प्रवाल भित्ति

प्रवाल भित्ति

परिचय

प्रवाल कीट- प्रवाल कीट जुओजेन्थली के साथ सहजीवी के रूप में रहने वाले समुद्री जीव हैं। जुओजेन्थली हरे भूरे शैवाल की एक प्रजाति है जो प्रकाश संश्लेषण के द्वारा प्रवालों के लिए भोजन तैयार करते हैं। इसी कारण प्रवाल कीटों का रंग हरा भरा नजर आता है। जब कभी भी प्रवाल कीटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तो जुओजेन्थली प्रवाल कीटों से अलग होने लगते हैंं। जिससे प्रवाल कीटों का रंग परिवर्तित होने लगता है। जुओजेन्थली के प्रवाल कीटों से अलग होने के कारण प्रवाल कीटों के सम्मुख भोजन का संकट खड़ा हो जाता है, जो अंततः उनके मृत्यु का कारण बन जाता है। क्योंकि प्रवाल कीटों को दो तिहाई भोजन जुओजेन्थली द्वारा बनाए गए कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त होता है। सरल शब्दों में प्रवाल कीटों के रंगहीन होने की क्रिया ही प्रवाल विरंजन है जो प्रवाल कीटों के आकस्मिक मृत्यु का परिचायक है। समुद्री जैविक घटकों में प्रवाल कीटों की जैव विविधता सर्वाधिक होती है इसलिए उन्हें समुद्री वर्षा वन भी कहा जाता है। 

प्रवाल कीटों के विकास के लिए आवश्यक दशाएं- 

  • तापमान
  • जल की लवणता
  • जल की गहराई
  • जल की स्वच्छता
  • अंतः समुद्री चबुतरा

तापमान- जलीय सतह का औसत तापमान 22- 23% के आसपास होने की स्थिति में प्रवाल कीटों के विकास पर सर्वाधिक अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अत्यंत उष्ण व शीतल जल में इनका विकास सामान्यता नहीं हो पाता है। यही कारण है कि ध्रुवीय क्षेत्र के विपरीत उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में इनका विकास अधिक होता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में भी ठंडी जलधारा से आच्छादित तटीय क्षेत्रों में इनका विकास नहीं हो पाता है। 

जल की लवणता- 27-30 प्रति हजार महासागरीय जल लवणता वाले क्षेत्र प्रवाल कीटों के लिए अनुकूल होता है यही कारण है कि जलीय सतह से नीचे जाने पर जल की लवणता तथा तापमान में कमी आने के कारण प्रवाल कीटों का विकास नहीं हो पाता है। स्वच्छ जल तथा अवसाद युक्त जल भी प्रवाल कीटों के विकास के प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न करता है क्योंकि स्वच्छ जल में पोषक तत्वों का अभाव होता है जबकि अवसाद युक्त जल से प्रवाल कीटों का मुख भर जाने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। 

जल की गहराई- सभी दशाओ के अनुकूल होने के बावजूद छिछले जलीय भागों में (30-38 फैदम) कीटों की उत्पत्ति व विकास हो पाता है।

अंतः समुद्री चबूतरा- प्रवाल कीटों के विकास के लिए अंतः समुद्री चबूतरा का विकास होना आवश्यक है क्योंकि इन्हीं जलमग्न स्थल खंडों के छिछले भागों में पहले तटीय सतह की ओर फिर तट से दूर प्रवाल कीटों का विकास होने लगता है।

प्रवाल भित्ति व प्रवाल भित्ति के प्रकार- प्रवाल कीटों के अस्थिपंजरों से निर्मित समुद्री स्थलाकृति को प्रवाल भित्ति कहते हैं। यह चूना पत्थर से निर्मित एक प्रकार की संरचना होती है।

प्रवाल भित्ति के प्रकार- 

1- तटीय प्रवाल भित्ति- तट से संलग्न जलीय भागों में प्रवाल कीटों के विकास के द्वारा तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है। इसका स्थलमुखी ढ़ाल मंंद तथा समुद्रवर्ती ढाल तीव्र होता है। सामान्यतया इस प्रकार की प्रवाल भित्ति में लैगून नहीं बनते हैं लेकिन जब कभी भी अपरदन के द्वारा गड्ढे बन जाते हैं तो उस प्रकार की जलीय आकृति को Boat channel कहते हैं।

2- अवरोधक प्रवाल भित्ति- तट से दूर लेकिन उसके समानांतर अवरोधक प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है। यह सभी प्रवाल भित्तियों में सर्वाधिक विस्तृत व लंबी होती हैं। जैसे- ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर निर्मित ग्रेट बैरियर रीफ। इस अवरोधक प्रवाल भित्ति में तट और प्रवाल भित्ति के मध्य लैगूून, जो एक प्रकार का झील होता है।, स्थित होता है।

एटाॅल- जब किसी जलमग्न द्वीप के चारों ओर प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है तब ऐसी दीर्घ वृत्ताकार प्रवाल भित्ति को एटाॅल कहते हैं। इसके मध्यवर्ती भाग में लैगून स्थित होता है। 

प्रवाल भित्ति के उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित सिद्धांत- 

  • डार्विन डाना का अवतलन सिद्धांत
  • मरे का स्थिर स्थल सिद्धांत
  • डेली का हिमानी निर्मित सिद्धांत
  • डेविस का सिद्धांत

डार्विन डाना का अवतलन सिद्धांत

डार्विन के अवतलन सिद्धांत के अनुसार प्रवाल भित्ति के विभिन्न प्रकारों का विकास स्थलखंड के क्रमिक अवतलन के द्वारा होता है। सर्वप्रथम तट से संलग्न जलीय भागों में जलीय प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति होती है। जब स्थलखंड के अवतलन होने के कारण प्रवाल कीट अधिक गहराई में जाकर डूब कर मरने लगते हैं तो पुनः पोषक तत्वों को प्राप्त करने के लिए पहले तटीय क्षेत्रों की ओर फिर तट से दूर विकसित होते हैं जिससे तटीय प्रवाल भित्ति अवरोधक प्रवाल भित्ति के रूप में विकसित होने लगता है। जब इस प्रकार के प्रवाल भित्ति से निर्मित द्वीप जलमग्न हो जाते हैं तो अवरोधक प्रवाल भित्ति का विकास एटाॅल के रूप में हो जाता है। इस तरह डार्विन डाना का अवतलन सिद्धांत यह कहता है कि तटीय, अवरोधक तथा एटाॅल प्रवाल भित्ति के विकास की क्रमिक अवस्थाएं हैं।

सिद्धांत के समर्थन में दिए गए साक्ष्य- 

  • क्लिफ की अनुपस्थिति
  • लैगून में जल का छिछलापन
  • प्रवाल भित्ति का विस्तार गहरे जलीय भागों में होना
  • सागरीय लहरों द्वारा निर्मित क्लिफ स्थिर तटीय भागों में संभव है
  • लैगून का छिछलापन तथा तट की तीव्रता स्थल के अवतलन के द्वारा ही संभव है।

आलोचना- 

1- केवल स्थल खंड के अवतलन के द्वारा ही प्रवाल भित्तिया नहीं बनती हैं बल्कि समुद्र स्तर में वृद्धि के द्वारा भी प्रवाल कीट अधिक गहराई में जाकर प्रवाल भित्ति में परिवर्तित हो जाते हैं।

2- यदि स्थलखंड का अवतलन एक सतत प्रक्रिया होती तो महासागरों के अधिकांश द्वीप जलमग्न हो गए होते।

3- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की सतह अस्थायी व परिवर्तनशील है । इसके अनुसार केवल अवतलन ही नहीं स्थलखंडों का उत्थान भी होता है।

इनके अनुसार किसी स्थल खंड के विभिन्न तत्वों पर एक विशेष स्थिति में एक ही प्रकार की प्रवाल भित्ति का निर्माण होना चाहिए जबकि हम जानते हैं कि आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर अवरोधक प्रवाल भित्ति पाई जाती है वहीं दक्षिणी तट पर तटीय प्रवाल भित्ति मिलते हैं।

मरे का स्थिर स्थल सिद्धांत

• 30 फैदम की गहरायी वाले स्थलखंड के सहारे विकास होता है।

चित्र

मरे ने प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए स्थिर स्थलसिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार 30 फैदम की गहराई में स्थिर स्थलखंड पर प्रवाल कीटों के विकास होने के कारण प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति होती है। स्थलखंड की ऊंचाई अधिक होने पर अपरदन के द्वारा और गहराई अधिक होने पर निक्षेपण के द्वारा प्रवाल कीटों के विकास के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इन्होंने वाह्य कारकों के प्रभाव से प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने का प्रयास किया लेकिन पृथ्वी की सतह के अस्थायी और परिवर्तनशील होने के कारण जहां इनके स्थिर स्थलखंड की मान्यता गलत हो जाती है वही इनका सिद्धांत भी अधूरा प्रतीत होता है। क्योंकि इन्होंने अपने सिद्धांत द्वारा केवल एटाल के विकास को ही स्पष्ट किया है तटीय तथा अवरोधक प्रवाल भित्तियों के विषयों में मौन है। यहां तक कि मरे के अनुसार अपरदन और निक्षेपण दो अलग-अलग स्थलखंडो पर होने वाली प्रक्रिया है। जबकि इनका संबंध अनाच्छादन के अंतर्गत होने वाली क्रियाओं से जो एक ही स्थलीय सतह के अलग-अलग क्षेत्र में होते हैं।

डेली का हिमानी नियंत्रण सिद्धांत

चित्र

डेली ने समुद्र जल स्तर में परिवर्तन के आधार पर प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए हिमानी नियंत्रण सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार प्लेस्टोसीन हिम युग के पहले जो स्थलीय सतह जलमग्न थे। प्लेस्टोसीन हिम युग के आने पर जल के हिम में परिवर्तन से जल के स्तर में में 30 फैदम की कमी आई। जिससे जलमग्न स्थलीय सतह समुद्री सतह से बाहर अनावृत हो गए।
वाह्य कारकों के प्रभाव से इन्हीं सतहो का कटाव होने के कारण ऊंचाई में कमी आई । हिमयुग के समय जहां अत्यंत कम तापमान होने के कारण प्रवाल कीटों का विकास नहीं हो सका वही हिम युग के बाद तापमान में वृद्धि होने से प्रवाल कीटों के विकास के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न हुई। साथ ही समुद्र जल स्तर में वृद्धि होने पर जलमग्न स्थलखंड के छिछले जलीय भागों में प्रवाल कीटों के विकास के कारण प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई।
इस प्रकार डेेेली के अनुसार सभी प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति प्लेस्टोसीन हिमयुग के बाद समुद्र जल स्तर में वृद्धि के कारण हुई है।

कमी

इन्होंने अपने सिद्धांत में पृथ्वी के अस्थाई और परिवर्तनशील प्रभाव को सम्मिलित नहीं किया। जबकि हम जानते हैं की स्थल खंड के अवतलन के कारण भी प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हो सकती थी।
यहां तक प्रवाल भित्ति से निर्मित संरचना के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि प्लेसटोसीन हिमयुग के पहले भी प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई थी।

प्रवाल भित्ति के संदर्भ में डेविस का मत


डेविस ने प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति से संबंधित किसी स्वतंत्र सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया था बल्कि उन्होंने डार्विन डाना के अवतलन सिद्धांत तथा डेली के हिमाानी नियंत्रण सिद्धांत का समर्थन किया था। उनका ये मानना था कि प्लेस्टोसीन हिम युग के पहले स्थल खंड के अवतलन के कारण जबकि प्लेस्टोसीन हिमयुग के बाद समुंद्र जल स्तर में वृद्धि के कारण स्थलखंड के जलमग्न होने पर प्रवाल कीटों के विकास से प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार डेविस ने डार्विन डाना और डेली के द्वारा दिए गए विचारों को प्रसांगिक बनाने का प्रयास किया।

प्रवाल विरंजन (coral bleaching)


प्रवाल विरंजन के कारण
प्रवाल भित्ति के रंगहीन होने की प्रक्रिया को प्रवाल विरंजन कहते हैं।
जू-जैन्थली और प्रवाल किट सहजीवी के रूप में रहते हैं।जब प्रवाल कीटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न होता है तथा जू-जैन्थनी के अलग होने के कारण ही प्रवाल विरंजन की प्रक्रिया होती है।
कारण

1- तापमान – प्रवाल किटों के विकास के लिए जल की सतह के तापमान 22 से 23 डिग्री होना चाहिए जब कभी-कभी इससे अधिक या कम तापमान हो जाता है तब प्रवाल कीटों के विकास प्रभावित होने लगते हैं। वर्तमान समय में भूमंडलीय तापन के इसके सामान में होने वाले वृद्धि प्रवाल विरंजन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है।

2- लवणता – लवणता कम या अधिक भी प्रवाल किटों के विकास के लिए प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न करते हैं। जल के तापमान में वृद्धि के द्वारा वाष्पीकरण की दर अधिक होने से प्रवाल निरंजन की प्रक्रिया में वृद्धि होती है।
3- जल प्रदूषण – प्रदूषित जल में प्रवाल कीटों के मृत्यु होने लगते हैं। औद्योगिक देशों के तटीय प्रदेशों में औद्योगिक विकास एवं खनन कार्यों की कारण जल प्रदूषण ही प्रवाल विरंजन का एक महत्वपूर्ण कारण है।
Xenbiotices – जेनोबायोटिक्स वैसे सूक्ष्मजीव होते हैं जो विषैले या प्रदूषित रसायनिक तत्वों का उत्सर्जन करते हैं।इनके द्वारा प्रवाल कीटों में संक्रमित बीमारियों के होने पर भी प्रभाव विरंजन की दर में वृद्धि होती है।
इस प्रकार प्रवाल विरंजन सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाली एक प्राकृतिक क्रिया है वही मानव के द्वारा पर्यावरण में किए जाने वाले परिवर्तन से इस प्रक्रिया की दर में वृद्धि हुई है जिससे प्रवाल किटों के मृत्यु के कारण ना केवल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है बल्कि विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं।
प्रवाल विरंजन के दर के आधार पर प्रवाल भित्तियों को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है।

• 20 % – नगण्य प्रवाल ‌विरंजन
• 30 से 35% – सामान्य प्रवाल विरंजन
• 50 से 70% – तीव्र प्रवाल विरंजन
• 70% से अधिक – प्रचंड प्रवाल विरंजन

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