पारिस्थितिकी एवं परिस्थितिकी तंत्र
पर्यावरण एवं जीव जंतुओं के पारस्परिक संबंधों के अध्ययन को प्रेषित की कहा जाता है और नेक्स्ट है खेलने पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1869 ईस्वी में किया था।
प्रकार
1- स्वयं पारिस्थितिकी :- इसमें किसी स्थान पर एक जाति के सभी जंतु या पादप सदस्यों एवं उनके पर्यावरण के बीच संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
2- आबादी परिस्थितिकी:- इसमें किसी स्थान पर एक जाति की सभी जंतु व पादप सदस्यों एवं उनके पर्यावरण के बीच संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
3- समुदाय परिस्थितिकी :- इसमें किसी स्थान पर एक जाति के सभी जंतु या पादप सदस्यों एवं उनके पर्यावरण के बीच संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
4- जलीय पारिस्थितिकी :- इसमें स्वच्छ जल की परिस्थिति की एवं खारे जल की परिस्थितिकी को शामिल किया जाता है।
स्वच्छ जल की परिस्थितिकी
- तालाब पारिस्थितिकी
- नदी पारिस्थितिकी
- मीठे पानी की झील
- श्रुत जल प्रेषित की
खारे जल की परिस्थितिकी
- समुद्र की परिस्थितिकी
5- स्थलीय पारिस्थितिकी
- घास स्थल परिस्थितिकी
- वन परिस्थितिकी
- फसल परिस्थितिकी
- मरुभूमि परिस्थितिकी
परिस्थितिकी कारक
सभी जीव जंतु पर्यावरण में रहते हैं तथा पर्यावरण के वे सभी भौतिक, जैविक, रासायनिक तथा मृदा कारक जो जीव धारियों की संरचना एवं कार्य पर प्रभाव डालते हैं उसे प्रस्तुत किए कारक कहते हैं। चार प्रकार के मुख्य प्रस्तुत किए कारक है।
1- जलवायविक
2- स्थलाकृति
3- मृदा
4- जैवीय
1- जलवायुवीय कारक
इसके अंतर्गत प्रकाश, जल, तापमान नवमी एवं वायु को शामिल किया जाता है।
प्रकाश :- पर्यावरण में तापमान एवं ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य है। सूर्य से पौधों को प्राप्त ऊर्जा का 83% अशिष्ट होता है 12 % परावर्तित हो जाता है तथा 5% पारगत हो जाता है।
- पौधों द्वारा प्रकाश की उपस्थिति में पर्णहरित, जल एवं कार्बन डाइऑक्साइड द्वारा भोजन बनाना प्रकाश संश्लेषण कहलाता है। इसमें विकिरण ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। प्रकाश संश्लेषण में लाल एवं नीला प्रकाश सहायता करता है। 15 फीट के नीचे पानी में डूबे पौधे प्रकाश संश्लेषण न के बराबर होता है।
- प्रकाश वाष्प उत्सर्जन को प्रभावित करता है। प्रकाश की तीव्रता पर यह तेज एवं धीमा होने पर कम हो जाता है। वास्को सर्जन पत्तियों एवं बंधुओं पर निर्भर करता है। रंध्र प्रकाश के कारण ही खुलता है।
- प्रकाश की उपस्थिति में कुछ पौधे गति करते हैं इसे प्रकाशानुवर्तन गति कहते है।
- प्रकाश द्वारा ही पौधों में फूल फल एवं बीजों का निर्माण होता है। बीज अंकुरण में लाल प्रकाश का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।
- प्रकाश द्वारा विटामिन एवं कैरोटीन का निर्माण होता है। प्रकाश पौधों की वृद्धि हार्मोन आरक्षण के उत्पादन को रोकता है। प्रकाश की अनुपस्थिति में पौधे पीले एवं लंबे हो जाते हैं।
- पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए प्रकाश के जिस अवधि की आवश्यकता होती है उसे दीप्ति काल एवं प्रभाव को दीप्ति कालिया कहते है।
- टमाटर, मिर्ची, कपास एवं सूर्यमुखी प्रकाश उदासीन तथा गेहूं, जाओ एवं पालक प्रकाश प्रिय पौधे होते हैं।
तापमान :- तापमान भी ऊर्जा का रूप है जो तरंगों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचता है ताप जीवो के भौतिक, रासायनिक एवं फूफा पचाई गतिविधियों को प्रभावित करता है। पापा चाय गतिविधियों में एंजाइम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एंजाइम 25 – 30०C पर सर्वाधिक क्रियाशील होते हैं। 0०C से नीचे निष्क्रिय एवं 60०C से ऊपर तापमान पर नष्ट हो जाते हैं।
- पृथ्वी पर तापमान अस्थान एवं ऋतु के आधार पर अलग अलग होता है।भूमध्य रेखा से ध्रुव की तरफ जा तथा समुद्र तल से ऊंचाई पर जाने पर तापमान कम होता जाता है।
- प्रकाश संश्लेषण की दर 30 से 35०C तापमान पर सर्वाधिक होता है एवं प्रतीक 10०C तापमान बढ़ने पर यह दोगुना हो जाता है।
- तापमान बढ़ने पर वाष्पोत्सर्जन बढ़ता है एवं तापमान घटने व सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ जाने पर वाष्पोत्सर्जन घट जाता है।तापमान बढ़ने पर जल एवं खनिज लवणीय का अवशोषण बढ़ जाता है किंतु एक निश्चित सीमा से अधिक तापमान पर अवशोषण रुक जाता है।
- कुछ पौधों के बीच सामान्य दशाओं एवं तापमान पर अंकुरित नहीं होते हैं इसलिए इन्हें कुछ समय तक सीट दशाओं में रखना पड़ता है जिससे यह अंकुरित हो जाते हैं। इसे बसंती करण कहा जाता है।
- पाला के समय पौधों की कोशिका भित्ति काजल बर्फ बन जाता है इससे कोशिकाएं फट जाती हैं और जल बाहर जाता है जिससे पौधों की मृत्यु हो जाती है।
मेगाधर्म – अत्यधिक ताप वाले पौधे
हेकिस्तोथर्म – निम्न ताप वाले पौधे
स्टनौथर्मल – इस्तीर ताप वाले पौधे
जल चक्र :- पृथ्वी पर जल का मुख्य स्रोत वर्षा है। उस एवं ओला से भी जल प्राप्त होता है। पृथ्वी पर यह जल नदी, झील, तालाब एवं पृथ्वी के अंदर भी चला जाता है। गर्मी के समय नदी, झील,तालाब का जल वाष्प बनकर ऊपर जाता है तथा वृक्ष भूमिगत जल का उपयोग करते हैं एवं वाष्प उत्सर्जन से जल वायुमंडल में चला जाता है।अधिक ऊंचाई पर तापमान कम हो जाता है और वास्तु से बादल बनता है और बारिश के रूप में पुनः पृथ्वी पर जल पहुंच जाता है। इस प्रकार जल का रूप बदलना एवं एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचते रहने को जल चक्र कहा जाता है।
- वनस्पतियों के निर्माण में वर्षा एवं तापमान का मिश्रित प्रभाव पड़ता है। जल पौधों की संरचना, आकार एवं जैविक क्रियाओं को प्रभावित करता है। जल की मात्रा के आधार पर पौधों के प्रकार
हाइड्रो फाइट्स – जलीय पौधे
मेसोपाइट्स – औसत जलीय पौधे
जेरॉफाइट्स – मरूदभिद-कौन करेली पथरीली भूमि के पौधे।
जल का जीव द्रव्य निर्माण खनिज लवण का अवशोषण प्रकाश संश्लेषण, स्वसन, पाचन एवं अपघटन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रकाश संश्लेषण में जल के ऑक्सीकरण से ऑक्सीजन बनता है।
फाइटर समूह के पौधे मुख्य रूप से जल पर ही निर्भर करते हैं।
नाम :- वायुमंडल में जल, जलवा के रूप में पाया जाता है। वायुमंडल में विद्यमान रमिया जलवा स्कोर ही आर्द्रता कहा जाता है।
- विशेष तापमान पर एक निश्चित आयतन में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा एवं उसी तापमान तथा वायु के उसी आयतन को संतृप्त करने के लिए आवश्यक आर्द्रता के अनुपात को सबक सिखा देता कहते हैं।
- जब तापमान बढ़ता है तो वायु में उपस्थित आर्द्रता का अनुपात घट जाता है। आता है भाई और संतृप्त दशा बढ़ जाती है।
- पौधे ऑक्सीजन का प्रयोग स्वसन कार्बन डाइऑक्साइड का प्रयोग प्रकाश संश्लेषण में और नाइट्रोजन का प्रयोग प्रोटीन संश्लेषण व न्यूक्लिक एसिड के निर्माण में तथा जलवा का प्रयोग जैविक क्रियाओं में करते हैं।
- धूल के कारण पत्तियों के अंदर बंद हो जाते हैं जिससे कभी-कभी प्रकाश संश्लेषण ना होने पर पौधों की मृत्यु हो जाती है।
स्थलाकृति कारक
स्थलाकृतिक कारकों में ऊंचाई एक महत्वपूर्ण कारक है। ऊंचाई के साथ-साथ तापमान में कमी आती है एवं उसका वनस्पति पर प्रभाव पड़ता है।
- भूमि का ढलान एवं उसकी दिशा का वनस्पतियों पर प्रभाव पड़ता है। दक्षिण दिशा की ढलान पर सगन वनस्पति एवं उत्तर दिशा की ढलान पर मरू बनस्पति आ पाई जाती हैं क्योंकि दक्षिण ढाल मानसून की दिशा में तथा उत्तरी ढाल मानसून की दिशा के विपरीत होते हैं।
मृदा
पृथ्वी का सबसे ऊपरी भाग मृदा कहलाती है। चट्टानों के अपक्षय, अपरदन एवं निक्षेपण से मृदा एवं मृदा परिच्छेदिका का निर्माण एवं विकास होता है। भौतिक अपक्षय में बड़ी-बड़ी चट्टानें टूटकर छोटी बन जाती हैं एवं रासायनिक अपक्षय में जलीय अपघटन, ऑक्सीकरण, जलयोजन, कार्बनी करण द्वारा मिट्टी के लवणीय एवं जटिल करण का निर्माण होता है।पौधों की पत्तियों एवं जंतुओं के मृत अवशेष मिलकर मिट्टी में युवाओं का निर्माण करते हैं एवं मिट्टी को उर्वरक बनाते हैं।
मृदा परिच्छेदिका
किसी भूमि की खड़ी कार्ड जिसमें कई स्तर पाए जाते हैं उसे मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है। मृदा में कई संस्कार होते हैं।
संस्कृत A – इस सिर्फ मृदा में उमस होता है यह उपजाऊ होती हैं।
संस्तर B- आदम रिदा में उमस की मात्रा कम होती है यह जल भंडार का कार्य करता है।
संस्कार C – इस परत में लंबी जड़ों वाले पौधों की जड़े ही पहुंच पाती हैं।
संस्तर D – इसमें कोई जैविक क्रिया नहीं होती और ना ही पौधों की जड़े यहां पहुंच पाती हैं।
मृदा का संगठन :- मृदा संगठन में चार पदार्थ होते हैं।
मृदा जल। – 25%
मृदा वायु। – 25%
खनिज पदार्थ। – 40%
कार्बनिक पदार्थ – 10%
- उष्णकटिबंधीय मृदा में कार्बनिक पदार्थ कम एवं पीट मिर्धा में कार्बनिक पदार्थ सर्वाधिक होता है। कार्बनिक पदार्थ को ही उमस कहा जाता है।
- यू मच काले भूरे रंग का होता है। इसमें वायु के आवागमन की क्षमता होती है। इसमें खनिज गुनीत अवस्था में पाया जाता है। यू मास में जल ग्रहण की क्षमता होती है। यू मास में ही वृद्धि हारमोंस एंड ऑल बेसिक एसिड पाया जाता है जिसका निर्माण भूमि में पाए जाने वाले जीवाणु द्वारा होता है।
- युवा से युक्त मिट्टी गर्म एवं उपजाऊ होती है जिससे इसमें बीजों का अंकुरण आसानी से होता है।
मृदा जल :- जल मृदा संगठन का महत्वपूर्ण पदार्थ है इसके द्वारा ही पौधे अपने जोड़ों द्वारा खनिज एवं कार्बनिक पदार्थों का अवशोषण करते हैं मृदा जल चार प्रकार के होते हैं।
1- केशिका जल :- यह मिट्टी के कणों के बीच में पाया जाता है। इस जल को ही पौधे आसानी से उपयोग में लाते हैं।
2- गुरुत्वीय जल – यह जल गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण अत्यधिक नीचे चला जाता है। इसका प्रयोग पौधे नहीं कर पाते।
3- आर्द्रता जल :- यह जल मिट्टी के कणों के चारों ओर जलवा के रूप में पाया जाता है। पौधे इसे भी और शोषित नहीं कर पाते हैं।
4- रवा जल :- यह जल मिट्टी के कणों में रासायनिक रूप में पाया जाता है। इसे भी पौधे उपयोग में नहीं ला पाते हैं।
जल की उपस्थिति का पौधों की संरचना पर प्रभाव पड़ता है अमरूद विद पौधों में दृढ़ कथक, दारू उत्तर एवं फ्लोएम उत्तक अधिक होते हैं। इसमें मोटी उपचार, रंध्र का गड्ढों में होना, पत्तियों का कांटे में बदल जाना एवं तना मुसल होता है।
जलोद्भिद पौधे :- इसमें उपचार एवं दारू तक विकसित नहीं होते हैं। इसमें हवाई पुस्तकों की अधिकता पाई जाती है।
मृदा वायु :- मृदा वायु मृदा संगठन का भाग है।मृदा में वायु के न रहने पर जीवाणुओं की मृत्यु हो जाती है जिससे पादप क्रियाएं कम हो जाती हैं। मृदा भाई द्वारा जनों की वृद्धि, मूल रोम का निर्माण, जड़ों द्वारा श्वशन , जल अवशोषण, बीजों का अंकुरण एवं मृदा जीवाणुओं द्वारा शोषण का कार्य संपन्न होता है।