक्कर लगाती हैं इसी को संयुक्त दोलन प्रणाली कहते हैं। चुकी महासागरों की तली की रचना, लंबाई, गहराई तथा पृथ्वी की परिभ्रमण गति का प्रभाव इन दोलन तरंगों पर पड़ता है इसलिए जब ये तरंगे तट की ओर अग्रसर होती हैं तो इनको द्वीपों, प्रायद्वीपो, खाड़ियों के अवरोध का सामना करना पड़ता है।
जब ये तरंग तट पर पहुंचती है तो उनके श्रंग को ज्वार तथा द्रोणी की भाटा कहते हैं। महासागरों की गहराई अधिक होने के कारण उच्च ज्वार तथा छिछले महासागर में लघु ज्वार उत्पन्न होते हैं। एक समय में आने वाले द्वारा स्थानों के रेखाओं से मिलाकर समज्वार रेखा मानचित्र तैयार किया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न्यूटन का सिद्धांत एवं एयरी का सिद्धांत त्रुटिपूर्ण है। वही स्थैतिक तरंग सिद्धांत ज्वार भाटा को उत्पत्ति की सामान्य विचार प्रस्तुत करता है तथा यह सत्यता के कुछ ज्यादा नजदीक है।
न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण बल पर आधारित ज्वार भाटा का सिद्धांत-
अयन वृत्तीय एवं भूमध्य रेखीय ज्वार-
उपभू एवं अपभू ज्वार
आलोचना-
1-बिना क्षैतिज गति के ज्वार भाटा संभव नहीं है।
2-रगड़ का सामना करना पड़ता है।
प्रगामी तरंग सिद्धांत-
आधार विभिन्न स्थानों की ज्वार की सक्रियता में अंतर तथा एक ही देशांतर पर ज्वार के समय में अंतर
1-ज्वार लहर के रूप में होते हैं
2-ज्वारीय तरंगे चंद्रमा से प्रेरित होकर उत्पन्न होती हैं
3-पूर्व से पश्चिम की तरफ भ्रमण करती हैं।
4-महासागरों की गहराई एवं लंबाई का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
5-महाद्वीपों के कारण गति एवं दिशा में परिवर्तन
6-स्वतंत्र रूप से दक्षिण सागर में उत्पन्न होती हैं एवं महाद्वीपों में टकराव के बाद निरंतर उत्तर की तरफ निरंतर बढ़ती जाती हैं।
7-प्राथमिक तरंगे (चंद्रमा की ज्वारीय तरंगों के कारण)
8-अवरोध के कारण उत्पन्न तरंगे द्वितीयक या गौण तरंगे कहलाती हैं।
9-निरंतर उत्तर की तरफ बैठने से सक्रियता में कमी के साथ पहुंचने में देरी लेकिन सर्वत्र उत्पन्न होती हैं।
10-इन्हीं सब कारणों से एक ही देशांतर पर स्थित विभिन्न स्थानों ज्वारों के आने के समय में अंतर आ जाता है।
11-यह ज्वारी तरंग उत्तरी ध्रुव के पास पहुंच कर निष्क्रिय हो जाती है।
12-दक्षिण सागर में उत्पन्न इन लहरों के निरंतर उत्तर की ओर बढ़ती जाती हैं इसी कारण इन्हें प्रगामी तरंगे कहा जाता है।
13-मूल्यांकन
Criticism –
1– horn अंतरिक्ष से लेकर ग्रीनलैंड तक ज्वार के आने का समय एक है।
2- एक ही अक्षांश पर दैनिक एवं अर्द्ध दैनिक ज्वार देखे गए। इस प्रकार ज्वार एक स्थानीय तत्व होते हैं।