स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांत ( Theory of landform development)

स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांत ( Theory of landform development)

परिचय –

स्थलरूप की उत्पत्ति से संबंधित विषय वस्तु भू-आकृतिक विज्ञान के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र बिंदु रहा है।
अनेक भू-आकृतिक विज्ञानियों ने स्थलाकृतिक विकास को मॉडलों के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है किंतु आज भी कोई भी मॉडल सर्वमान्य नहीं हो पाया है। स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांतों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।
1- समय निर्भर स्थल रूप संकल्पना – डेविस
2- time independent landform concept on dynamic equilibrium concept – स्ट्रॉलर
3- प्रक्रम रूप संकल्पना ( process from concept)
4- जलवायु भू-आकारिकी संकल्पना ( climatogenetic concept)
5- संरचना रूप संकल्पना ( structure from concept)
6- विवर्तनिकी संकल्पना ( tectonic concept)
हम जानते हैं कि स्थल आकृतियों अनंतर्जात बल तथा बहिर्जात बल का प्रतिफल होती हैं। स्कॉटिश भूगोलवेत्ता हटन ने माना “न आदि का कोई पता है और न अंत का कोई भविष्य” है। No vestige of the beginning, no prospect of an end”. कथन के माध्यम से भूविज्ञान में चक्रीय पद्धति की संकल्पना को जन्म दिया और इसी आधार पर उन्होंने एकरूपतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। आगे चलकर अमेरिकी विद्वान डेविस ने भौगोलिक अपरदन चक्र की संकल्पना के माध्यम से स्थलरूपों के विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया। पेंक ने भू-आकृति सिस्टम अथवा विश्लेषण के माध्यम से स्थल रूपों के उत्पत्ति को बताने का प्रयास किया।
स्थल रूपों के विकास को स्पष्ट करने के क्षेत्र में अग्रलिखित भूगोलवेत्ताओं ने सराहनीय प्रयास किया है।
1- शुष्क अपरदन चक्र की संकल्पना – डेविस ( 1905) ,बीटी ( 1911), स्वीजिक ( 1918), सैण्डर्स ( 1921)
2- क्रिकये का पैनप्लेनेशन
3- किंग का पेडिप्लेनशन चक्र
4- पुगं तथा थामस का सावाना अपरदन चक्र
5- गतिक संतुलन संकल्पना – स्ट्रॉलर, चोले,हेग।
6- मोरिसावा का भू – आकृतिकी विवर्तनिकी मॉडल
7- सूम एवं लिटी का खंड कालिक अपरदन मॉडल
ये मॉडल डेविस के मॉडल के परिमार्जित रूप हैं।

स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांत


डेविस का अपरदन चक्र


डेविस ने स्थल रूपों के विकास से संबंधित कई सामान सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इनका भू-आकृतिक सिद्धांत कई सिद्धांतों का समूह है।
1- सरिता का जीवन चक्र (1899)
2- शुष्क अपरदन चक्र ( 1903, 1905, 1930)
3- भौगोलिक चक्र ( 1899)
4- हिमानी अपरदन चक्र ( 1900,1906)
5- सागरी अपरदन चक्र ( 1912)
नोट – इन्होंने परहिमानी तथा कास्ट क्षेत्रों के निर्मित स्थलाकृतियों से संबंधित किसी स्थलाकृतिक विकास सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया है।

  • डेविस का भौगोलिक चक्र या अपरदन चक्र सिद्धांत वर्हिजनित भू – संचलन के सिद्धांत से पृथ्वी के सतह पर होने वाले परिवर्तन के संदर्भ में पावेल ने (18। ) आधार तल की संकल्पना का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार अपरदन क्रिया अधारतल तक होती है। अर्थात जब स्थलाकृतियां अधारतल ( मुख्यतः समुद्र जल स्तर) को प्राप्त कर लेती है तब अपरदन क्रिया समाप्त हो जाती हैं। पावेल की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए डेविस ने स्थलाकृतिक विकास से संबंधित अपने अपरदन चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया।
  • इनके अनुसार अपरदन चक्र समय कि वह अवधि जिसके अंतर्गत उतिथ भूखंड अपरदन की क्रिया द्वारा आधार तल को प्राप्त कर लेते हैं।
  • डेविस के अनुसार स्थलाकृतिया स्थलाकृतिक संरचना प्रक्रम तथा अवस्था के प्रतिफल होते हैं।इसे डेविस के त्रिकूट भी कहा जाता है। डार्विन के विकासवाद की संकल्पना से प्रभावित होकर इन्होंने स्थलाकृतियों के विकास की तुलना जैविक समुदाय/घटक से की। इनके अनुसार स्थलाकृतियों का भी एक अपना जीवन चक्र होता है। तथा इसके विकास यात्रा को भी जैविक घटकों के समान युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था में वर्गीकृत किया जा सकता है।

मान्यताएं

1- उत्थान अल्पकालिक व तीव्र गति से होता है।

2- युवावस्था में स्थितिज व गतिज ऊर्जा अत्यधिक होता है।

3- उत्थान की प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही अपरदन की प्रक्रिया होती है।

4- नदियां तब तक अपरदन करती हैं जब तक वह प्रमाणित ना हो जाए ( आधार ताल)

5- अल्पकालिक तीव्र उत्थान के बाद स्थलाकृति दीर्घकाल तक स्थिर रहती हैं।

सापेक्षिक ऊंचाई = ऊर्ध्वाधर अपरदन की ऊंचाई ( + -) = क्षैतिज अपरदन

तैयारी की अवस्था – इसे अपरदन चक्र की अवस्था में स्थान नहीं दिया जाता है। इस अवस्था मेंं स्थलाकृतिया अल्पकाल मेंं तीव्र गति से उठ जाती हैं।

मुख्य संरचना

  • डेविस का मॉडल एक समय नियंत्रित मॉडल है उनके अनुसार स्थल रूप संरचना प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल होता है।
  • इनके अनुसार अपरदन चक्र, समय कि वह अवधि है जिसके अंतर्गत एक उत्थित भूखंड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृति बिहीन समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता है।
  • इन्होंने अपनी भौगोलिक चक्र को तीन अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है।
  • डेविस के अनुसार उत्थान के प्रक्रिया के समाप्ति के बाद ही अपरदन का कार्य शुरू होता है।
  • डेविस ने इसे तैयारी की अवस्था कहा और अपने मॉडल में इसकी स्थापना नहीं किया।

1- युवावस्था ( youth stage)

  • अपरदन चक्र की युवावस्था में निक्षेप और सापेक्ष उच्चावच अधिक होते हैं।
  • इस अवस्था में कई विशिष्ट स्थलाकृतियों का जन्म होता है। V आकार की घाटी, जलप्रपात व क्षिप्रिका गार्ज और कैनियन
  • सर्वप्रथम दालों के अनुरूप अनुवर्ती नदियों का विकास/छोटी नदियां एवं सहायक नदियों की संख्या भी कम।
  • इस अवस्था में जल विभाजन की चौड़ाई काफी अधिक होती है।
  • शीर्षवर्ती अपरदन द्वारा सरिता अपहरण की घटना इस अवस्था की एक प्रमुख घटना है।
  • घाटी के गहरे होने की अवस्था भी इसे कहते हैं।
  • पादपाकार अपवाह प्रतिरूप का विकास।
  • बोझ कम होने के कारण ( परिवहन क्षमता के अनुरूप) नदी की बहाव गति तीव्र।
  • अपरदन सर्वाधिक किंतु कार्यक्रम
  • ढाल अधिक

2- प्रौढ़ावस्था ( Meture stage)

  • जब क्षैतिज अपरदन की दर ऊर्ध्वाधर अपरदन की दर से अधिक हो जाती है। वैसी स्थिति में स्थलाकृति अपनी विकास की प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करती हैं। चुकीं इस अवस्था में पार्श्विक अपरदन के द्वारा घाटी चौड़ी होती है इसलिए इसे घाटी के चौड़ा होने की अवस्था कहते हैं।
  • इस अवस्था में निरपेक्ष उच्चावच तथा सापेक्ष उच्चावच दोनों में तेजी से कमी आती है। पार्श्विक अपरदन के कारण जल विभाजक काफी सकरे हो जाते हैं। जल प्रपात तथा क्षिप्रिकाए ,V आकार की घाटी जैसी स्थलाकृतिया लुप्त हो जाती है।
  • जलोढ़ पंक, जलोढ़ शंकु, तटबंध आदि नई स्थलाकृतिया विकसित होती हैं।
  • सहायक नदियों की संख्या अत्यधिक।
  • जलोढ़ वर्षा एवं जलोढ़ शंकु की एक दूसरे से विस्तृत होकर मिलने गिरपदीय जालौर मैदानों का निर्माण।
  • मुख्य नदी के आधार तल को प्राप्त कर क्रमबद्ध हो जाने, साम्यावस्था की परिच्छेदिका का निर्माण
  • इस तरह नदी के अपरदन एवं निक्षेप कार्यों में संतुलन स्थापित होता है।
  • समुद्र भागों में बलखाती हुई प्रवाहित नदियों के द्वारा विसर्पो, गोखुर झील, एवं तटबंध का निर्माण।


वृद्धावस्था ( old stage)

  • जब ऊर्ध्वाधर अपरदन का दर स्थगन हो जाता है तो स्थलाकृति अपने विकास की वृद्धावस्था में पहुंच जाती है।
  • इस अवस्था में क्षैतिज अपरदन के साथ अवसादो के निक्षेपण के कारण निरपेक्ष तथा सापेक्ष उच्चावच में तीव्र गति से कमी आती है।
  • इस अवस्था में पार्श्विक अपरदन तथा घाटी के चौड़ा होने का कार्य जारी रहता है।
  • सहायक नदियों की संख्या प्रौढ़ावस्था से कम किंतु वृद्धावस्था से कम होती है।
  • सहायक नदियां आधार तल को प्राप्त कर लेती हैं।
  • इस अवस्था में निरपेक्ष तथा सापेक्ष उच्चावच दोनों न्यूनतम होते जाते हैं। जब स्थलाकृति अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है तब की स्थिति में आकृति बिहीन समतल मैदान का निर्माण होता है। जिसे डेविस ने पेनिप्लेन कहा। तथा पेनिप्लेन पर कठोर चट्टानों से निर्मित अवशिष्ठ स्थलाकृति को मोनाडनाक कहा।
  • इस अवस्था में विसर्प एवं गोखुर झील का विस्तार तथा डेल्टा आदि विशिष्ट आकृतियां विकसित होती हैं।
  • डेविस ने अपने भौगोलिक चक्र का वर्णन करते समय नदी प्रक्रम को महत्व दिया।


आलोचना

प्रासंगिकता

  • प्रलयवाद की संकल्पना ,एकरूपता वाद के सिद्धांत तथा गिल्बर्ट के भू-आकृति नियमों ने भू-विज्ञान के साथ-साथ भू-आकृति विज्ञान के विकास हेतु आधार का कार्य किया।
  • डेविस ने अपने अपरदन चक्र के माध्यम से उपरोक्त नियमों व संकल्पनाओं का उपयोग किया।
  • वर्तमान में स्थल रूप विकास का सिद्धांत के परिपेक्ष में जो भी अध्ययन हो रहा है। उसमें डेविस की अहम भूमिका रही।
  • डेविस के अपरदन चक्र के बिना स्थल रूप विकास सिद्धांत की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

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