नदी

नदी

बहते हुए जल के द्वारा जल गति क्रिया पवन द्वारा अपवहन तथा हिमनद के लिए उत्पाटन की क्रिया से असंगठित चट्टानें अपरदीत होती हैं । इसी प्रकार अपघर्षण अपरदन के कारकों तथा अवसादों के सम्मिलित प्रभाव से होने वाली एक क्रिया है। जिसके द्वारा संलग्न सतह का कटाव होता है अर्थात अपरदन के यंत्र/कारक संलग्न सतहों पर अपहरण के द्वारा कटाव करते हैं । यह अपरदन से संबंधित सभी क्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

जब अवसादों के आपास में टकराने से विघटन की प्रक्रिया होती है तो उसे सन्नीघर्षण कहते हैं जब अपरदन के कारकों में जल गति क्रिया के द्वारा असंगठित चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उसे हम रसायनिक अपरदन अथवा संक्षारण कहते हैं। अपरदन के कारकों में बहते हुए जल का प्रभाव सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्रों में होता है। यही कारण है कि डेविस द्वारा प्रतिपादित सामान्य अपरदन चक्र को सरिता अपरदन चक्र भी कहते हैं।
जैविक अपरदन के अंतर्गत मुख्य रूप से मानव की गतिविधियों को शामिल किया जाता है। जो कि वर्तमान में भौतिक व रासायनिक अपरदन को बढ़ावा देने में मुख्य अभिकर्ता के रूप में उभरा है। नदियां अपरदन की क्रिया कई तरीके से संपन्न करती हैं जैसे – शिर्षवर्ती अपरदन के द्वारा नदी अपने उद्गगम क्षेत्र की ओर अपरदन करती हैं । जिससे नदी की लंबाई में वृद्धि होती है । नदी के द्वारा संपन्न किया जाने वाला इस अपरदन के दौरान पर्वतीय क्षेत्र में सरिता अपरदन जैसी सरिता अपहरण की घटना घटित होती है।पर्वतीय क्षेत्र में ढाल अधिक होने के कारण नदी की तीव्रता काफी अधिक होती है जिससे नदी निम्नवर्ती अथवा ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा घाटी को गहरा करने का कार्य करती है। नदी अपरदन के इस रूप को हम घाटी गर्तन भी कर सकते हैं।
जब वर्षा जल गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से एक निश्चित दिशा में बहने लगता है तो उसे नदि सरिता कहते हैं नदियां भूतल पर समतल स्थापन का कार्य तीन रूपों में करती हैं ।अपरदन, परिवहन , निक्षेप
नदियों का बहता हुआ जल घाटी के पार्श्व अवतली को खरोचता और कुरेदता है। जिस कारण चट्टान चूर्ण को नदी की घाटी से नदी अपने साथ लेकर प्रवाहित होती है । नदी के कटाव वाले कार्य को अपरदन तथा मलवा के स्थानांतरण को परिवहन कहते हैं जब नदियां अवसादो को ले जाने/ प्रवाहित करने में असमर्थ हो जाती है तो वह निक्षेप करने लगती है।

नदी का अपरदन कार्य – नदी का प्रमुख कार्य अपरदन करना है।
सैलसेबरी के अनुसार– नदी के प्रमुख कार्य में एक स्थल का सागर तक ले जाया जाना है।”
गिलवर्डने नदी की अपरदन शक्ति को एक फार्मूले के रूप में प्रदर्शित किया ।
अपरदन शक्ति ( नदी का वेग)2
अर्थात नदी का वेग यदि दोगुना कर दिया जाए तो अपरदन शक्ति 4 गुना हो जाएगा तथा 4 गुना कर दी जाए तो 16 गुना हो जाएगा ।

नदी अपनी युवावस्था में पर्वतीय क्षेत्रों में ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा V आकार की घाटी का निर्माण करती है। हालांकि पार्श्विक अपरदन के कारण घाटी के चौड़ा होने का कार्य निरंतर जारी रहता है।
गार्ज एवं कैनियन दोनों ही V आकार की घाटी के रूप में होते हैं जिनके किनारे की दीवार अत्यंत ढाल वाली होती है तथा चौड़ाई की अपेक्षा गहराई अधिक होती हैै। हालांकि गार्ज और कैनियन में अंतर स्थापित करना मुश्किल है फिर भी सामान्यता गार्ज के विस्तार के रूप को कैनियन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कैनियन गार्ज की तुलना में विशाल आकार वाले किंतु सकरे होते हैं ।
पहाड़ी क्षेत्रों में नदियां जब खड़े ढाल अथवा क्लिप की ऊपरी भाग से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरती है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। क्षिप्रिका भी जलप्रपात का एक रूप है किंतु क्षिप्रिका की ऊंचाई जलप्रपात से कम तथा ढाल सामान्य होता है। अर्थात क्षिप्रिका को जलप्रपात का छोटा रूप समझना चाहिए। जलप्रपात के तल पर निर्मित गर्तों को जल गर्तिका कहते हैं। जल गर्तिका के विस्तृत रूप को अवनमन कुण्ड कहते हैं। हिमानी क्षेत्रों में भी यह आकृति बनती है तथा जलप्रपात वाले क्षेत्रों के अतिरिक्त भी घाटी की तली में इन आकृतियों का निर्माण अपरदन के द्वारा हो सकता है। नदी के मार्ग में कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतों का क्रमवार क्षैतिज रूप में पाए जाने की स्थिति में घाटी के दोनों तरफ विशेषक अपरदन के द्वारा सोपनाकार सिढिया बन जाती हैं।

चुकी इनके निर्माण में चट्टानों की कठोरता एवं कोमलता का योगदान होता है । इसीलिए इन्हें संरचनात्मक सोपान भी कहते हैं नदी वेदिका इससे मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसके निर्माण में संरचना का योगदान नहीं होता है बल्कि ये आकृतियां अपरदन नवन्मेष जनित आकृतियां हैं इस प्रकार के आकृतियों को घाटी के अंदर घाटी के अथवा दो तले वाली घाटी भी कहते हैं जब नदियां मैदानी क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं तब ऐसी स्थिति में ढाल कम होने के कारण नदी का वेग कम हो जाता है तथा नदियां मैदानी ढाल का अनुसरण करते हुए टेढ़े- मेढ़े रास्ते का अनुसरण करती हैं इस कारण नदियों के मार्ग में कई मुडाव होते हैं। और इन्हीं मुड़ाव वाले स्थानों को विसर्प कहते हैं विसर्प पांच प्रकार के होते हैं।
1- अधाकर्तित विसर्प
2- गंभीरकृत विसर्प
3- इन्ट्रेच्ड विसर्प
4- घिरा हुआ विसर्प
5- अंतः कार्तित विसर्प
इन विसर्पो में अधाकर्तित विसर्प नवोन्मेष का उदाहरण है।
जब नदियां मुडाव वाले मार्ग को छोड़कर अपने मार्ग को सीधा कर लेती है तब ऐसी स्थिति में मुड़ाव वाले क्षेत्रों में गोखुर झील या चाप झील का निर्माण होता है।

नदियां क्षैतिज अपरदन के दौरान समप्राय मैदान का निर्माण करती है । इस तरह के आकृतियों का निर्माण तब होता है जब नदियां अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है। समप्राय मैदान के लिए पेनिप्लेन शब्द का प्रयोग डेविस ने किया जबकि पेंक ने इण्ड्रम शब्द का प्रयोग किया है। समप्राय मैदान पर अवस्थी पहाड़ियों के लिए डेविस ने मोनाडनाक तथा पेंक ने इंसेलवर्ग शब्द का प्रयोग किया है ।

हागवैक्स एवं क्वेस्टा – क्वेस्टा और हागवैक्स का निर्माण झुकी हुई अवशादी वाली शैल वाले क्षेत्रों में चट्टानों के क्षरण के द्वारा होता है। हागवैक्स का किनारा जहां सामान्य ढाल वाला तथा समतल होता है वही दूसरा किनारा तीव्र ढाल वाला एवं उबड़ – खाबड़ होता है। तीव्र एवं उबड़-खाबड़ का संबंध कोमल चट्टानों से होता है । नदिया जब अपने मार्ग पर आगे बढ़ती है तो कोमल चट्टान को का कटाव करते हुए पुनः कठोर चट्टानों के सहारे नीचे उतर कर आगे बढ़ जाती है । तब इस दौरान हागवैक्स जैसी स्थलाकृति का निर्माण होता है। क्वेस्टा भी सुकर कटक से मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसका ढाल सुकर कटक से सामान्य होता है।

परिवहन कार्य – नदी के समतल स्थापन कार्यों में परिवहन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है ।

गिलवर्ड ने परिवहन के संबंध में छठवीं शक्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है ।
परिवहन शक्ति = (नदी का वेग)6
इसका तात्पर्य यह है कि नदी के वेग को 2 गुना कर दिया जाये तो नदी के बोझ ढोने की क्षमता में 64 गुना की वृद्धि हो जाएगी । नदियां परिवहन का कार्य कई रूपों में करती है
जैसे –

1 कर्षण द्वारा अथवा लुढ़ककर
2 उत्परिवर्तन द्वारा उछल – उछल कर
3 लटक कर
4 – घूल कर
निक्षेप जनित स्थलाकृति – निक्षेप जनित स्थलाकृतियों को स्थानीय स्तर पर रचनात्मक स्थलाकृति का दर्जा दिया जाता हैै। जबकि अपरदन जनित स्थलाकृतिया विनाशात्मक होती है । जब नदिया परिवहन करने की स्थिति में नहीं होती है तब निक्षेप कार्य प्रारंभ कर देती है ।
निक्षेप के कारण-

जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु– जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु गिरीपदीय मैदान में नदी द्वारा निक्षेप जनित एक रचनात्मक स्थलाकृति है। जब नदियां पर्वत से उतर कर मैदान में प्रवेश करती हैं तब उनकी परिवहन शक्ति में कमी आने के कारण वे अवसादों के रूप में बड़े-बड़े चट्टानों के टुकड़ों को पर्वत पाद के पास तथा बारीक कणों को अपेक्षाकृत परिधीय भागों में अर्धचंद्राकार रूप में निक्षेपित कर देती हैं गिरीपदीय मैदान में बनी इस प्रकार की स्थलाकृति जलोढ़ पंख या जलोढ़ शंकु का लाती है। जलोढ़ पंख काढाल एवं ऊंचाई जब सामान्य से अधिक हो जाता है तो उसे जलोढ़ शंकु कहते हैं। टालस शंकु जलोढ़ पंख एवं शंकु से भिन्न होते हैं क्योंकि इनका निर्माण बृहद क्षरण से उत्पन्न अवसादो के सामूहिक स्थानांतरण के द्वारा यथोचित स्थान पर होता है। इस प्रकार टालस शंकु के निर्माण में नदी का कोई योगदान नहीं होता है। जलोढ़ पंख द्वारा निर्मित गिरीपदीय जलोढ मैदान भौगोलिक एवं आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इन्हीं जल लोड पंखों के परिधि वाले भागों में मानव आवास के साथ खेती, के लिए आवश्यक भूमि उपलब्ध हो जाती है। अद्धशुष्क प्रदेशों में यह क्षेत्र खेती के लिए उत्तम स्थल होते हैं।
प्राकृतिक तटबंध- नदी का तल भी निक्षेप के कारण धीरे-धीरे ऊंचा होता रहता है। मिसीसिपी तथा ह्वेंग ही नदियों से प्राकृतिक तटबंध का निर्माण हुआ है। प्रायः यह तटबंध नदी के जल तल से एक या 2 मीटर ऊंचे होते हैं परंतु कई बार ऊंचाई काफी अधिक होती है उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसीसिपी नदी के प्राकृतिक तटबंध कहीं-कहीं 6 से 7 मीटर तक ऊंचे होते हैं। कभी-कभी यह तटबंध बाढ़ के जल के दबाव का सामना नहीं कर पाते। इन में दरार पड़ने या टूटने से दूर-दूर तक बाढ़ का प्रकोप फैल जाता है। चीन की ह्वेंग ही नदी की घाटी में भीषण बाढो का यही कारण है। इसलिए ह्वेंग ही नदी को ‘चीन का शोक’ कहा जाता है।
ह्वेंग ही मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।
बाढ़ का मैदान- प्रायः प्राकृतिक तटबंध आसपास के क्षेत्र को नदी बाढ़ से बचाते हैं। परंतु कभी-कभी इन तटबंध में दरार आ जाती है या यह टूट जाते हैं और नदी का जल आसपास के क्षेत्र में फैल जाती है। बाढ़ की समाप्ति पर नदी अपना तलछट वहीं पर निक्षेपित कर देती है इस प्रकार एक विस्तृत मैदान का निर्माण हो जाता है जिसे बाढ़ का मैदान करते हैं। यह मैदान प्रतिवर्ष नदियों द्वारा लाई गई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं इसलिए यह बहुत उपजाऊ होते हैं। ह्वेंग ही, मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।
प्राकृतिक तटबंध- वर्षा ऋतु में नदी में जल की मात्रा अधिक हो जाने से जब नदी में बाढ़ आती है तो नदी का जल नदी के किनारों को पार करके बहने लगता है। इस अवस्था में नदी की परिवहन शक्ति तथा नदभार दोनों ही अधिक हो जाते हैं। बाढ़ के समाप्त हो जाने पर नदी अपना नदभार का निक्षेप करना आरंभ कर देती है। यह नीचे नदी के किनारे पर सबसे अधिक होता है क्योंकि किनारों पर घर्षण के कारण बैग सबसे कम हो जाता है। यह क्रम प्रतिवर्ष चलता रहता है और नदी के किनारे ऊंचे होते रहते हैं। इस प्रकार नदी के किनारों पर एक बांध बन जाता है जिसे हम प्राकृतिक तटबंध कहते हैं।

डेल्टा- जब नदियां सागर व झील में कितने हैं तो उनके प्रवाह में अवरोध व वेग में निहायत कमी के कारण समुद्र तथा उसके संलग्न क्षेत्र में एक विशेष प्रकार की रचनात्मक क्षेत्र का निर्माण होता है जिसे पहली बार नील नदी के अध्ययन के दौरान हेरोडोटस ने ग्रीक अक्षर डेल्टा के नाम से संबोधित किया।
डेल्टा के निर्माण की आवश्यक दशाएं-
उचित स्थान- सागर, झील
नदी का आकार तथा आयतन अधिक
मार्ग लंबा
मुहाने के पास नदी का वेग अत्यंत मंद
सागरिया लहरें तथा ज्वारीय तरंगे निर्बल हो
सागरीय तात्या सागरीय प्लेटें स्थायी हो।
डेल्टा का वर्गीकरण-
आकृति के अनुसार
चापाकार डेल्टा
पंजाकार डेल्टा
ज्वारनदमुख डेल्टा
रुण्डित डेल्टा
पालयुक्त (क्षींण डेल्टा)
विस्तार के अनुसार
बृद्धिमान डेल्टा
अवरोधित डेल्टा
परित्यक्त डेल्टा
चापाकार डेल्टा- इसका निर्माण उस समय होता है जब नदी की मुख्यधारा द्वारा पदार्थों का निक्षेप पर बीच में अधिक होता है इससे बीच का भाग निकला हुआ एवं किनारे का भाग संकरा होता है। इस प्रकार के डेल्टा का आकार वृत्त के चाप या धनुष के समान होता है। उदाहरण- गंगा नदी का डेल्टा, राइन नदी का डेल्टा, नील नदी एवं ह्वांहो, सिंधु, मिकांग नदियों का डेल्टा।

पंजाकार डेल्टा- इस प्रकार का डेल्टा प्राकृतिक नदी तटबंधों के जलीय भाग में मनुष्य की उंगलियों के आकार में धारा की शाखाओं में बटने से निर्मित होता है। इनका आकार पक्षियों के पैरों के पंजों से मिलता है। उदाहरण- मिसिसिपी नदी का डेल्टा।

ज्वारनदमुख डेल्टा- नदी का जल मग्न मुहाना जहां सागर की लहरें निक्षेपित पदार्थों को बहाकर ले जाती हैं एश्चुअरी कहलाता है। ऐसे मुहानो में संकरे डेल्टा का निर्माण होता है।

उदाहरण- नर्मदा, मैकेंजी, हडसन, विस्चुला, ताप्ती, ओडर, एल्ब, सीन, ओब, साइन नदिया इसी प्रकार के डेल्टा हैं।

रूण्डित डेल्टा– सागरीय लहरों के द्वारा डेल्टा निरंतर कटता छटता रहता है। ऐसे कटे-फटे डेल्टा मग्नाकार या रूण्डित डेल्टा कहलाते हैं।

उदाहरण– रायोग्राण्डे का डेल्टा (संयुक्त राज्य अमेरिका) होंग नदी का डेल्टा (वियतनाम)

पालियुक्त डेल्टा- जब नदी की मुख्यधारा की अपेक्षा उसके मुहाने पर किसी वितरिका द्वारा अलग डेल्टा का निर्माण किया जाता है तब मुख्य डेल्टा को पालियुक्त डाटा कहते हैं। इसमें मुख्य डेल्टा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

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