पवन

पवन

शुष्क एवं अर्धशुष्क स्थलाकृतियां

परिचय– पवन एक महत्वपूर्ण तृतीय स्थलाकृति के निर्माण का अभिकर्ता है। वायु शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की अपरदन एवं निक्षेप जनित स्थलाकृतियो का निर्माण करता है। उल्लेखनीय है कि 10 इंच (25 सेंटीमीटर) से कम वार्षिक वाले क्षेत्रों को मरुस्थल (शुष्क) तथा 10 से 20 इंच (25 से 50 सेंटीमीटर) वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों को अर्ध शुष्क क्षेत्र कहा जाता है। पवन अपनी अपरदनात्मक कार्य के द्वारा शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में निश्चित एवं आकर्षक स्थलाकृतियों का निर्माण करता है। तथापि अपरदन मुख्यता निम्न कारकों से प्रभावित होता है-

  • पवन वेग
  • रेत तथा धूल कणों की मात्रा तथा स्वभाव
  • शैलो की संरचना
  • जलवायु
  • वनस्पति

पवन का वेग– यदि पवन का वेग कम होगा तो चट्टान पर टक्कर का प्रभाव नगण्य होगा साथ ही धूल कणों को ले जाने की क्षमता कम होगी जिससे अपघर्षण तथा सन्निघर्षण नगण्य होगा।

धूल कणों की मात्रा– पवन के अपरदन का कार्य अपरदनात्मक यंत्र  द्वारा ही संपादित होता है इन यंत्रों में रेत के कण, धूलिकण, कंकड़, पत्थर आदि शामिल हैं। जब हवा तेज बहती है तो उसके साथ रेत के कण से अपरदन करते हैं जैसे-जैसे सतह के ऊपर जाते हैं रेत या धूल कणों की मात्रा तथा आकार दोनों में ह्रास होने लगता है। पवन के निचले स्तर अर्थात धरातल सतह के पास 6 फीट तक अपरदन अधिक होता है।
शैलों की संरचना– कोमल तथा कम प्रतिरोधी शैलों का अधिक अपरदन होता है जबकि कठोर तथा प्रतिरोधी चट्टानों का कम अपरदन होता है।
जलवायु– जलवायु पवन अपरदन पर असर डालते हैं जैसे- उच्च तापमान वाले मरुस्थल शुष्क हो जाते हैं अतः वहां पवन का अपवहन अधिक होता है।
वनस्पति– जहां वनस्पति का आवरण पाया जाता है वहां पवन का अपरदन कार्य मन्द होता है जबकि जहां वनस्पति का अभाव होता है वहां पवन का अपरदन कार्य अधिक होता है।
पवन द्वारा अपरदन के रूप– अपवहन, सन्निघर्षण, अपघर्षण।
अपवहन– वायु द्वारा चट्टानों के चूर्ण को उड़ा कर ले जाना।
अपघर्षण– पवन के मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों को रगड़ कर, घिसकर अपरदित करती हैं।
सन्धिघर्षण– शैल कण आपस मे रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूट जाते हैं।
पवन द्वारा अपरदन जनित स्थलाकृति– अपवहन गर्त या अपवहन बेसिन, इंसेलबर्ग, छत्रकशिला, भूस्तंभ, ज्यूजेन, यारडंग, ड्राईकांटर, जालीदारशीला, पवनवाताएं / खिड़की
पवन के अपवहन अथवा उड़ाने के क्रिया के द्वारा छोटे-छोटे कणों को उड़ाकर ले जाने से निर्मित अनेक छोटे-छोटे गर्तो को अपवहन गर्त कहते हैं। अपवहन गर्त के गहराई की सीमा भौम जल स्तर द्वारा निर्धारित होती है। अमेरिका में अपवहन बेसिनो को बफैलोवालोस तथा मंगोलिया में पांगकियांग कहते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों में समान सतह से ऊंचे उठे टिल्लो को इंसेलबर्ग कहते हैं। बोर्नहार्ट नामक विद्वान के नाम से जाना जाता है। गुम्बदाकार इंसलबर्ग का निर्माण ग्रेनाइट या निस चट्टानों के अपरदन/ अपक्षयण के द्वारा होता है। पश्शार्गे, डेविस तथा किंग ने भी इंसेलबर्ग का अध्ययन कलाहारी मरुस्थल में किया था। छत्रक शिला मरुस्थलीय भागों में यदि कठोर शैल आवरण के नीचे कोमल चट्टान स्थित हो तो पवनों के द्वारा एक विचित्र प्रकार की स्थलाकृति का निर्माण होता है जिसे छत्रक शिला कहते हैं। चुकी पवन की तीव्रता 6 फीट तक अधिक रहती है इसलिए पवन के द्वारा चारों दिशाओं से अपरदन के कारण निचला भाग कट जाता है तथा ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है।
और इस प्रकार छत्रक शिला के रूप में छतरीनुमा स्थलाकृति का निर्माण करता है। सहारा के रेगिस्तान में गारा के नाम से तथा जर्मनी में पिट्जफेल्सन के नाम से संबोधित किया जाता है।
भूस्तंभ- असंगठित तथा कोमल शैल के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी शैल की उपस्थिति में ऊपर कठोर शैलो के द्वारा नीचली कोमल शैलो को संरक्षण प्रदान किया जाता है। संरक्षण दिए जाने के कारण बनी आकृति को भूस्तंभ कहते हैं।
ज्यूजेन- कठोर तथा कोमल चट्टानों के ऊपर नीचे एक दूसरे के समानांतर/ (क्षैतिज) उपस्थिति में अपक्षय तथा विशेष अपरदन के द्वारा ढक्कनकार दवात के समान बनी विशेष स्थलाकृति ज्यूजेन होती है। ऊपरी कठोर शैल की परतों की संधियों व छिद्रो में ओस भर जाने के कारण तुषार अपक्षय के द्वारा ज्यूजेन जैसे स्थलाकृति बनती है। ज्यूजेन की ऊंचाई 90 से 150 मीटर तक होती है।
यारडंग- कठोर एवं कोमल शैलो के एक दूसरे के लंबवत होने की स्थिति में कठोर शैलो की अपेक्षा मुलायम शैलो का कटाव अधिक होता है। कठोर शैलो के घर्षण क्रिया से कम प्रभावित होने के कारण कठोर चट्टान शिर्ष के रूप में खड़े रह जाते हैं तथा शैलो के पाशर्व भाग में कटाव होने से नालियां बन जाती हैं। यारडंग प्रायः पवनो के दिशा में समानांतर स्थित होते हैं।
ड्राईकांटर- सतह पर पड़े शिलाखंड पर पवन द्वारा अपरदन किए जाने से चट्टानों पर खरोच पड़ जाते हैं। खरोचों के कारण चट्टानों में फलक बन जाते हैं।

जालीदार शिला- मरुस्थलीय भाग में जब विभिन्न स्वभाव वाले चट्टानें पवनों के मार्ग में पड़ जाती है तो ऐसी स्थिति में पवन के द्वारा कोमल शैलो का अपरदन करके उसे अन्यंत्र पहुंचा दिया जाता है जबकि कठोर भाग यथा स्थान पर रह जाता है इस प्रकार अपरदन के कारण बने स्थल रूप को जालीदार अथवा जालक अदिशमक शैल कहते हैं।
पवन वातायन – लंबे समय तक अपरदन के कारण जालीदार शीला में बने छिद्र जब शैल के आर – पार हो जाते हैं तो आर पार बने छिद्रों को पवन खिड़की या वातयन छिद्र कहते हैं। चुकि इस खिड़की से होने वाले अपरदन के अंतर्गत शैलो का नीचे से कटाव हो जाता है। और ऊपरी भाग छत के रूप में विद्यमान रहता है इसलिए मेहराबनुमा आकृति बन जाती है जिसे पूल भी कहा जाता है।
पवन द्वारा परिवहन कार्य –पवन का परिवहन कार्य पवन चलने की दिशा में अनिश्चितता के कारण स्थलाकृतियों के निर्माण हेतु परिणामी या प्रयोज्य नहीं होता है । पवन का परिवहन अधिक दूरी तक विस्तृत क्षेत्रों में होता है इसलिए भी आकृतियां नहीं बन पाती । दिशा सुनिश्चित ना होना भी आकृति निर्माण के समक्ष एक बाधा है।
पवन का नीचे पर कार्य – पवन का निश्चित कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है जब पवन के वेग में कमी आ जाती है अथवा मार्ग में अवरोध आ जाने के कारण पवन अवसादो का निक्षेपण करने लगता है।
पवन द्वारा निक्षेप जनित स्थलाकृति– तरंग, लोयस, बालुका स्तूप।


तरंग चिन्ह– पवन के निक्षेप कार्यों से मरुस्थलीय सतह पर सागरीय तरंगों के समान पवन प्रवाह के समकोण दिशा में लहरदार चिन्ह बन जाते हैं । जिन्हें तरंग चिन्ह अथवा उर्मि चिन्ह कहते हैंं। पवन की दिशा परिवर्तित होने के कारण इनका स्वरूप भी बदलता रहता है।
बालुका स्तूप – पवन द्वारा रेत एवं बालु के नीक्षेप से निर्मित स्तूप को बालुका स्तूप कहते हैं।
आवश्यक दशाएं

1 रेत की अधिकता
2-तीव्र पवन वेग
3-उचित स्थान अवरोध वाले स्थान के आसपास जलीय भाग अथवा गहरे गर्त नहीं होने चाहिए।
4-पवन मार्ग में अवरोध
बालुका स्तूप का वर्गीकरण-
1 – पावनानुवर्ती बालुका स्तूप
2 – अनुप्रस्थ बालुका स्तूप
3 – बरखान
4 – अन्य
पावनानुवर्ती बालुका स्तूप – पवन की दिशा में समानांतर निर्मित लंबे-लंबे स्तूपो को अनुदैर्ध्य बालुका स्तूप कहते हैं। इन स्तूपो को पावनानुवर्ती ढाल मंद तथा पवन विमुखी ढाल तीव्र होता है। विभिन्न स्तूपो के मध्य स्थित रिक्त भागों को कोरिडोर कहते हैं। (सहारा में गासी कहते हैं)
अनुप्रस्थ बालुका स्तूप – जब स्तूपो का निर्माण प्रचलित पवन के दिशा के समकोण पर होता है। तो उसे आणे अथवा अनुप्रस्थ बालूका स्तूप कहते हैं । इसका निर्माण रेगिस्तान की सीमा अथवा रेतीले सागरीय तटों पर होता है यह स्तूप प्रायः लहरदार होते हैं।
बरखान – यह अनुप्रस्थ बालुका स्तूप के विशिष्ट रूप होते हैं इनका आकार चांपाकार या नवचंद्राकार होता है । इनका पवन रूपी ढाल उत्तल तथा पवनबीमुखी ढाल अवतल होता है। बरखान मध्य में काफी ऊंचे होते हैं तथा इनके पूर्ण विकसित दो सिंग होते हैं जो पवन के चलन में होतेे हैं यह तुर्किस्तान में अधिक संख्या में होते हैं।

अन्य रूप – झाड़ियों के पृष्ठ भाग से निर्मित स्थल रूपों में नेमका स्थल के नाम से जानते हैं। लूनेट स्थल का निर्माण रेगिस्तानी लघु गर्तो (प्लाया) के पृष्ठ भाग में होता है। अनुदैर्ध्य ( रैखिय) स्तूपों के स्थानांतरण के बाद पीछे छोटी मोटी रेत से निर्मित स्थल रूप में व्हेल बैक कहा जाता है ।अत्याधिक विस्तृत व्हेल बैक स्थल रूप द्रास कहते हैं। तीन या अधिक भुजाओं वाला स्थल रूप को तारा कहते हैं। तारा तथा अनुप्रस्थ स्तूप के मध्य के विशेषताओं वाले स्तूप को विलोन स्तूप कहते हैं
लोयस – पवन द्वारा लाई गई अवसादो केे निक्षेप से निर्मित मैदान को लोअस होता है। सर्वप्रथम जर्मन भूगोलवेत्ता रिच थोपेन ने चीन में लोयस क्षेत्रों का अध्ययन किया था, तथा इसका नामकरण फ्रांस के अल्सास प्रांत में लोयस के नाम पर किया।
आवश्यकताएं दशाएं

वनस्पतियां,

• धूल के कण आपस में संबंध होकर नीचे बैठ जाते हैं।

• वर्षा का जल पवन के साथ मिली धूल को नीचे बैठा देता है।

अमेरिका में लोयस को अबोढ जबकि बेल्जियम और फ्रांस में इसे लेमन कहते हैं । यह क्षेत्र कृषि तथा ईट बनाने के लिए कच्चा सामग्री का कार्य करता है। कभी-कभी मिट्टी की खुदाई कर खड़े दिवालों के माध्यम से घर बना लिया जाता है ।हालांकि यह घर बाढ़ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं चुकी ये मिट्टी काफी पारग्मय होती है यही कारण है कि लोयस वाले क्षेत्र में प्रवाहित ह्वागहो नदी द्वारा लाए गए बाढ़ के कारण इसे चीन का शोक भी कहते हैं।
जल निर्मित मरुस्थलीय स्थलाकृति – अर्ध शुष्क व शुष्क प्रदेशों में सामायिक वर्षा के द्वारा शैलो के यांत्रिकविघटन तथा जलीय अपरदन से कुछ विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृति या बनती हैं
1 – उत्खात स्थलाकृति
2 – पेडिमेंट
3 – बजादा
4 – प्लाया
उत्खात स्थलाकृति – असामयिक वर्षा के कारण मरुस्थल में छोटी जलधाराएं निकल पड़ती हैं जिनके द्वारा अपरदन के कारण गहरे खाई या गड्ढे बन जाते हैं जिससे उन क्षेत्र की स्थलाकृति अत्यंत उबड़ खाबड़ हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि कार्स्ट स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में उत्खात स्थलाकृति या रासायनिक अपक्षय से बनती हैं।
पेडिमेंट – पर्वतीय अग्रभाग तथा बाजादा के मध्य आप अपरदित शैल सतह वाले भाग को पेडिमेंट कहते हैंं। जिसका ढाल सामान्य होता है। पेडिमेंट का निर्माण अपक्षय तथा सरिता अपरदन के विभिन्न चट्टानों के (अपरदन ) कटने के कारण होता है।
पेडिमेंट के सिद्धांत से बालसन का पर्वतीय अग्रभाग के पीछे हटने से पेडिमेंट के निर्माण से संबंधित सिद्धांत।
• मैक्डी का चादरी बाढ़ सिद्धांत ।
• गिलबर्ट का क्षैतिज अपरदन द्वारा पेडिमेंट के निर्माण से संबंधित सिद्धांत।
• मॉरिस जानसन ब्लैक बिल्डर का पार्श्विक अपरदन सिद्धांत ‌
• मिश्रित सिद्धांत- डेविस, किंग
बजादा – प्लाया तथा पर्वतीय अग्रभाग के मध्य मंद ढाल वाले भाग को बजादा कहते हैं।
प्लाया – प्लाया बजारा से घिरी हुई एक विशिष्ट प्रकार की स्थलाकृति है । यह एक प्रकार की झील है । जो प्राय: शुष्क होती है तथा असमयिक वर्षा के कारण कभी-कभार भर जाती है। अधिक नमक वाली प्लाया को सेलिनास कहते हैं। अरब के रेगिस्तान में प्लाया कबारी तथा खलन तथा सहारा के रेगिस्तान में सट्ठ कहते हैं। बालसन एक बेसिन है जो बाजादा से गिरी हुई होती है। इसी बालन के केंद्रीय भाग अथवा न्यूनतम उच्चावच वाले क्षेत्र में होता है।

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