भू – आकृति विज्ञान

भू – आकृति विज्ञान

पृथ्वी की उत्पत्ति

By Team Rudra on Sunday, March 28, 2021


आदिकाल से ही पृथ्वी अथवा सौरमंडल तथा ब्रम्हांड की उत्पत्ति के विषय में जानने की जिज्ञासा मानव की सोच विस्तार का केंद्रीय विषय वस्तु रहा शुरुआती दौर में पृथ्वी अथवा सौरमंडल की उत्पत्ति या आयुु संबंधी तथ्य पूर्णतया धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है।
जैसे-ईसाई धर्म के अनुसार ईश्वर ने पृथ्वी का निर्माण 4004 ईसा पूर्व को 4 बजकर 4 मिनट,4 सेकेंड के

पर रविवार के दिन किया था। जो कि वर्तमान में पूर्णतया असत्य है।धार्मिक संकल्पों के विपरीत तर्कों पर आधारित परिकल्पनाए वैज्ञानिक संकल्पनाए होती हैं।
सर्वप्रथम कास्तेबफन ने 1749 ई० वी० में पहली बार तर्कों के आधार पर पृथ्वी की उत्पत्ति की प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया। वर्तमान में पृथ्वी अथवा सौरमंडल के उत्पत्ति में अनेक परिकल्पनाओं एवं संकल्पनाओ का प्रतिपादन किया जा चुका है किसी को पूर्णरूपेण मान्यता नहीं प्राप्त है।
ग्रहों के उत्पत्ति में भाग लेने वाले तारों की संख्या के आधार पर वैज्ञानिक
संकल्पनाओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है।

  1. अद्वैतवादी संकल्पना
  2. द्वैतवादी संकल्पना

अद्वैतवादी संकल्पना:-
इसके अनुसार पृथ्वी सहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति एक तारे से जुड़े हैं इसलिए इसे पेरेंटल हैपोथेसिस भी कहते हैं।कास्तेदबफन , कांट, लाप्लास, रॉस, लकियर इसी संकल्पना से संबंधित है।
दैतवादी संकल्पना :-
इसके अनुसार पृथ्वी सहित सभी तारों का निर्माण एक से अधिक तारों के द्वारा हुआ है।
इससे संबंधित प्रमुख संकल्पनाएं:-
1 चैम्बरलीन एवं मॉल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना
2.जेम्स जींस एवं जैफ्रिज की ज्वारीय परिकल्पना

  1. रसेल की द्वेतारक परिकल्पना
  2. पायल एवं लीट लीटन का सुपरनोवा परिकल्पना
  3. ऑटोस्मिट का अंतर तारक धूल परिकल्पना
  4. अल्फ़वेंन का अंतर तारक मेघा विद्युत चुंबकीय परिकल्पना
  5. रासजन का परिभ्रमण एवं ज्वारी परिकल्पना
  6. E.M ड्रोबीस्वेस्की की दशपती सूर्य द्वैतारक परिकल्पना
  7. A.C. बनर्जी की C फीड परिकल्पना
  8. वान वाइज सैकर की निहारिका मेघ परिकल्पना
  9. क्युपर की आदिम ग्रह परिकल्पना
  10. जॉर्ज लिमेंत्रे का महाद्वीपीय विस्फोट सिद्धांत

 अंततारक धूल परिकल्पना

     (Inter-Steller Dust Theory) 

  • रूसी वैज्ञानिक 1943 में रूसी वैज्ञानिक ऑटो श्मिड ने दिया था।
  • इस परिकल्पना में ग्रहों की उत्पत्ति गैस व धूलकणों से मानी गई है। 

   सिद्धांत

  • उनके अनुसार जब सूर्य आकाशगंगा के करीब से गुजर रहा था तो उसने अपनी आकर्षण शक्ति से कुछ गैस मेघ तथा धूलकणों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया जो सामूहिक रूप से सूर्य की परिक्रमा करने लगे। इन्हीं धूलकणों के संगठित व घनीभूत होने से पृथ्वी व अन्य ग्रहों का निर्माण हुआ। यह परिकल्पना सूर्य और ग्रहों के बीच कोणीय संवेग, विभिन्न ग्रहों की संरचना में अंतर, ग्रहों की गति में अंतर, सूर्य व ग्रहों की वर्तमान दूरी आदि सभी की वैज्ञानिक व्याख्या करने में समर्थ है।
  •  इसमें कोणीय संवेग के वितरण में असमानता को स्पष्ट करते हुए ग्रहों व सूर्य की रासायनिक रचना की भिन्नता को उत्तरदायी बतलाया गया । 
  • ग्रहों व उपग्रहों का निर्माण सूर्य से न होकर गैस व धूल के बादल से माना है ।
  •  सूर्य के निकट भारी पदार्थ वाले ग्रह स्थित हैं तथा दूर हल्के पदार्थ से निर्मित ग्रह हैं । 

   आलोचना

  • यह सिद्धान्त यह बताने में असमर्थ रहा कि सूर्य ने गैस व धूल के कणों को आकर्षित कैसे किया।
  •  गैस तथा धूल का बादल सूर्य की तरफ किस प्रकार आकर्षित हो गया जबकि आकाशीय नक्षत्रों में काफी दूरियां रहती हैं । 
  • यदि गैस तथा धूल के कण बिखरे हुए थे , तो सूर्य ने कैसे अपहरण कर लिया ? 
  • गैस तथा धूल का बादल किस प्रकार अन्तरिक्ष में आया ? इसका कोई उल्लेख नहीं है । 
  •  इस परिकल्पना में ग्रहों की प्रारम्भिक अवस्था शीतल एवं ठोस मानी गई है , जिससे अधिकांश भू – गर्भ वैज्ञानिक सहमत नहीं हैं ।

चैम्बरलीन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना

इन्होंने अपनी ग्रहाणु परिकल्पना के माध्यम से सौरमंडल की उत्पत्ति , वायुमंडल का संगठन, उष्मा की उत्पत्ति तथा महाद्वीप एवं महासागर की रचना की उत्पत्ति के विषय में बताने का प्रयास किया।
चैंम्बरलीन के अनुसार ब्रह्मांड में दो विशाल तारे थे एक सूर्य तथा दूसरा उसका साथी विशाल तारा था। प्रारंभ में सूर्य ठोस कणों से निर्मित एक शीतल पिंड था। उनके अनुसार जब सहायक तारा सूर्य के पास से होकर गुजरा तो उसके आकर्षण बल के कारण सूर्य की सतह से असंख्य छोटे-छोटे कण बाहर आकर अलग हो गए। जिन्हें ग्रहाणु कहा गया।
यह तारा जब सूर्य से दूर चला गया तो सूर्य से निकले हुए यह पदार्थ सूर्य के चारों तरफ घूमने लगे तथा यही धीरे-धीरे संघनित होकर ग्रहों के रूप में परिवर्तित हो गए। इस प्रकार ग्रहों का निर्माण दो विशाल तारों सूर्य एवं उसके साथी विशाल तारे से हुआ।

कांट की वायव्य राशि परिकल्पना (1755)


आधार – न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम
मान्यताएं- ब्रह्मांड में दैव निर्मित आद्य पदार्थों की बिखरी हुई अवस्था में पूर्व उपस्थिति।
• प्रारंभ में यह अत्यंत कठोर, शीतल, गतिहिन थे।
सौरमंडल के निर्माण की प्रक्रिया- आपसी आकर्षण के कारण कण आपस में टकराने लगे जिससे ताप में निरंतर वृद्धि हुई तथा वह वायव्य राशि में परिवर्तित हुई। निरंतर ताप में भ्रमण तथा गति में वृद्धि के कारण वायव्य राशि निहारिका में परिवर्तित हो गई। जमकर ठोस हो गए और इस तरह नौ ग्रहों का निर्माण हुआ।
मौलिक निहारिका का जो भाग बचा रह गया वह तारों में परिवर्तित हो गए।
उपग्रहों का निर्माण भी उपरोक्त प्रक्रिया की पुनरावृति के द्वारा हुआ।
आलोचना-
1- टकराव का भ्रमण गति से कोई संबंध नहीं है क्योंकि कोणीय आवेग की स्थिरता के सिद्धांत के अनुसार न हीं टकराव से गति उत्पन्न हो सकती है और न ही किसी पिंड के आकार में वृद्धि होने से उसकी गति में कमी आती है।

लाप्लास की निहारिका का परिकल्पना

परिचय : इनकी निहारिका परिकल्पना कांट की वायव्य राशि परिकल्पना का संशोधित स्वरुप है।
मान्यताएं –
• विशाल ज्ञात निहारिका की पहले से ही विद्यमान या उपस्थिति।
• यह पहले से ही गतिशील थी।
• निहारिका निरंतर शीतल होकर गुजरती गई।
वर्णन : उपर्युक्त मान्यताओं के आधार पर इनके अनुसार निहारिका के आयतन में कमी के कारण निहारिका के गति में निरंतर वृद्धि होने लगी।
घूर्णन गति में वृद्धि से अपकेंद्रीय बल में वृद्धि हुई जब अपकेंद्रीय बल गुरुत्वाकर्षण बल से अधिक हो गया तब निहारिका से एक छल्ला अलग हो गया और वह छल्ला कई भागों में खंडित हो गया।
यह छल्ला ही ठंडा होकर ग्रह एवं उपग्रह बन गए निहारिका का शेष भाग हमारा सूर्य है।
कालांतर में फ्रांसीसी विद्वान राशि ने इनकी परिकल्पना में संशोधन किया तथा बताया कि निहारिका से कई पतली छल्ले अलग हुए यह प्रत्येक छल्ले घनीभूत होकर ग्रह बन गए।

जेंम्स जींस की ज्वारीय परिकल्पना

इस परिकल्पना का प्रतिपादन जेम्स जींस (1919) ने किया 1929 में जेफरीज ने संशोधन के द्वारा इसे और प्रासंगिक बनाने का प्रयास किया ।
मान्यताएं-

  1. सौरमंडल का निर्माण सूर्य एवं अन्य साथी तारे से।
  2. सूर्य अपनी जगह पर स्थिर व घूम रहा था।
  3. पथ के सामने घूम रहा साथी तारा सूर्य के निकट आ रहा था।
  4. साथी तारा सूर्य से आकार व आयतन में काफी बड़ा था।
    संकल्पना के मुख्य भाग का वर्णन – निकट आ रहे साथी तारे के आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य की सतह पर ज्वार उत्पन्न होने लगा जब तारा सूर्य के निकटतम दूरी पर आ गया तो इसकी आकर्षण शक्ति सूर्य से अधिक होने के कारण हजारों किलोमीटर लंबा सिगार के आकार का ज्वार सूर्य के बाह्य भाग से उठा।
    शिगार के आकार वाले इस भाग को फिलामेंट कहा गया साथी तारे के सूर्य के अत्यधिक निकटतम दूरी पर पहुंचने से उत्पन्न अधिकतम आकर्षण शक्ति के कारण विशाल फिलामेंट सूर्य से अलग होकर साथी तारे के तरफ अग्रसरित हुआ।
    चुकी साथी तारा सूर्य के मार्ग पर नहीं था यही कारण है कि फिलामेंट तारे के साथ न जा सका। और वह सूर्य के चारों तरफ परिक्रमा करने लगा। फिलामेंट का सूर्य के पास पुन: न आने का कारण फिलामेंट का सूर्य की आकर्षण क्षेत्र से बाहर होना था।
    साथी तारे के बहुत दूर चले जाने के कारण पुनः कोई भी फिलामेंट सूर्य से अलग नहीं हुआ।
    फिलामेंट सिगार के आकार में मध्य में मोटा तथा किनारे पर पतला था किनारे पर फिलामेंट के पतला होने का कारण सूर्य की आकर्षण शक्ति को बताया जाता है।
    फिलामेंट में गति का प्रभाव दूर होते हुए तारों के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के खींचाव के द्वारा हुआ।
    ग्रहों एवं उपग्रहों की उत्पत्ति – फिलामेंट के शीतल व संकुचन होने से वह कई टुकड़ों में टूट गया तथा घनीभूत होकर ग्रहो में बदल गया।इसी प्रकार सूर्य के आकर्षण शक्ति के कारण ग्रहों में ज्वार उत्पन्न होने से अलग हुए कई कुछ पदार्थ घनीभूत होकर उपग्रह बन गए।यह प्रक्रिया तब तक चलती रही जब तक ज्वारीय पदार्थों की केंद्रीय आकर्षण शक्ति उन्हें संगठित रखने में समर्थ न हो गई।
    ग्रहों एवं उपग्रहों का क्रम व प्रकार – फिलामेंट का मध्य भाग चौड़ा तथा किनारे का भाग पतला होने के कारण मध्य में बड़े ग्रह तथा किनारे पर छोटे ग्रह बने । यही स्थिति उपग्रहों की भी है इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि ग्रह और उपग्रह की रचना प्रणाली एक जैसी है।

आधुनिक सिद्धांत

ब्रह्मांड की उत्पत्ति – आधुनिक समय में ब्रह्मांड की उत्पत्ति से संबंधितक्सर्वमान्य सिद्धांत बिग बैंग सिद्धांत है इसे विस्तृत ब्रह्मांड की परिकल्पना भी कहते हैं।
1920 ईस्वी में एडमिड हंबल ने प्रमाण दिए कि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है और समय बीतने के साथ आकाश गंगा एक दूसरे से दूर हो रही हैं।
हम प्रयोग कर जान सकते हैं कि ब्रह्मांड के विस्तार का अर्थ क्या है – एक गुब्बारा ले और उस पर कुछ निशान लगाएं और उस निशान को आकाश गंगा मान ले अब गुब्बारे को फुल आएंगे तो गुब्बारे पर लगे निशान आपस में दूर जाते दिखेंगे इसी प्रकार आकाशगंगा की दूरी बढ़ रही है। वैज्ञानिक मानते हैं कि आकाशगंगा के बीच की दूरी बढ़ रही है परंतु प्रेक्षण अकाश गंगा के विस्तार को सिद्ध नहीं करते अतः गुब्बारे का उदाहरण आंशिक रूप से ही मान्य है।
निम्न अवस्थाएं
आरंभ में वे सभी पदार्थ जिन से ब्रह्मांड बना है अति छोटे गोलक के रूप में एक ही स्थान पर स्थित है। अति छोटे गोला के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। जिसका आयतन अत्यधिक सूचना एवं तापमान तथा घनत्व अनंत था।
बिग बैंग प्रक्रिया से इस अति छोटे गोलक मैं भीषण विस्फोट हुआ और इस विस्फोट से ही बृहद विस्तार हुआ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि बिग बैंक की घटना आज से 13.7 और वर्ष पहले हुई और ब्रह्मांड का विस्तार आज भी जारी है।
विस्तार के कारण कुछ ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित हो गई।
बिग बैंग से 300000 वर्षों के दौरान तापमान 45000 डिग्री केल्विन तक गिर गया और परमाणु भी पदार्थ का निर्माण हुआ।
हायल ने इसका विकल्प स्थिर अवस्था संकल्पना के नाम से प्रस्तुत किया।
तारों का निर्माण – प्रारंभिक ब्रह्मांड में उर्जा व पदार्थ का वितरण सामान नहीं था।घनत्व में आरंभिक भिन्नता से गुरुत्वाकर्षण बलों में भिन्नता आई इसी कारण पदार्थ एकत्र हुए यही एकत्रण आकाशगंगा के विस्तार का आधार बना।
एक आकाशगंगा असंख्य तारों का समूह है।
इसका विस्तार इतना अधिक होता है कि इसकी दूरी हजारों प्रकाश वर्ष में मापी जाती है।
एक आकाशगंगा का निर्माण की शुरुआत हाइड्रोजन गैस से बने विशाल बादल के संचयन से होता है जिसे निहारिका कहा गया।
इस बढ़ती हुई निहारिका में गैस के झुंड विकसित हुए यह झुंड बढ़ते बढ़ते घने गैसीय पिंड बने जिससे तारों का निर्माण आरंभ हुआ।

भूकंप

By Team Rudra on Friday, April 2, 2021

भूकंप- भूपटल पर परिवर्तन लाने वाली शक्तियों में भूकंप एक महत्वपूर्ण घटना है। यह अंतर्जनित भू संचलन से उत्पन्न एक आकस्मिक घटना है। इसके द्वारा पृथ्वी की सतह पर तीव्र गति से कंपन होता है। अंतर्जनित बलों के द्वारा पृथ्वी के आंतरिक भागों में उर्जा उत्पन्न होती है यही उर्जा तरंगों के रूप में पृथ्वी की सतह की ओर भ्रमण करती है। भूकंपो की उत्पत्ति अर्थात तरंगों की उत्पत्ति का स्रोत ही भूकंप मूल अथवा अवकेंद्र (hypocenter) होता है। भूकंप मूल से उत्पन्न भूकंपीय तरंगों के द्वारा सर्वप्रथम पृथ्वी की सतह पर जहां पर कंपन होता है उसे अधिकेंद्र कहते हैं। आधिकेंद्र पर ही सबसे पहले तरंगों को महसूस किया जाता है। भूकंप मूल से उठने वाली भूकंपीय लहरें सर्वप्रथम अपने अधिकेंद्र पर पहुंचती हैं तथा वहां पर सिस्मोग्राफ द्वारा अंकन कर लिया जाता है। भूकंपीय लहरों को इनकी गति व तीव्रता के आधार पर कई वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है-
1- भूगर्भिक तरंगे
(I) P तरंग
(ii) S तरंग
2- धरातलीय तरंगे- L तरंगे
P तरंगे- इन्हें प्राथमिक, अनुदैर्ध्य, संपीड़न आदि उपनाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम यही तरंगे आधिकेंद्र तक पहुंचती हैं इसलिए इन्हें प्राथमिक या प्रधान तरंग भी कहते हैं।
वेग सर्वाधिक/ तरंग दैर्ध्य कम होने के कारण ये तरंगे विनाशकारी नहीं होती है। ये अवतल आकार के मार्ग का अनुसरण करती है। चुकी यह तरंगे सबसे पहले सतह पर पहुंचती हैं अतः भूकंप की जानकारी के संदर्भ में ये प्राथमिक संकेतक का कार्य करती हैं। Pg तथा P* इसके अन्य उपप्रकार हैं। ये सभी माध्यमों से गुजरती हैं।
S तरंगे- इसे द्वितीयक, गौण अथवा अनुप्रस्थ लहरों के नाम से पुकारा जाता है। ये तरंगे जलतरंग अथवा प्रकाश तरंग के समान होती हैं। अनुप्रस्थ तरंग की गति लहरों की गति के समरूप होने के कारण इसे आड़ि/अनुप्रस्थ तरंग भी कहते हैं। इनकी गति P तरंग से कम तथा S से अधिक होती है। चुकी ये तरंगे P के बाद प्रकट होती हैं इसलिए इसे द्वितीयक लहर कहते हैं। यह विध्वंसक होती हैं किंतु L के समान होती हैं। ये तरंगे केवल ठोस पदार्थ से होकर गुजरती है। धरातल तक S तरंगों के पहुंचने का मार्ग अवतल होता है। Sg तथा S* इसके अन्य उप प्रकार हैं।
L तरंगे- चुकी ये तरंगे धरातलीय भाग पर ही भ्रमण करती हैं तथा अधिक गहराई पर जाने पर लुप्त हो जाती हैं अतः इसे सतही ही तरंगे कहते हैं। ये तरंगे जल से भी होकर गुजर सकती हैं। चुकी ये तरंगे लंबी यात्रा करती हैं। इसलिए ये लंबी अवधि वाली होती हैं। इनकी गति सबसे कम होती है परंतु सर्वाधिक कंपन इन्ही से होता है। L तरंगों द्वारा आड़े, तिरछे धक्का देने के कारण यह सर्वाधिक विनाशकारी होती हैं। इनका भ्रमण पथ उत्तल होता है।
NOTE- 1909 यूगोस्लाविया के घाटी में आए भूकंप के अध्ययन के समय Pg तथा Sg तरंगों का पता चला। यह तरंगे प्रमुखत: पृथ्वी की ऊपरी परतो से होकर भ्रमण करती हैं। Pg की गति लगभग 5.4 तथा Sg की गति 3.3 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है। कोनराड महोदय ने 1923 में P* नामक एक अन्य भूकंपीय लहर का पता लगाया जो पृथ्वी के मध्यवर्ती परत में 6-7.2 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से भ्रमण करती है। जेफरीज ने S* पृथ्वी के मध्यवर्ती भारत से होकर गुजरने वाली S* तरंग का पता लगाया। इसकी गति 3.5-4 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है। इस प्रकार P, S लहर युग्मे P-S>P*-S*>Pg-Sg।
उल्लेखनीय है कि P द्वारा निर्मित भूकंप छाया क्षेत्र S की तुलना में कम होता है। इसका मुख्य कारण S तरंग का तरल माध्यमों से गुजरने में असमर्थ होना है।
भूकंप के कारण-
• ज्वालामुखी क्रिया
• भूपटल भ्रंश
• H.F हिल्ड प्रत्यास्थ पुनर्चलन सिद्धांत
• भू संतुलनअव्यवस्था
• जलीय भार
• भूपटल में सिकुड़न
• गैसों का फैलाव
• प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत
• नाभिकीय विस्फोट का परीक्षण
• भूस्खलन व हिमस्खलन
भूकंप के प्रकार
1- प्राकृतिक
A- भूकंप मूल की अवस्थिति
B- भूकंप की उत्पत्ति के कारण
2- मानवकृत
A- जलाशय
B- परमाणु
• छिछले उद्गम केंद्र वाले भूकंप
• मध्यम उद्गार केंद्र वाले भूकंप
• गहरे उद्गम केंद्र वाले भूकंप।
भूकंप मूल की अवस्थिति के आधार पर भूकंप को 3 वर्गों में रखा जाता है। सतह से 70 किलोमीटर की गहराई तक के भूकंप मूल के द्वारा छिछले उद्गम केंद्र के भूकंप आते हैं जिसकी तीव्रता सर्वाधिक होती है जबकि 70- 300 तक के भूकंप मूल के द्वारा मध्यम उद्गम केंद्र के भूकंप तथा 300-700 कि भूकंप मूल के द्वारा गहरे भूकंप आते हैं। गहरे उद्गम केंद्र वाले भूकंप की तीव्रता सबसे कम होती है। यद्यपि अंतर्जात बल की उत्पत्ति मेंटल में गहराई तक होती है लेकिन 700 किलोमीटर गहराई तक उत्पन्न होने वाले भूकंप रूपी कंपन होते हैं।
भूकंप की उत्पत्ति के आधार पर
• विवर्तनिकी भूकंप- 0-50 किलोमीटर
• ज्वालामुखी भूकंप- 50-250 किलोमीटर
• पातालीय भूकंप- 250-500 किलोमीटर।
• समस्थैतिक जनित भूकंप
भूकंप की उत्पत्ति के आधार पर भी भूकंप को विभिन्न वर्गों में रखा जाता है। पृथ्वी की ऊपरी परत अर्थात क्रस्ट में तनाव मूलक बल या अत्यधिक संपीडन बल के द्वारा चट्टानों के टूटने पर भ्रशन की क्रिया से विवर्तनिकी भूकंप की उत्पत्ति होती है जबकि लगभग 50-250 किलोमीटर की गहराई तक मैग्मा की उत्पत्ति के द्वारा होने वाले ज्वालामुखी प्रक्रिया से ज्वालामुखी भूकंप की उत्पत्ति होती है। इस प्रक्रिया में मैग्मा जब ठोस परतो को तोड़ते हुए सतह पर आते हैं तब भूकंप रूपी कंपन होते हैं। 250 किलोमीटर से अधिक गहराई में उत्पन्न होने वाले बल के द्वारा सतह पर पातालीय भूकंप आते हैं जिसकी उत्पत्ति के बारे में अभी तक स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। जब कभी भी स्थलाकृति बाह्य कारकों के प्रभाव से असंतुलित होती है तब वे संतुलन की दशा को प्राप्त करने के लिए समस्थैतिक संचलन करते हैं जिसके द्वारा समस्थैतिक जनित भूकंप की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार भूकंप की उत्पत्ति का संबंध अंतर्जनित बल से नहीं बल्कि अंतर्जनित एवं बहिर्जनित बल के सम्मिलित प्रभाव से होती है।
भूकंप का विश्व वितरण- भूकंप भूमंडल की एक प्रमुख घटना है तथा इसका वितरण अत्यधिक विस्तृत है तथापि भूकंप के मानचित्र को देखने से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान समय में भूकंप क्षेत्रों एवं प्लेट सीमाओं में गहरा संबंध बताया गया है तथा अधिकांश भूकंप इन्हीं प्लेटो के किनारों के सहारे आते हैं। इन्हीं प्लेटों के सहारो के आधार पर ही भूकंप क्षेत्रों को तीन प्रमुख पेटियों में बांटा गया है।
1- प्रशांत महासागरीय तटीय पेटी- इसमें प्रशांत महासागरीय तटीय पेटी सबसे अधिक भूकंप से प्रभावित पेटी है । और इसके अंतर्गत समस्त ग्लोब की 63% भूकंप आते हैं। उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के सहारे पश्चिमी तटीय किनारे पर उत्तर में अलास्का से लेकर चिली तक तथा एशिया के पूर्वी तट के सहारे कमचटका से लेकर क्युराइल द्वीप, जापान द्वीप को सम्मिलित करते हुए न्यूजीलैंड तक जाती है। इसमें जापान सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र है तथा इसी में प्रशांत महासागर में बिखरे अनेक द्वीपों पर आने वाले भूकंप को भी सम्मिलित किया जाता है।
2- मध्य महाद्वीपीय पेटी- इस पेटी में आने वाले भूकंप में संतुलन मूलक भ्रंश मूल को भूकंप का अंकन किया जाता है। इस पेटी को भूमध्यसागरीय पेटी भी कहते हैं।
भारत का भूकंप क्षेत्र इसी पेटी से संबंधित है।
3- मध्य अटलांटिक पेटी- यह पेटी मध्य अटलांटिक के सहारे उत्तर में आइसलैंड से लेकर दक्षिण में बोबैट के क्षेत्र तक फैली है।
अन्य क्षेत्र– अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में स्थित भ्रंश घाटी।

चट्टान (Rocks)

By Team Rudra on Friday, April 2, 2021

चट्टान (Rocks)- चट्टान बालुका पत्थर एवं ग्रेनाइट की तरह कठोर, चीका एवं रेत की तरह मुलायम खड़िया मिट्टी एवं चूना का पत्थर की भांति प्रवेश्य अथवा शैल एवं स्लेट के सदृश अप्रवेश्य हो सकती है।
क्रस्ट में अधिकता से मिलने वाले तत्व क्रमशः- ऑक्सीजन>सिलिकॉन>एल्युमिनियम एवं लोहा
पपड़ी की शैलों की रचना- 6 खनिज- फेल्सफार, क्वार्टज, पायरोक्सीस, एम्फीवोल्स एवं माइका।
चट्टानों का वर्गीकरण-
• रवेदार- आग्नेय, रूपांतरित शैल
• ढेर युक्त- अवसादी शैल
आग्नेय शैल ( ognius rock)– कठोर, अप्रवेश्य, रवेदार, दानेदार, परत का अभाव पानी के प्रवेश नहीं कर पाने के कारण रासायनिक अपक्षय सीमित तथा भौतिक अपक्षय अधिक मात्रा में जीवावशेष का अभाव, ऊपरी भाग में संधियों की अधिकता एवं इसका संबंध ज्वालामुखी क्रिया से होता है।
चट्टानों का वर्गीकरण-
• उत्पत्ति की प्रक्रिया के आधार पर-
1-अंत: र्निर्मित
(I) पतालीय
(ii) मध्यवर्ती

(a) धरातल की सतह के नीचे

2- वाह्य निर्मित
वैथोलिय- लंबे, असमान उभरे गुंबद के आकार जिसके किनारे खड़े ढाल वाले तथा आधार तल अधिक गहरायी। अपरदन होने पर भी इनका आधार तल नहीं दिखाई पड़ सकता है।
फैकोलिथ- अपनतियो एवं अभिनतियो मैं मैग्मा के जमाव से निर्मित स्थलाकृति को फैकोलिय कहते हैं।
लोपोलिथ- अवतल आकार वाली छिछली बेसीनो में मैग्मा के जमाव से तश्तरी के आकार की स्थलाकृति। ट्रांशवाल का लोपोलिथ ।
सिल एवं डाइक- परत के रूप में अवसादी एवं रूपांतरित शैल के बीच में मैग्मा का जमाव तथा इसके विपरीत डाइक लंब रूप में पाया जाता है।
लैकोलिथ- उत्तल ढाल के रूप में परतदार चट्टान के बीच में गुंबादाकार रूप में निचली एवं उत्तल रूप में उठी हुई पर्वतों के बीच में लावा का जमाव होने से निर्मित स्थलाकृति।
बाह्य आग्नेय शैल-
1- विस्फोटक उद्गार वाले- बड़े-बड़े आकार वाले टुकड़े बम, उनसे छोटे भाग लैपिली, बहुत महीन कण, धूल मिश्रित कण, व्रेसिया कहलाते हैं।
2- शांत उद्गार वाले- दरारी उद्गार वाले- लावा प्रवाह
रासायनिक संरचना के आधार पर
1- अम्ल प्रधान शैल- ग्रेनाइट, फेल्सफार↑, क्वार्ट्ज↑
2- बेसिक शैल- बेसाल्ट, ग्रैबो, डोलोराइट- मैग्नीशियम एवं लोहा↑
3- मध्यवर्ती आग्नेय शैल- डायोराइट एवं एण्डेसाइट
4- अल्ट्राबेसिक शैल- पेरिडोराइट
कणों के आधार पर शैलो का वर्गीकरण-
1- फैनेरैटिक – बड़े कणों के आकार वाली
2- पेगमैटिटिक – बहुत बड़े कणो वाली
3- अफैनटिक – बारीक कणो वाली
4- ग्लासी- कणहीन
5- पोरफाइटिक- मिश्रित कणो वाली
अवसादी शैल-

विशेषता –

  • जीवावशेष भूपृष्ठ पर
  • सर्वाधिक मात्रा में,
  • परते परंतु रवेदार संगठित,
  • असंगठित एवं ढीली भी,
  • क्षैतिज रूप में बहुत कम,
  • संधियों एवं जोड़ों का पाया जाना,
  • दो संस्तरो के बीच संस्तरण तल पाया जाता है।
  • दो समान क्षैतिज परत के बीच के संस्तरण तल को conformity कोणिय झुकाव वाले unconformity इनके विपरीत दो समानांतर लेकिन विपरीत स्वभाव वाले संस्तरण तल को disconformity ( अपसमविन्यास) कहते हैं।
  • सूर्य की किरणों से दरारों का पडना,
  • शैल प्रायः मुलायम होती है।
  • धरातल का 75 % भाग अवसादी चट्टानों से ढका हुआ है एवं शेष 25 % भाग आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों से आवृत्त है ।
  • यद्यपि अवसादी चट्टानें धरातल का अधिकांश भाग आवृत्त किये हुए हैं , फिर भी भू पटल के निर्माण में इनका योगदान 5 % ही है , शेष 95 % भाग आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों से निर्मित है । इस प्रकार परतदार चट्टानों का महत्त्व क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से है , भू – पृष्ठ में गहराई की दृष्टि से नहीं ।
  • ये चट्टानें रवेदार नहीं होती हैं ।
  • ये चट्टानें क्षैतिज रूप में बहुत कम पाई जाती हैं । पार्श्ववर्ती दबाव के कारण परतों में मोड़ पड़ जाता है अतएव ये चट्टानें सामूहिक रूप से अपनति एवं अभिनति के रूप में पायी जाती हैं ।
  • इन चट्टानों में जोड़ ( Joints ) पाये जाते हैं ।
  • ये चट्टानें प्रायः मुलायम होती हैं ( जैसे- चीका मिट्टी , पंक आदि ) , परन्तु ये कड़ी भी हो सकती हैं ( जैसे- बलुआ पत्थर ) ।
  • ये शैलें अधिकांशतः प्रवेश्य ( Porous ) होती हैं , परंतु चीका मिट्टी जैसी परतदार चट्टानें अप्रवेश्य भी हो सकती हैं ।
  • इनका निर्माण अधिकांशत : जल में होता है । परंतु लोएस जैसी परतदार चट्टानों का निर्माण पवन द्वारा जल के बाहर भी होता है । बोल्डर क्ले ( Boulder Clay ) या टिल ( Till ) हिमानी द्वारा निक्षेपित परतदार चट्टानों के उदाहरण हैं , जिसमें विभिन्न आकार के चट्टानी टुकड़े मौजूद रहते हैं ।
  • उत्पत्ति एवं संघटन ( Origin And Composition ) के आधार पर परतदार चट्टानों को तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : ( i ) यांत्रिक क्रियाओं द्वारा निर्मित अथवा चट्टानों के विखंडित पदार्थों से निर्मित ( Mechanically Formed or Clastic Rock )
  • ( a ) पवन द्वारा निर्मित जैसे- लोएस ।
  • ( b ) हिमानी द्वारा निर्मित जैसे- बोल्डर , मले ।
  • ( c ) जल द्वारा निर्मित , जैसे- बलुआ पत्थर ( Sand Stone ) , गोलाश्म ( Conglomerate ) , चीका मिट्टी ( Clay ) , शेल ( Shale ) आदि । सिल्ट एवं क्ले के संगठित होने से शेल का निर्माण होता है ।
  • ( ii ) जैविक तत्त्वों द्वारा निर्मित ( Orgnanically Formed or non Clastic Rock )
  • ( a ) जीव जन्तुओं द्वारा निर्मित , जैसे- चूना पत्थर ( Lime Stone ) , खड़िया ( Chalk ) ।
  • ( b ) पेड़ पौधों द्वारा निर्मित , जैसे- पीट ( Peat ) , कोयला , लिग्नाइट । ( iii ) रासायनिक तत्त्वों द्वारा निर्मित ( Chemically Formed ) जैसे डोलोमाइट ( Dolomite ) , सेंधा नमक ( Rock Salt ) , जिप्सम , चूना पत्थर ( Limestone ) आदि । auhic Rocks )


रूपांतरित चट्टान (metomorphic rocks)- परत एवं अवसादी शैल में रूप परिवर्तन होने से निर्मित शैल। रूपांतरण के दौरान चट्टानों के रूप एवं संगठन में परिवर्तन लेकिन विघटन एवं वियोजन नहीं होता है। कभी-कभी रूपांतरित शैल का भी रूपांतरण हो जाता है। प्रायः जीवाशेष का अभाव पाया जाता है।
रूपांतरण के कारक- उष्मा, संपीडन, घोल- H2O+CO2 या H2O+O2
रूपांतरण के प्रकार-
1- तापीय एवं संस्पर्शीय रूपांतरण- चट्टान विशेष एवं मैग्मा के संपर्क के कारण संस्पर्शीय एवं ताप के योग के कारण तापीय चूना पत्थर- संगमरमर
2- गतिक एवं क्षेत्रीय रूपांतरण- एक विस्तृत क्षेत्र में घटित होने के कारण प्रादेशिक रूपांतरण। इसमें संपीडन एवं ताप दोनों का हाथ रहता है। वलित पर्वतीय क्षेत्रों में संपीड़न के कारण चट्टानों के गहराई में जाने के कारण ताप के कारण रूपांतरण गति होने के कारण गतिक रूपांतरण।
3- जलीय रूपांतरण- जल के रासायनिक पदार्थों के मिलने से घोल के द्वारा भार एवं दबाव के कारण चट्टानों में रूपांतरण। क्षेत्र सीमित एवं पहचान में नहीं आता है।
4- तापीय एवं जलीय रूपांतरण- जब चट्टान के ऊपर गर्म जल होता है तो जल भार एवं दबाव तथा जल की वाष्प से चट्टानों में परिवर्तन होता है (नगण्य मात्र)
रूपांतरित शैलों का वर्गीकरण-
अवसादी शैलों का रूपांतरण
• शैल एवं चीका- स्लेट चूना का पत्थर-संगमरमर
• बालुका पत्थर- क्वार्टजाइट
• आग्नेय- से रूपांतरण
• ग्रेनाइट- नीस, ग्रेबो- सरपेन्टाइल
जब रुपांतरित शैलों में कण कुछ कुछ परत के रूप में समानांतर रूप में पाया जाता है तो इस प्रकार की बनावट को फीलियशन कहते हैं। इसी आधार पर चट्टानों को दो वर्गों में वर्गीकृत कर सकते हैं-
पत्रीकृत- स्लेट, सिस्ट, नीस

अपत्रीकृत- क्वार्टजाइट, संगमरमर, सरपेन्सइन।
संगमरमर- डोलोमाइट, तथा खरिया- संगमरमर
इटली के कारा प्रदेश का संगमरमर, राजस्थान के मकराना का संगमरमर, नर्मदा नदी घाटी के भेड़ाघाट जार्ज का संगमरमर, बहुरंगी संगमरमर, चट्टानों के एक निश्चित दिशा में टूटने का गुण क्लीवेज कहलाता है।
महीन कणों वाली परतदार शैल- सिस्ट

ज्वालामुखी ( volcano)

By Team Rudra on Thursday, April 1, 2021

ज्वालामुखीयता की संकल्पना – पृथ्वी पर अन्तर्जनित अकास्मिक भू संचलन के अंतर्गत ज्वालामुखी प्रक्रिया का संबंध पृथ्वी के आंतरिक भागो में मैग्मा की उत्पत्ति से लेकर उनके आंतरिक परतो से होते हुए पृथ्वी की सतह पर मैग्मा का ज्वालामुखी के रूप में उदगार होने से होता है। पृथ्वी के आंतरिक भागों में बना मैग्मा जब सतह पर प्रकट होता है तो उसे लावा कहते हैं। ज्वालामुखी प्रक्रिया के समय कई प्रकार के पदार्थों का उदगार होता है जिसमें गैस जलवाष्प विखंडित पदार्थ एवं तप्त लावा सर्वप्रमुख होते हैं। इनमें गैसों का सर्वाधिक प्रतिशत रहता है मैग्मा एक गर्म गलित पदार्थ हैै। जिसकी उत्पत्ति तापमान में वृद्धि, दाब में कमी तथा जल की मात्रा में होने वाली वृद्धि से संबंधित परिवर्तन से सम्मिलित प्रभाव से होता है।
मैग्मा में उपस्थित तरल एवं गैसीय पदार्थों की मात्रा अधिक होने पर ज्वालामुखी प्रक्रिया के संभावना बढ़ जाती है जबकि मैग्मा में उपस्थित सिलिका की मात्रा ज्वालामुखी की विस्फोटकता को निर्धारित करते हैं। क्योंकि सिलिका की मात्रा का आम्लीयता एवं गाढ़े पन से समानुपातिक संबंध होता है। इसलिए मैग्मा में सिलिका की मात्रा अधिक होने पर गाड़ी मैग्मा का केंद्रीय विस्फोट ज्वाला प्रक्रिया के द्वारा सतह पर उदगार होने से शपोयोलाइट एवं एंण्डेसाइट चट्टान से ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण होता है जबकि इसके विपरीत कम गाढ़े क्षारीय मैग्मा के सतह पर शांत प्रकार की ज्वालामुखी प्रक्रिया के द्वारा उद्गार होने से वह साल्ट से निर्मित संरचना की उत्पत्ति होती है।
उदगार से निकाले पदार्थ –
1 – गैस व जलवाष्प
2 – विखंडित पदार्थ
3 – तप्त लावा
इस समय गैसों का योगदान सर्वाधिक तथा कार्बन डाइऑक्साइड , नाइट्रोजन, सल्फर डाइऑक्साइड आदि महत्वपूर्ण गैस भी रहती हैं।
विखंडित पदार्थों में ज्वाला के बारीक धूल से लेकर बड़े-बड़े सम्मिलित किया जाता है। बड़े-बड़े टुकड़ों को बम कहते हैं। मटर के आकार के या अखरोट के दानों के आकार के टुकड़ों को लेपिली कहते हैं। बहुत बारिक कणों को ज्वालामुखी धूल कहते हैं।
जब उदगार के साथ द्रव रूप में पिघला हुआ पदार्थ बाहर आता है तो उसे लावा कहते हैं। लावा को सिलिका की मात्रा के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है।
Acid lava – रंग – पीला ,गाढ़ा तथा भार हल्का
Basic lava – कालिक ,भारी , क्षारीय

ज्वालामुखी के प्रकार – विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी विश्व के अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं। उदगार की अवधि तथा ज्वालामुखी उद्गार की तीव्रता के आधार पर इन्हें अनेक वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है।
उदगार की अवधि के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण –
1 सक्रिय ज्वालामुखी – ज्वालामुखियों से सदैव ज्वालामुखी पदार्थ निकलने की स्थिति में उक्त ज्वालामुखी को जागृत अथवा सक्रिय ज्वालामुखी कहते हैं । स्ट्रांबोली ज्वालामुखी इसके उदाहरण हैं। स्ट्रांबोली ज्वालामुखी से सदैव प्रज्वलित गैसों के निकलने के कारण उसे भूमध्य सागर प्रकाश स्तंभ कहा जाता है। दक्षिणी अमेरिका, माउंट कोटोपैक्सी, विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी हैै।
प्रसुप्त ज्वालामुखी – ऐसे ज्वालामुखी जो उद्गार के बाद शांत पड़ जाते हैं किंतु उनमें कभी भी उद्गार हो सकता है।
जापान का फ्यूजीयामा इटली का विसुवियश , इंडोनेशिया का क्राकाट्रोवा आदि।
मृत ज्वालामुखी – इस प्रकार के ज्वालामुखीयों में अपने भूगर्भिक इतिहास में काफी लंबे समय से उद्गार नहीं हुआ है ज्वालामुखी के उद्गार के तुल्यता के आधार पर
1 – केंद्रीय उद्गार वाले ज्वालामुखी
2 – हवाई तुल्य ज्वालामुखी
ये अपेक्षाकृत काम विस्फोटक होते हैं तथा उद्धार भी शांत ढंग से होता है। जब कभी भी गैसों के साथ लावा के छोटे-छोटे लाल पिंड फब्बारे के तरह उठने लगते हैं तथा हवा के तेज होने की स्थिति में लावा के पिंड खींचकर लंबे चमकीला धागे की तरह हो जाते हैं। इन्हें हवाई द्वीप के लोग पेले के बाल की संज्ञा देते हैं।
किलायु ज्वालामुखी इसका उदाहरण है।
स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी – भूमध्य सागर में स्थित सिसिली द्वीप के उत्तर में स्थित लिपाली द्वीप के स्ट्राम्बोली द्वीप के नाम पर इसका नामकरण किया गया।
ये मामूली विस्फोट प्रकार के ज्वालामुखी हैं।
वलकेनियन ज्वालामुखी – इस प्रकार के ज्वालामुखी में ज्वालामुखी पदार्थ भयंकर विस्फोट तथा अत्यधिक तीव्रता के साथ बाहर निकलते हैं।
काफी ऊंचाई पर उठने के कारण यह फूल गोभी की तरह दिखाई पड़ते हैं। भूमध्य सागर में स्थित लिपाली द्वीप के वाल्केनो नामक ज्वालामुखी के आधार पर इसका नामकरण किया गया।
पीलियन तुल्य ज्वालामुखी – यह सर्वाधिक विनाशकारी और विस्फोटक होते हैं । इसके अंतर्गत विखंडित पदार्थों के अधिक ऊंचाई पर जाने से जलते हुए बादल के रूप में दिखाई पड़ते हैं। 1902 में पश्चिमी द्वीप समूह के मार्टनिक द्वीप में पेली नामक ज्वालामुखी से हुए भयानक उद्गार के कारण सेंट पेरी नगर पुर्णतया नष्ट हो गया था।
विसुवियस तुल्य ज्वालामुखी – इस तरह के ज्वालामुखी के बारे में सर्वप्रथम प्लीनी ने बताया था। इसलिए इसे प्लीनियन प्रकार का ज्वालामुखी कहा जाता है। गैसीय तीव्रता के कारण लावा तीव्र गति से तीव्र गति व भयानक विस्फोट के सत्य बाहर निकलता है। इसके अंतर्गत निर्मित ज्वालामुखी बादल का आकार फूलगोभी की तरह होता है।
2 दरारी उदगांव वाले ज्वालामुखी – दरारों के माध्यम से बिना विस्फोट से होने वाले ज्वालामुखी प्रक्रिया को ज्वालामुखी दरारी उद्गार वाले ज्वालामुखी कहते हैं।
इसके विस्फोटक प्रवृत्ति का न होने का मुख्य कारण गैसों एवं ठंडे पदार्थों कम होना है ।
चुकि लावा पतला होता है इसलिए इनसे लावा पठारो का निर्माण होता है। आइसलैंड में होने वाला दरारें उद्भेदन के साथ कोलंबिय तथा दक्कन के पठार का निर्माण दरारी उदगार का ही उदाहरण है।

ज्वालामुखी स्थलाकृतिया – जब लावा धरातल पर आने से पूर्व ठंडा हो जाता है तो उसे उस दौरान अनेक प्रकार की स्थलाकृति बनते हैं ।
बैथोलीथ – गुंबद के आकार वाली स्थलाकृति का आधार तल काफी गहराई में होता है । ग्रेनाइट चट्टानों के रूप में विश्व के अधिकांश पर्वतों के कोर में ये मौजूद होते हैं।
लैकोलिथ – धरातल के निकट परतदार चट्टानों के बीच गुंबदाकार संरचना में मैग्मा के जमने से इसका निर्माण होता है।
फैकोलिथ – वलन के अभिनतियो एवं अपनतियो में तरंग रुपए लावा के जमा को फैकोलिथ कहते हैं।
लोकोलिथ – तश्तरी नुमा अवतल आकार वाली छिछली बेसिन मे लावा के जमाव को लोकोलिथ कहा जाता है।
शील – 2 संस्तरों के बीच समानांतर रूप में लावा के जमाव को शील कहते हैं।
डाईक – दो संस्तरो के बीच लंबवत रूप में लावा के जमाव को डाइक ( कलाम) कहते हैं।
उदगार के तीव्रता के कारण भी विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया बनती हैं।
1 – दरारी उद्भेदन द्वारा लावा के पठार का निर्माण होता है।
2 – केंद्रीय विस्फोट द्वारा अनेक प्रकार के शंकुुुओ के साथ क्रेटर व काल्डेरा का निर्माण होता है।
विभिन्न प्रकार ज्वालामुखी शंकु –
शिण्डर शंकु – इनकी ऊंचाई कम होने के साथ साथ इनका ढाल कम होता है। इनके निर्माण में समृद्ध ज्वालामुखी पदार्थों में तरल पदार्थ शामिल नहीं होते हैं। मैक्सिको का जोरल्लो सान सल्वाडोर का माउंट इजालको फिलीपींस के लुजोन द्वीप का कैग्बिन आदि शिण्डर शंकु के उदाहरण है।
शील्ड शंकु – इसका निर्माण लावा के काफी दूर तक फैलने से होता है ऐसा लावा के पतले होने की स्थिति में संभव है इसे बेसिक अथवा पैठिक लावा शंकु भी कहते हैं इसकी ऊंचाई कम होती है जैसे हवाई दीप का मोनालोह।

शंकु में शंकु – लंबे अंतराल के पश्चात प्रसुप्त ज्वालामुखी में अपेक्षाकृत छोटे परमाणु वाले ज्वालामुखी विस्फोट होने से शंकु के अंदर शंकु का निर्माण होता है।


मिश्रित शंकु – इसे परतदार शंकु भी कहते हैं। क्योंकि इसका निर्माण ज्वालामुखी पदार्थों के परत दर परत जमा होने से होता है। विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी इसी श्रेणी के हैं।
अम्लीय लावा शंकु – लावा के काफी गाढ़ा व चिपचिपा होने से कम दूरी में अधिक ऊंचाई तक तेजी से शीतल होने के कारण इस प्रकार के शंकु का निर्माण होता है यह तीव्र ढाल वाले ऊंचे शंकु होते हैं।
परिपोषित शंकु – जब ज्वालामुखी मुख्य नदी से कई छोटी-छोटी नालीकाएं बन जाती है तो ऐसी स्थिति में इन छोटी-छोटी नलिकाओं के द्वारा मिश्रित लावा से मुख्य शंकु पर कई छोटे-छोटे अन्य शंकुओ का निर्माण हो जाता है जिन्हें परीपोषित शंकु के नाम से पुकारा जाता है।
U.S.A का माउंट सस्ता इसका ही उदाहरण है।
क्रेटर एवं काल्डेरा – ज्वालामुखी के शीर्ष पर स्थित कीप के आकार गर्त को क्रेटर कहते है। कालाडेरा इस क्रिटर का विस्तृत रूप होता है। इसका निर्माण क्रेटर के धंसने से होता है अथवा ज्वालामुखी के विस्फोट के द्वारा होता हैं। जब क्रेटर अथवा कालाडेरा में जल भर जाता है तो वह क्रेटर अथवा काल्डेरा झील के रूप में जाने जाते हैं।

अमेरिका ओरोगन महाराष्ट्र की लोनार राजस्थान के पुष्कर आदि झीलें काल्डेरा का उदाहरण है।
जापान का एरा तथा अमेरिका का वैलिस काल्डेरा विश्व के बड़े काल्डेरा में से एक है।

अन्य विशिष्ट स्थलाकृतिया

शोल्फ तारा – जब किसी ज्वालामुखी से राख व लावा निकलना बंद हो जाता है किंतु उसके बाद भी बहुत दिनों तक उससे विभिन्न प्रकार की गैसे व वाष्प निकलता रहता है। तो इस प्रकार के गंधकीय धुवारे भूमध्य सागर के किनारे स्थित शोल्फ तारा ज्वालामुखी के नाम पर इसे ज्वालामुखी की इस प्रकार के विशिष्ट अवस्था को शोल्फ तारा कहते हैं।
10,000 धुवारो की घाटी से प्रसिद्ध अलास्का की करीमई ज्वालामुखी शोल्फ तारा का उदाहरण है।
गीजर – ये ज्वालामुखी क्षेत्रों में गर्म जल स्रोत होते हैं जिनमें से निरंतर गर्म जलवाष्प फव्वारे के रूप में निकलते रहते हैं। आइसलैंड ग्रैंड गीजर , अमेरिका का एलोस्टोन पार्क , न्यूजीलैंड के गीजर विश्व प्रसिद्ध है।गरम झरने – इससे गर्म जल निरंतर निकलता रहता है । इस प्रकार झरनों में रेडियोधर्मी पदार्थ उपस्थित रहते हैं।

ज्वालामुखी का विश्व वितरण – विश्व के ज्वालामुखी वितरण मानचित्र के अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि सामान्यतः ज्वालामुखी क्षेत्रों का संबंध प्लेट सिमांतो से है।

प्लेट सीमांतों को आधार बनाते हुए विश्व में ज्वालामुखी वितरण का अध्ययन करने के लिए हम विश्व को प्रमुख ज्वालामुखी क्षेत्रों में विभाजित कर सकते हैं।
परी प्रशांत मेखला – विश्व के लगभग दो तिहाई ज्वालामुखी का संबंध इसी में मेखला से है। इसका संबंध अभिसारी प्लेट सीमांत से है। जिसके अंतर्गत महासागरीय महाद्वीपीय तथा महासागरीय, महासागरीय अपसारी प्लेट सीमांतों के अपक्षरण एवं टक्कर के कारण भारी प्लेटों के नीचे क्षेपण तथा पुन: उसके ज्वालामुखी के रूप में लावा सतह पर आते हैं।
ज्वालामुखी की अधिकता से इसे अग्र श्रृंखला भी कहते हैं।
विश्व के अधिकांश उच्च ज्वालामुखी इसी पेटी में स्थित है।
जैसे विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी माउंट कोटोपैक्सी तथा विश्व का सबसे ऊंचा ज्वालामुखी एकांकागुआ चिली में स्थित है।
जापान का पिजियामा , अमेरिका का सस्ता रेनियहुड , फिलीपींस का माउंटताल एवं मेंयान इस मेखला में स्थित प्रमुख ज्वालामुखी है।

मध्य महाद्वीपीय पेटी – इसका संबंध महाद्वीपीय महाद्वीपीय अभिसरण प्लेट सीमांतों से है। स्ट्रांबोली , विसुवियस ,एंटना , इरान का देवमंद कोहेसुल्तान, काकेसस का एलवुर्ज अल्मानिया का आरारात , इंडोनेशिया क्राकाटोआ इस पेटी के महत्वपूर्ण ज्वालामुखी हैं।
मध्य अटलांटिक मेखला – इसका संबंध अपसारी प्लेट सिमांतो से है। जिसके अंतर्गत भ्रंश घाटी वाले क्षेत्रों में ज्वालामुखी उद्गार होता है।
अफ्रीका का भ्रंश घाटी क्षेत्र – किलमंजारो तथा माउंट केनिया इसमें मेखला के प्रमुख ज्वालामुखी हैं।
अतंराप्लेट ज्वालामुखी – इसका संबंध प्लेटो के अंदर ही आने वाली ज्वालामुखी से है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार किसी एक तप्तस्थल (हॉटस्पॉट) के द्वारा ज्वालामुखी मेखला तथा अनेक तप्त मेखला के द्वारा ज्वालामुखी गुच्छों की उत्पत्ति होती है।
जैसे हवाई द्वीप ज्वालामुखी रेखा तथा केनारी द्वीप गुच्छे का उदाहरण है।
हालांकि महाद्वीपीय क्रस्ट की मोटाई अधिक होने पर अंत: प्लेट ज्वाला मुख्यता की संभावना काफी कम हो जाती है।
भारत में अतीत में डाल्मा क्षेत्र राजमहल एवं अबोर पहाड़ी क्षेत्र ,हिमालय क्षेत्र, दक्कन लावा क्षेत्र मालानी एवं किराना क्षेत्र कुडप्पा ,बिजावर एवं ग्वालियर क्षेत्र भारत में ज्वालामुखी क्षेत्र हैं।

कार्स्ट भू-आकारिकी

By Team Rudra on Monday, March 29, 2021


परिचय– चूना के पत्थर वाले चट्टानों के क्षेत्र को कार्स्ट क्षेत्र कहते हैं। तथा भूमिगत जल द्वारा निर्मित कार्स्ट क्षेत्रों के स्थलाकृति को कार्स्ट स्थलाकृति कहते हैं। उल्लेखनीय है कि ऊपरी सतह के नीचे चट्टानों के छिद्रों तथा दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। वर्षा का जल विभिन्न रूपों में सतह से रिसकर नीचे जाता है। कुएं, गेसर जल स्रोत भूमिगत जल के प्रमाण हैं। जब धरातलीय जल रिसता है तो अपरदन एवं घोलीकरण द्वारा अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
भूमिगत जल के स्रोत-
1- जल वर्षा एवं हिम
2- सहजात जल (connate water)- सहजात जल या तलछट जल परतदार चट्टानों के छिद्रों तथा दरारों में स्थित जल होते हैं।
3- मैग्मा जल- चट्टानों में प्रवेश्य मैग्मा घनीभूत होने से जल के रूप में भूमिगत जल में मिल जाता है इसे ही मैग्मा जल कहते हैं।
भूमिगत जल के विभिन्न मंडल-
1- असम्पृक्त मंडल- यह भूमिगत जल का सबसे ऊपरी भाग होता है। इसे वैगेज जोन भी कहते हैं। इसी से होकर जल सम्पृक्त मंडल में जाता है। वर्षा ऋतु के कुछ समय को छोड़कर यह शुष्क रहता है।
सम्पृक्त मंडल– इसे फ्रीतिक मंडल भी कहते हैं। यहां उपस्थित चट्टानों के क्षेत्र पूर्ण जल से परिपूर्ण होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं
1- आन्तरायिक संतृप्त मंडल
2- स्थायी संतृप्त मंडल
3- चट्टान प्रवाह मंडल– यह ऐसा मंडल होता है जहां की चट्टानों के छिद्र व रंध्र चट्टाने के भार अधिक होने के कारण बंद हो जाते हैं। इसके नीचे जल नहीं जा पाता है।
सबसे ऊपरी भूमिगत जल स्तर को लटकता हुआ जल स्तर कहते हैं। दो जलभरो के मध्य अपारगम्य स्तर को अक्वीक्लूड कहते हैं। जिस चट्टानों के भाग से होकर भूमिगत जल प्रवाहित होता है उसे जलभरा (अक्वीफर) कहते हैं।
आर्टीजियन कूप- यह ऐसे प्राकृतिक जल स्रोत होते हैं जो धरातल पर स्वत: प्रकट होते रहते हैं। जलस्रोत से जल स्वयं ऊपर आता है जबकि आर्टीजियन कूप में मनुष्य को पहले कुआं खोदना पड़ता है और बाद में जल स्वत: धरातल पर प्रकट होता है। ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप जलभरो के लिए विश्व विख्यात है।
आर्टीजियन कूप के निर्माण के लिए आवश्यक दशाएंं-

1- अभिनति, बेसिननुमा उल्टी या गुंबदीय संरचना।
2- एकदिग्नत संरचना
उल्लेखनीय है कि आर्टीजियन कूप का जल जिस जल स्तर या मंडल से ऊपर निकलता है उसी को जलभरा कहते हैं। इस जलभरा के ऊपर एवं नीचे अप्रवेश्य शैल स्तर होने चाहिए।
कार्स्ट भू-आकृतियों के विकास हेतु आवश्यक दशाएं-
1- विस्तृत एवं शुद्ध लाइमस्टोन
2- संधियों का अच्छी तरह से होना चाहिए
3- कार्स्ट क्षेत्रों में गहरी घाटियों की उपस्थिति तथा उच्च स्थल खंडों से जल के रिसकर चूना पत्थर वाले क्षेत्रों में प्रवेश।
5- कार्स्ट स्थलाकृति का विकास फ्रांस के काकेशस क्षेत्र, इंग्लैंड के चाक क्षेत्र तथा भारत के सहस्त्रधारा (देहरादून) तथा राबर्ट एवं टपकेश्वर कंदरा वाले क्षेत्रों में प्रमुखता से होता है।
अपरदन के रूप-
घुलन क्रिया (सबसे महत्वपूर्ण)
जल गति क्रिया
अपघर्षण
सन्निघर्षण
अपरदन जनित कार्स्ट स्थलाकृतिया
1- लैपीज
2- घोलरन्ध्र एवं उससे संबंधित रूप
3- कार्स्ट खिड़की
4 युवाला
5- पोलिये
लैपीज– कार्स्ट क्षेत्रों में घोलीकरण तथा अपघर्षण एवं सन्निघर्षण (आंशिक ) निर्मित उबड़ खाबड़ स्थलाकृति को लैपीज कहते हैं। इसके शीर्ष को शिखर तथा गर्त वाले भाग को विदर कहते हैं। इंग्लैंड में इसे क्लिण्ट जर्मनी में कैैरेन , में साइबेरिया में बोगाज तथा डालमेशियन क्षेत्र में लैपीज कहते हैं।

घोलरन्ध्र व उससे संबंधित रूप- कार्स्ट क्षेत्रों में घोलीकरण के द्वारा अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का निर्माण होता है। विस्तृत होकर यही विलयन छिद्र जब बड़े हो जाते हैं तो उसी को डोलाइन कहते हैं। सर्बिया में इसे डोलिनास कहते है। डोलाइन से कुछ भिन्न आकृति वाले को घोल पटल कहते हैं।

जब इन्हीं गर्तों में जल भर जाता है तो उसे कार्स्ट झील कहते हैं।

विलयन रंध्रों के ऊपर ही सतह के ध्वस्त हो जाने से बृहद क्षेत्र का निर्माण हो जाता है जिसका ऊपरी भाग सतह की ओर खुला रहता है इसी को कार्स्ट खिड़की कहते हैं।

युवाला– कई डोलाइनों के अथवा असंख्य घोल रंध्रों के मिलने से निर्मित विस्तृत गर्त को युवाला कहते हैं। छोटे-छोटे युवाला को जामा कहते हैं। युवाला को हिंदी में सकुण्ड कहते हैं।

पोलिये– हिंदी में इसे राजकुंड कहते हैं। यह युवाला से अधिक विस्तृत गर्त वाला होता है। कार्स्ट क्षेत्रों में भ्रंशित भागों में घुलन क्रिया द्वारा इनका निर्माण होता है। बालकन क्षेत्र का लिवनो पोलिये विश्व का सबसे लंबा पोलिये है।

कार्स्ट प्रदेश की घाटियां– कार्स्ट क्षेत्रों में असंख्य घोल छिद्र होते हैं। इन्हीं छिद्रों या विदरो से होकर नदी का जल नीचे जाता है उसे धॅसती निवेशिका कहते हैं।

वर्षा ऋतु में कार्स्ट क्षेत्रों में घुलन के क्रिया द्वारा नदियों द्वारा निर्मित यू आकार की घाटियां घोल घाटियां या कार्स्ट घाटियां कहलाती हैं।

कार्स्ट घाटियों में नदी का जल विलयन रंध्रों से होकर सतह के नीचे चला जाता है और उसके आगे का भाग शुष्क हो जाता है और इस तरह नदियां सतह पर स्थित शुष्क घाटी के नीचे घाटी का निर्माण करती हैं उसे अंधी घाटी कहा जाता है।

कंदरा या गुफा– सतह के नीचे स्थित रिक्त स्थान को ही कंदरा कहते हैं। कंदराएं कार्स्ट क्षेत्र में भूमिगत जल द्वारा निर्मित एक विशिष्ट स्थलाकृतियां हैं यह आद्र एवं शुष्क दोनों होती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में कालर्सबाद, मैमथ कंदरा विश्व के प्रमुख कंदरा हैं।

कंदराओ के उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत-

  • स्विनर्टन का भौमजल स्तर सिद्धांत
  • गार्डनर का स्थैतिक जल मंडल सिद्धांत
  • डेविस का द्वि-चक्र सिद्धांत
  • मैलाट का सिद्धांत
  • अपघर्षण का सिद्धांत

प्राकृतिक पुल- सामान्यतया कंदरा के छत के नीचे धसने से छत के बचे और अवशेष भाग जो कंदरा के दो किनारों को जोड़ता है वही प्राकृतिक पुल होता है।

निक्षेपात्मक स्थलाकृति

  • स्टैलेक्टाइट
  • स्टैलेग्माइट
  • कंदरा स्तंभ

स्टैलेक्टाइट (आकाशीय स्तंभ)- हम जानते हैं की कन्दराओं में सभी प्रकार के निक्षेपो को‌ स्पीलियोथम कहते हैं। निक्षेपो का प्रमुख संगठक कैल्साइट होता है। पट्टीदार कालकेरियस निक्षेप ट्रैवर्टाइन कहलाता है। ट्रैवर्टाइन का जो निक्षेप कंदरा के मुख पर होता है उसे काल्क टूफा कहते हैं। शुष्क कंदराओ में टपकते जल का चूनायुक्त निक्षेप ड्रिपस्टोन होता है। ऐसे ड्रिपस्टोन जो कंदरा के छत से नीचे टपकते हैं उसी को स्टैलेक्टाइट कहते हैं।स्टैलेक्टाइट के आसपास निर्मित छोटे-छोटे ड्रिपस्टोनो को हेलिक्टाइट कहते हैं।

स्टैलेग्माइट– कंदरा के फर्श से ऊपर की ओर बढ़ते ड्रिपस्टोनो को स्टैलेग्माइट कहते हैं।

कंदरा स्तंभ– स्टैलेक्टाइटो के सतह तक पहुंच जाने तथा स्टैलेक्टाइटो तथा स्टैलेग्माइटो के मिल जाने से कंदरा स्तंभों का निर्माण होता है।

कार्स्ट प्रदेशों की कुछ विशिष्ट स्थलाकृतियां-

• काकपीट कार्स्ट

• कोन कार्स्ट

• पालिगोनल कार्स्ट

• टावर कार्स्ट

शंक्वाकार गर्त वाली डोलाइन जब तारा सदृश्य आकृति में बदल जाती है तो उसे ही काकपीट कार्स्ट करते हैं।

पालीगोनल कार्स्ट बहुभुजाकार गर्त होते हैं।

कई काकपिट कार्स्टो के मिलने से उनके मध्य स्थित कटक का आकार शंक्वाकार हो जाता है तो इस प्रकार की आकृति ही कोन कार्स्ट कहलाती है। अधिक ऊंचाई वाले कोन कार्स्ट ही टावर कार्स्ट होते हैं।

कार्स्ट क्षेत्र से संबंधित संकल्पनाएं-

1- बीदी का कार्स्ट चक्र (1911)

2- स्वीजिक का कार्स्ट चक्र (1918)

हिमनद

By Team Rudra on Monday, March 29, 2021


परिचय– हिमनद अन्य अपरदन के कारकों के समान भूतल पर समतल स्थापना का कार्य करता है, हालांकि इसके अपरदनात्मक कार्य काफी विवादग्रस्त हैं। हिमनद धरातल पर सरिताओं के समान ही हिमयुक्त नदि के समान होते हैं उनकी गति मंद होती हैै। हिमनद वास्तव में हिम समूह होते हैं जो हिमक्षेत्र से गुरुत्व के कारण प्रवाहित होते हैं।

हिमनद के प्रकार-
हिमटोपियाॅ (Ice-caps)- 
पर्वत की चोटियों पर स्थित हिमचादर ‘हिम टोपी’ कहते है।
1- महाद्वीपीय हिमनद– इसका विकास विशाल क्षेत्र में लगातार हिम के संचयन के कारण होता है।
2- पर्वत हिमननद या घाटी हिमनद– इसे अल्पाइन हिमनद भी कहते हैं इसका विकास पर्वत घाटी में होता है।
3- गिरिपद हिमनद- इसका विकास पर्वत के आधार व तली पर होता है अलास्का का मेलास्पिना हिमनद इसका प्रमुख उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि अलमैन महोदय ने सन 1948 में हिमनदो का विधिवत वर्गीकरण किया था।

हिमालय पर्वत के प्रमुख हिमनद
1- कंचनजंगा
2- जेमू
3- गंगोत्री
4- सासाईनी
5- सियाचिन
6- बाल्टोरों
7- बियाफा
उल्लेखनीय है कि हिमनद के प्रवाहित होने के दिशा में निर्मित हिमनद को अनुदैर्ध्य अथवा लम्बवत हिमनद कहते हैं। जबकि गतिशील हिमनद को समकोण हिमनद कहते हैं।
हिमनद का गतिशील होना– सर्वप्रथम स्विट्जरलैंड के निवासी अगासीज ने व्यक्तिगत प्रेक्षण के आधार पर गतिशीलता को प्रमाणित किया। लुई अगासीज ने हिमनदो के गति के विषय में दिलचस्प तथ्यों का प्रतिपादन किया।
1- हिमनदो में गति होती है तथा किनारों की अपेक्षा मध्य में अधिक गति होती है।

2- हिमनद की गति तली के अपेक्षा सतह पर अधिक होती है।
3- हिमनद के गति का कारण ढाल प्रवणता होती है।
4- सरल शब्दों में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हिमनद के आगे बढ़ने तथा पीछे हटने को हिमनद का निवर्तन कहते हैं।
5- हिमनद का अगला भाग जब वाष्पीकरण तथा गलने के कारण नष्ट हो जाता है तो पीछे सरकते प्रतीत होता है।

हिमनद के अपरदनात्मक कार्य – हिमनद के अपरदनात्मक कार्य के संदर्भ में विद्वानों में दो प्रकार के मत प्रचलित है दोनों विचार परस्पर विरोधी है प्रथम वर्ग के विद्वानों के अनुसार हिमनद शैल को संरक्षण प्रदान करता है क्योंकि यह ऊपर से शैल को ढके रहता है। अतः हिमनद का अपरदनात्मक कार्य नगण्य होता है इस विचारधारा को संरक्षणात्मक संकल्पना कहते हैं।
दूसरा विद्वानों का वर्ग हिमनद के अपरदनात्मक सामर्थ्य में विश्वास रखता है। रेमजे तथा टिण्डल ने हिमनद को अपरदन का सक्रिय कारक माना है तथा वह नवीन स्थलों का सृजन भी करता है।
अपरदन के सामान्य रूप – हिमनद का अपरदनात्मक कार्य अनेक रूपों में संपन्न होता है। अनेक रूपों में अपघर्षण तथा उत्पाटन प्रमुख है ।
अपघर्षण क्रिया के अंतर्गत हिमनद अपरदन के यंत्रों के सहायता से अपने घाटी के तली तथा किनारों को अपरदित करता है। उत्पाटन की क्रिया में हिमनद चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़ों को तोड़कर उन्हें अपने साथ कर लेता है। घाटी हिमनद द्वारा उत्पाटन के रूप में अपरदन द्वारा हिमनद अपने शीर्ष की ओर अपरदन करता है।
दी मार्तोनी ने हिमनद अपरदन के सिद्धांत का प्रतिपादन किया उनके अनुसार यदि तली का ढाल सामान नहीं है जो कि एक तथ्य है जो दरार क्षेत्र के दोनों ओर ऊपर और नीचे सर्वाधिक अपरदन होता है। सरल शब्दों में जब हिमनद अवतल ढाल की ओर बढ़ता है और उससे होकर अग्रसर होता है तो उसकी ऊपरी सतह में दबाव तथा खिंचाव के कारण दरारे बढ़ जाती हैं इस कारण ढाल से नीचे उतरते समय हिम के बड़े-बड़े खंड होकर नीचे सरकने लगते हैं जिस कारण हिमनद की गति तीव्र हो जाती है।
परिणाम स्वरूप जब हिमनद उत्तल ढाल के तरफ पड़ता है तथा उसे पार करके दूसरी ओर उतरता है है तो दोनों भाग में अधिक अपरदन होता है।
इस तरह उत्तल ढाल के दोनों किनारों पर सर्वाधिक अपरदन होता है जबकि अवतल ढाल पर न्यूनतम अपरदन होता है।
हिमनद ( पर्वतीय हिमनद या घाटी हिमनद ) के अपरदनात्मक स्थलरूप –
• यू आकार की घाटी
• लटकती या निलम्बित घाटी
• सर्क या हिमगह्वर
• टार्न
• अरेत या तीक्ष्ण कटक
• हार्न या गिरिश्रृंग
• नुनाटक
• श्रृंग या पुच्छ
• हिमसोपान
• भेड़पीठ शैल या राॅश मुटोनेेे

• फियोर्ड
यू आकार की घाटी – अपघर्षण, उत्पाटन क्रिया द्वारा हिमनद अपने घाटी को काटकर चौड़ा करती है। खड़े ढाल वाले अनुदैर्ध्य घटिया ही अंग्रेजी के यू अक्षर के समान होती हैं जबकि अनुप्रस्थ घाटियां यू आकार की नहीं होती हैं। सामान्यत: नदियों द्वारा पूर्व नदियों को हिमनद परिवर्तन संशोधन के द्वारा इस तरह घाटी का निर्माण होता है।
लटकती या निलंबित घाटियां – जब हिमनद की मुख्य घाटी के तल से उसमें मिलने वाली सहायक घाटियों के तल अधिक ऊंचे हो जातेे है तो जो सहायक घटियाॅ मुख्य घाटी पर लटकती हुई प्रतीक होती है उसे लटकती या निलम्बित या बर्हिर्लम्बी घाटीया कहते हैं। हिम के पिघल जाने पर जब इन घाटियों से जल निचली घाटी में गिरता है तो इसी कारण से प्रपात घाटी का निर्माण होता है।

सर्क या हिमगह्वर – पर्वतीय क्षेत्रों में घाटी हिमनद द्वारा उत्पन्नस्थलरूपों में सर्क सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है तथा यह प्रायः प्रत्येक हिमानीकृत पर्वतीय भाग में मिलता है । सर्क घाटी के शीर्ष भाग पर एक अर्द्धवृत्ताकार या कटोरे के आकार का विशाल गहरा गर्त होता है । जिसका पार्श्व या किनारा खड़े ढाल वाला होता है। सर्क का आकार गहरी सीट वाली आरामकुर्सी से मिलता जुलता हैं। यह प्रायः हिम से भरे रहते हैं। इसका निर्माण तुषारचीरण द्वारा हिमनद की सतह पर बनता है। तापीय अंतर के कारण दिन रात के समय एक दूसरे के हिम व जल में परिवर्तन होने से चट्टान पर दबाव पड़ता है और इस प्रकार दबाव के कारण संलग्न चट्टानों के टूटने से विशाल गर्त का निर्माण होता हैं।
सर्क या हिमगह्वर के निर्माण से संबंधित सिद्धांत –
यफ० जे० गारवुड की परिकल्पना
• जानसन का वर्गश्रुण्ड सिद्धांत
• हाब्स की संकल्पना
टार्न –
सर्क की बेसिन में अपरदन जनित गड्ढे शैल वेसिन के हिम के पिघलने से बनी झील को सर्क झील या टार्न कहते हैं।
हार्न या गिरिश्रृंग – जब किसी पहाड़ी के किनारे पर कई सर्क बन जाते हैं तथा जब वे निरंतर अपघर्षण के कारण पीछे हटते जाते हैं तो उनके आधार पर पिरामिड के आकार की चोटी का निर्माण होता है इस प्रकार कि नुकीली चोटी को ही हार्न या गिरिश्रृंग कहते हैं।
नुनाटक – विस्तृत हिम क्षेत्रों में ऊंचे उठे टीले को नुनाटक कहते हैं। जो चारों तरफ से हिम से घिरे होते हैं यह विशाल हिमराशि के बीच बिखरे हुए द्वीप के समान लगते हैं इसी कारण नुनाटक को हिमान्तर द्वीप भी कहते हैं। हिमनद द्वारा क्षैतिज अपरदन तुषारक्रिया तथा घर्षण द्वारा अपरदित होकर नुनाटक छोटा होता जाता है कभी-कभी यह पूर्णतय: घिसकर विलीन हो जाता है।
अरेत या तीक्ष्ण कटक – पर्वतीय भागों में जब किसी पहाड़ी के दोनों ओर अर्धवृत्ताकार गर्त एक दूसरे की ओर से सरकने लगते हैं तो उनके मध्य का भाग अपरदित होकर नुकीला हो जाता है और इस तरह नुकीले तीक्ष्ण कटक को अरेत या एरेटी या सिरेेत कटक कहते हैं।
श्रृंग या पुच्छ – जब किसी हिम प्रभावित स्थल भाग में बेसाल्ट या ज्वालामुखी प्लग ऊपर गाॅठ के रूप में निकलता रहता है तो जिस ओर से हिमनद आता है उस ओर प्लग या बेसाल्ट के उठे हुए भाग पर स्थित मुलायम मिट्टी का हिमनद द्वारा अपरदन होता है। तो इस तरह प्लग का यह भाग उबड़ खाबड़ हो जाता है। ढाल से होकर हिमनद जब बेसाल्ट के उठे भाग को पार करके दूसरी ओर उतरने लगता है तो प्लग के साथ संलग्न सतह का अपरदन ना करके संरक्षण प्रदान करता है इस कारण यह ढाल काफी मन्द होता है तथा काफी विस्तृत क्षेत्र में फैला होता है। बेसाल्ट या प्लग वाले उच्च भाग को श्रृंग अथवा उसके पीछे वाले भाग को पुच्छ कहते हैं। ऊपर उठे प्लग का ढाल तीव्र होता है तथा इसी का अपरदन भी होता है जबकि इससे संलग्न विस्तृत क्षेत्र में फैले पूछ ढाल मंद होता है तथा इसे अपरदन के कारकों द्वारा संरक्षण प्राप्त होता है।
भेड़पीठ शैल या राॅश मुटोने – हिमानीकृत क्षेत्रों में कुछ ऐसी हिम अपरदित शिलाएं होती हैं जो कि दूर से देखने पर ऐसी प्रतीत होती हैं मानो कोमल ऊन वाली भेड़ बैठी हो। डी सासर ने इस तरह की टीलों के लिए राश मुटोने शब्द का प्रयोग किया। हिंदी में इसे भेड़ पीठ शैल या मेष शिला कहते हैं। हिमनद केे मार्ग में पड़ने वाले टिलों का अपरदन होता रहता है । इन टिलो पर जिस ओर से हिमनद आगे बढ़ते हैं वह भाग अपघर्षण द्वारा चिकना व हल्के ढाल वाले होते हैं , हल्के ढाल के सहारे हिमनद आसानी से हिमनद टीले पर चढ़ जाता है उतरते समय शीलाखंडों से कम संपर्क के कारण अपरदन कम होता है किंतु उत्पाटन द्वारा खरोंच पड़ने से उबड़ खाबड़ हो जाता है मेष शिला का यह भाग तीव्र ढाल वाला होता है।
हिम सोपान – हिम सोपान हिमनदीय क्षेत्र में स्थित सोपानाकार सीढ़ीयां होती हैं। हिमनद के मार्ग में भ्रंश द्वारा कई कागारो (सोपानो का ) के हिमनद में प्रवाहित होने से अपघर्षण एवं उत्पाटन क्रिया द्वारा इस तरह के हिम सोपानो का निर्माण होता हैै। क्लिफ के आधार पर स्थित गर्तो में जल एकत्र होने से पैटरनास्टर झील का निर्माण होता है। इस प्रकार की झील हिम सोपान के प्रत्येक स्थान पर पाए जाते हैं।
फियोर्ड -उच्च अक्षांशों में जलमग्न हिमानीकृत घाटियों को फिर्योड कहते है। फिर्योड एक प्रकार का तट या किनारा होता है यह गहरे जल के सागरिया भाग होते हैं जिनकी दीवाले खड़ी ढाल वाली होती हैं। फिर्योड किनारे के पास अधिक गहरा होता है तथा सागर की ओर कुछ दूर जाने पर उथला हो जाता है । इसकेेेे बाद सागर पुनः गहरा होने लगता हैै। उथले हुए भाग को ही फिर्योड का चौखटा कहते हैं यदि किसी कारण से फिर्योड की ओर का चौखटा भाग सागर से ऊपर आ जाए तो फिर्योड का संपर्क सागर से समाप्त हो जाएगा तथा फियोर्ड एकमात्र जलपूर्ण बेसिन के रूप में ही रह जाएगा जिसे फिर्योड झील या पीडमाण्ट झील कहा जा सकता है।
हिमनद का परिवहन एवं निक्षेपण कार्य – हिमनद द्वारा परिवहन किए जाने वाले पदार्थ को सम्मिलित रूप में ग्लैसियल ड्रिफ्ट कहते हैं । हिमानी द्वारा जमा किए गए अवर्गीकृत तलछट को सम्मिलित रूप में टिल कहते हैं। ग्लैसियल ड्रिफ्ट वास्तव में हिमनद द्वारा निक्षेपित पदार्थ होता है। टिल ग्लैसियल ड्रिफ्ट का रूप है।
निक्षेप जनित स्थलाकृति – हिमोढ़ , ड्रमलिन
हिमोढ – हिमनद द्वारा अवसादो का परिवहन ना कर पाने के कारण उनका निक्षेप होने लगता हैै। इन निक्षेपित पदार्थ को हिमोढ़ कहते हैं जिसमें टीले की मात्रा सर्वाधिक होती है।
दूसरे शब्दों में हिमोढ़ टिल के जमाव से निर्मित स्थल रूप होती है। हिमोढ लंबे कटक के रूप में होते हैं। निक्षेप के आधार पर हिमोढ को 4 वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है
• पार्श्विक हिमोढ
• मध्यस्थ हिमोढ
• तलस्थ हिमोढ
• अंतिम हिमोढ
पार्श्विक हिमोढ – हिमनद के किनारे पर टिल केे निक्षेप से लंबे लेकिन पतले कटक के रूप में हिमनद की घाटी के दीवाल के समांतर निर्मित हिमोढ होते हैं।
मध्यस्थ हिमोढ – दो हिमनदो के मिलने से निर्मित हिमोढ को मध्यवर्ती या मध्यस्थ हिमोढ कहते हैं। यह घाटी के मध्य में उठे हुए कटक के रूप में चिन्हित किए जा सकते हैं वास्तव में इनका निर्माण भीतरी पार्श्विक हिमोढ के मिलने से होता है।
तलस्थ हिमोढ – हिमनद की तली या आधार पर टीले के जमाव से तलस्थ हिमोढ का निर्माण होता है।
अंतिम या अंतस्थ हिमोढ – जब हिमनद का अंतिम भाग पिघल जाता है तथा हिमनद का आगे बढ़ना रुक जाता है तो उसके द्वारा लाए गए पदार्थ अग्र भाग में घोड़े की नाल या अर्द्धचंद्राकार में एकत्रित हो जाते हैं इस अर्द्धचंद्राकार रूपी कटक को ही अंतिम या अंतस्थ हिमोढ कहते है। जिसका हिमनद घाटी की ओर ढाल अवतल होता है । अनियमित अंतिम हिमोढ वाले भाग में अनेक टीले या बेसिन बन जाती है टीले तथा बेसिन से युक्त हिमोढ़ के इस भाग को “नाब और बेसिन” वाला क्षेत्र कहते हैं।
ड्रमलिन – गोलाश्म मृतिका के द्वारा निर्मित ढेर या टीलों को हिमानी क्षेत्रों में ड्रमलिन कहते हैं जो देखने पर कटे हुए उल्टे अंडे या उल्टी नौका के समान प्रतीत होती है। हिमानी क्षेत्रों में चुकी ये सैकड़ों की संख्या में पाए जाते हैं इसलिए हिमनद क्षेत्र के इस भाग को “अंडे की टोकरी वाली स्थलाकृति” कहते हैं। इसका ढाल समान होता है अर्थात हिमनद कि मुख की ओर का भाग खड़े ढाल वाले तथा खुरदुरा होता है जबकि दूसरा भाग मंद चिकना व विस्तृत होता है। लेबरेट नामक विद्वान ने ड्रमलिन के निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया।
हिमानी-जलोढ़ निक्षेप जनित स्थलाकृति – प्रवाहित घाटी जब ऐसे भाग में पहुंच जाता है जहां पर तापमान इतना अधिक होता है कि हिम अपने रूप में नहीं रह सकता तो हिमनद का अग्रभाग पिघलने लगता है जिसे हिमनद का अवसान या अब्लेशन कहते हैं। हिम के पिघलने से प्राप्त जल हिमनद के अग्रभाग से जलधारा के रूप में निकलने लगता है तथा यथास्थान अवसादो का निक्षेपण करता रहता है इस तरह हिमनद का जल के सम्मिलित रूप से निक्षेपण की क्रिया हिमानी जलोढ़ निक्षेपण कहते हैं इस तरह के निक्षेपो द्वारा अनेक स्थल रूप का निर्माण होता है।
जैैसे- एस्कर , केम , केटिल तथा हमाक, हिमनद अपक्षेप
हिमनद अपक्षेप – अग्रस्थ या अंतस्थ हिमोढ़ के पीछे एकत्रित जल अधिक होने के कारण जब हिमोढ़ को पार करके विस्तृत क्षेत्रों में फैल कर चलता है तो अंतस्थ हिमोढ़ का कुछ मालवा हिमोढ़ के आगे विस्तृत क्षेत्रों में बिछा दिया जाता है। जिससे एक मैदान का निर्माण होता है । जिसे हिमनद अपक्षेप मैदान कहते हैं बड़े कण हिमोढ़ के निकट तथा छोटे कण दूर निक्षेप होते हैैं।
एस्कर – ये लंबे सकरे कटक होते हैं । जिसके किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं इसके निर्माण में उच्चावच की असमानता का प्रभाव नहीं पड़ता है । हिमनद के पिघलने से निर्मित जलधारा के मार्ग में अवरोध पडने से मालवा का आकार सर्क के रूप में एक लंबे लहरदार कटक के रूप में हो जाता है । कुछ कुछ अंतर पर एस्कर की मोटाई अधिक हो जाती है ये चौड़े भाग धागे में पिरोई गई दाने या मोतियों के समान प्रतीत होती है । इस प्रकार के एस्कर को माला एस्कर या मणिका एस्कर कहते हैं हिमनद के अग्रभाग पर हीम के पिघलने के कारण टीले के रूप में निक्षेपित ढेर को केम कहा जाता है केटील का निर्माण बड़े-बड़े बर्फ के टुकड़े के पिघल जाने के कारण होता है यह एक प्रकार की झील होती है इसी झील के मध्य स्थित छोटे-छोटे टीले हमाक कहलाते हैं।
हिमकाल के कारण- पृथ्वी की भूगर्भिक इतिहास में कई बार हिम युगो का आगमन हुआ है अब तक तीन प्रमुख हिम कालों का विवरण प्राप्त किया जाए सका है।
• कैंब्रियन युग से पूर्व के हिमकाल
• परमोकार्बानिफरस युग
• प्लीस्टोसीन हिमकाल
प्लेस्टोसीन हिमकाल – (एक मिलियन से प्रारंभ हुआ 10 हजार मिलियन से पूर्व) – प्लेस्टोसीन हिमकाल में कई बार हिम चादरों का निवर्तन हुआ। इस काल में हिम चादरों का प्रसार होता है उसे हिमकाल की अवस्था कहते हैं। दो हिम काल की अवस्थाओं के बीच जब हिमचादरें पिघलकर लुप्त हो जाती है तब उसे अन्तर्हिमकाल कहते हैं। कई हिमकाल की अवस्थाओं तथा अन्तर्हिमकाल की अवस्थाओं के सम्मिलित समय को हिमकाल कहा जाता है वर्तमान समय के हिमकााल को होलोसीन (अन्तर्हिमकाल) काल माना जाता है इसी कारण प्लीस्टोसीन हिमकाल तथा वर्तमान अन्तर्हिमकाल को सम्मिलित रूप से क्वाटरनरी हिमकाल कहा जाता है।
पेंक तथा ब्रुकनर ने यूरोप महाद्वीप में गुंज, मित्तल, रिस तथा वर्म नामक चार हिमचादरों के चार क्रमिक चादरों के प्रसार का वर्णन किया है।
इसी प्रकार अमेरिका भी हिम चादरों के चार क्रमिक चादरों का प्रसार मिलता है – नेब्रास्कन, कन्सान, इल्लीन्वायन तथा विसकासिन।

प्लीस्टोसीन हिमकाल का वर्तमान स्थलाकृति पर प्रभाव

1 – नदियों में नवन्मेष के कारण अनेक गार्जो तथा अंत: समुंद्री कैनियनो का निर्माण।
2 – प्लीस्टोसीन हिमकाल में सागर तल के नीचे गिरने के कारण तरंगों द्वारा निर्मित प्लेटफार्म पर हिमचादरों के पिघलने के बाद सागर तल में वृद्धि के समय प्रवाल पालिप ने प्रवाल भित्तियों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया। स्थलीय भाग पर हिमचादरों के प्रसार व निवर्तन के परिणाम स्वरूप बड़े-बड़े हिमोढ़ के समानांतर कटको का निर्माण व विकास होगा।
3 – अनेक हिमानीकृत झील फिनलैंड को झीलों का वाटिका कहतेे हैं।
4 – अनिश्चित प्रतिरूपों का विस्तार
5 – हिमानी द्वारा निर्मित अनेक अपरदन जनित निक्षेप जनित स्थलाकृतियों का निर्माण जैसे-यू आकार की घाटी तथा फियोर्ड तट का निर्माण
हिमकाल के कारण –
• स्थलाकृतिक उच्चावच में परिवर्तन – पर्वतीकरण
• ध्रुवो के स्थान परिवर्तन – वेगनर
• महाद्वीपों का विस्थापन – वेगनर का सिद्धांत
• कार्बन डाइऑक्साइड परिकल्पना – चैम्बरलिन
Co2↑=Inter ice Age
Co2↓= Ice Age
• ज्वालामुखी राख परिकल्पना –
1 ज्वालामुखी पदार्थ↑ + Atmosphere – Ice Age
2 – ज्वालामुखी पदार्थ ↓ – Inter Ice Age
• सागरिया गर्म धाराओं के मार्ग में अवरोध
• सूर्य विकिरण में परिवर्तन –
Sunspot↑ – सूर्यातप↑
Sunspot↓ – सूर्यातप↓
सिम्पसन की परिकल्पना – सौर विकिरण में परिवर्तन चक्रिय रूप में होता है।

तटीय भू आकृति

By Team Rudra on Monday, March 29, 2021


सागर के तटवर्ती क्षेत्र में अनेक अपरदन हुआ निक्षेप जनित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इनके निर्माण में सागरीय तरंग, सागरिया धारा, ज्वारीय तरंग, सुनामी आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिर भी इनमें सागरीय तरंगों को भू आकृति कार्य (अपरदन निक्षेप परिवहन) सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि सागरीय तरंगे सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रभाव कारी अपरदन का कारक होती हैं। सागरिया तरंगों द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का अध्ययन करने से पूर्व हमारे लिए सागरी तरंगों के विषय में जानना अत्यंत आवश्यक है।
शिखर एवं गर्त से युक्त सागरीय जल के हिमोड को सागरीय लहर या स्वेल कहते हैं। दो क्रमिक शिखर व गर्त के बीच सीधी क्षैतिज दूरी को (तरंग दैर्ध्य) तरंग लंबाई कहते हैं एक तरंग लंबाई की दूरी तय करने में सागरीय लहरों को जितना समय लगता है उसे तरंग अवधि कहते हैं। एक तरंग अवधि एक तरंग लंबाई के बराबर होती है। एक निश्चित बिंदु से प्रति इकाई समय में जितने तरंगे गुजरती हैं उसे तरंग आवृत्ति करते हैं तरंग लंबाई के अनुसार तरंग आवृत्ति बदलता रहता है तरंग लंबाई और तरंग आवृत्ति में विलोम संबंध होता है।

तरंग गति तथा तरंग की लंबाई में सीधा संबंध होता है जब सागरीय तरंग तट की ओर अग्रसर होते हैं तो तरंगों के गति के नली में टकराने के कारण तरंगों का शिखर टूट जाता है तथा उनका रूपांतरण ब्रेकर में हो जाता है टूटने के बाद जनित प्रचंक जल को स्वास अपरस तथा सर्क भी कहते हैं। सागरीय किनारे से समानांतर दूरी पर स्थित वह बिंदु जहां तरंगे सर्क में परिवर्तित होती हैं उनको मिलाने से सागरीय तटो के समानांतर काल्पनिक रेखा को पर तोरण रेखा कहते हैं। तट से टकराने के बाद जो तरंग तट के समानांतर प्रवाहित होती हैं उसे वेलांचली कहते हैं। कुछ तरंगे सागरीय जल के सतह से होकर लौटती हैं उन्हें तरंगीका कहते हैं। कुछ जल सागर के नितल से होकर वापस जाता है तो उसे अध:प्रवाह कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सागरीय तरंग स्थानांतर श्रृंगीय तरंगों का रूप है क्योंकि ऊपरी सतह से लेकर के सागरीय तली का समस्त जल एक ही दिशा में गतिशील होता है दोलन तरंगे इन से भिन्न होता है।

सागरी तट तथा किनारा-
सामान्य अर्थों में तट व किनारों को सामान समझा जाता है जबकि दोनों में अंतर होता है। सागरीय किनारा सागर की उस भाग को कहते हैं जो कि सबसे अधिक व निम्न ज्वारीय जल की सीमा के मध्य होता है। सागरीय किनारे की रेखा उसे कहते हैं जो किसी भी समय जल तल की स्थल की ओर की सीमा को निर्धारित करता है। दूसरे शब्दों में किनारे की रेखा उच्च एवं निम्न ज्वार के मध्य सागरीय जल की स्थल की ओर अंतिम सीमा को प्रदर्शित करता है इस तरह उच्च एवं निम्न ज्वार के समय सागरीय किनारों की रेखा बदलती रहती है। हालांकि अध्ययन के दौरान दोनों को एक ही समझा जाना चाहिए।

सागर किनारे के प्रकार-
1-पृष्ठ किनारा-किनारे की ओर का यह भाग स्थल की ओर की अंतिम सीमा है
2-अग्रिम किनारा-यहां पर सागरीय जल सदैव रहता है
3-सुदूर या अपतट किनारा-महाद्वीपीय मग्नढाल का शेष उठा भाग जो सागरीय जल द्वारा आह्वान होता है या सागरीय तक के सबसे दूर स्थित किनारा होता है सागर यह किनारे से स्थल की ओर के भाग ही सागरीय तट होता है।

सागरीय अपरदन के रूप-
जल गति क्रिया, अपघर्षण द्वारा, सनिघर्षण , दोलन क्रिया, जल दाब

दशाएं – अपरदनात्मक यंत्रों के द्वारा अपरदन अधिक ढाल मंद होने पर अपरदन अधिक तट रेखा स्थित रहने पर अपरदन अधिक चट्टानों की बनावट एवं संरचना के अंतर्गत अवसादी शैल का अपरदन अधिक होता है। समय अधिक मिलने पर अपरदन अधिक

सागरीय की लहरों द्वारा अपरदन जनित स्थलाकृति –
तटीय क्लिफ
तटीय कंदरा तथा उससे संबंधित रूप
तरंग घर्षित बेदी
तटीय क्लिफ – सागर के तटीय भागों में कागार के समान यह एक विचित्र स्थलाकृति है भू पृष्टिय अनाच्छादन सागरीय अपरदन तथा चट्टानों के स्वभाव व संरचना के सम्मिलित प्रभाव से इस स्थलाकृति की उत्पत्ति एवं विकास होता है। सागर की लहरों द्वारा तक के संलग्न चट्टानों का इस तरह अपरदन किया जाता है कि क्लिफ का ऊपरी भाग सागर की तरह लटकता रहता है तथा आधार पर खांच या दाग का निर्माण हो जाता है।
क्लिफ के सिर्फ भाग को नीचे से सहारा न मिलने के कारण व दूर-दूर तक नीचे गिरता रहता है जिसके कारण क्लिफ निरंतर पीछे हटता रहता है।
तटीय कंदरा तथा उससे संबंधित रूप – पूर्व विकसित चट्टानों की संधियों में सागरीय जल के प्रविष्ट का अपरदन करने से कठोर शैल के बीच स्थित मध्य कोमल शैल अपरदित होना आरंभ हो जाती है । जिससे सर्वप्रथम छोटी कंदरा का निर्माण होता है धीरे-धीरे अपरदन कार्य चलने से कंदरा की गहराई व आकार दोनों में विस्तार होता रहता है । जब कंदरा के ऊपर छत का कुछ भाग टूट कर नीचे गिर जाता है और इस तरह कंदरा का संबंध जहां ऊपरी सतह से हो जाता है । उसे केंद्र का प्रवेश द्वार कहते हैं। दाब के कारण कंदरा के हवा छत को तोड़कर क्षेत्रों के द्वारा ऊपर आवाज करती हुई निकलती है तो इस तरह के छिद्रों को प्राकृतिक चिमनी वाद छिद्र कहते हैं ।
कंदरा के बड़े पैमाने पर ध्वस्त होने से विकसित छोटी छोटी खाड़ियों को प्रवेश द्वार या निवेशीका कहते हैं। स्टॉकलैंड में इसे जिओ के नाम से जाना जाता है। तटीय भागों में जल की ओर निकले शिर्ष की तरफ दोनों पास किनारों पर दीक्षित के अंदर आए जब एक दूसरे से मिल जाती है तो जल शिर्ष स्थल के आर पार बहने लगता है। इसी को प्राकृतिक मेहराब कहते हैं।प्राकृतिक मेहराब के छत के ध्वस्त हो जाने से शिर्ष स्थल का सागर के लंबवत खड़ा भाग स्टैक या सागरीय स्तंभ के नाम से जाना जाता है जिसे चिमनी शैल या स्केरी भी कहते हैं।
अंडाकार कटान अथवा लघु निवेशिका – तटवर्ती क्षेत्रों में स्थित सागरी लहरों द्वारा कोमल शैलो के अपरदित किए जाने के कारण निर्मित छोटी छोटी खाड़ियों को लघु निवेशिका अथवा अंडाकार कटान कहते हैं।

तरंग घर्षित वेदी – हम जानते हैं कि क्लिफ का निर्माण सागर तरंगों द्वारा अपरदन के द्वारा किया जाता है। जब उसके द्वारा निरंतर खांच का विस्तार किया जाता है तोउस स्थिति में क्लिफ का शिष्यवर्ती भाग सहारा न पाने के कारण निरंतर टूट कर गिरता रहता है। और इस तरह क्लिफ के निरंतर पीछे हटने से जल के अंदर सामने तटीय भाग पर बने मैदान को तरंग घर्षित मैदान या बेदी कहते हैं।

निक्षेपण जनित स्थलाकृति –
सागरीय तरंगों द्वारा अपरदीत पदार्थों का तट के सहारे अथवा तट से दूर निक्षेप होता रहता है जिससे विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया बनती हैं।

पुलीग
राधिका तथा रोध
अपतर रोधिका
स्टिक
हुक
लुब या छल्ला
संयोजक रोधीका
तटीय तरभाग
सबका
पुलीन – जल मग्न तट का उथला भाग ही पुलीन कहलाता है। सागरीय के तट के सहार मालवा के नीचे से उच्च ज्वार तथा निम्न ज्वार के मध्य यह विकसित होते हैं। इनका निर्माण स्थानांतरित चरणों के साथ आधा प्रवाह तथा सील तरंगों के संयुक्त प्रभाव से होता है।
भारत में जोहू ( मुंबई ) कोलाबा, कुलनगुर , अंजना (गोवा ) कोबलन ( केरल ) मेरिना ( चेन्नई ) दीघा ( बंगाल ) पूरी ( उड़ीसा ) बीच भारत के प्रमुख पुलिन हैं।
सागरीय कटिया भागों में रेट गुलास्म बजरी से निर्मित कटक युक्त पुलिनो को कष्त पुलिन कहा जाता है।
रोधिका एवं रोध – तरंगों एवं जल धाराओं द्वारा निर्मित कटको को रोधिका कहते हैं। राधिका के विपरीत रोध जल से ऊपर बने रहते हैं।
अपतर रोधिका – तट से दूर तथा उस से निर्मित रोधीकाओ को अपतर रोधिका कहते हैं।
स्पिट – जब मालवा का निक्षेप इस तरह हो रहा है कि राधिका का एक हिस्सा सागर में निकला रहता है तथा दूसरा हिस्सा तटीय भाग से संलग्न रहता है तो इस तरह के स्थलाकृति को स्पिट या भू जीवा कहते हैैं।
रामेश्वर भारत का प्रमुख स्पिट है।
हुक – जब धाराओं के द्वारा स्पिट को मोड़ कर हुक का आकार दे दिया जाता है तो तो उसी को हुक कहते हैं। कई हुको के बनने से मिश्रित हुको का निर्माण होता है
लुप या छल्ला – जब विरोधी धाराएं स्पिट को इतना मोड़ देती है कि वह थॉट से जाकर मिल जाती है तो उसी को लुट या छल्ला कहते हैं।
संयोजक रोधिका – राधिका का अधिक विस्तार होने से जब दो सिर्फ स्थल आपस में जुड़ जाते हैं तो उस जोड़ने वाली राधिका को संयोजक राधिका कहते हैं। टोम्बोलो संयोजक राधिका को उस स्थिति में कहते हैं जब राधिका किसी द्वीप या स्थल को जोड़ने का कार्य करती है।

रोधिका के प्रकार – खाड़ी मुख्य रोधिका का निर्माण खाड़ी के मुहाने पर खाड़ी के शीर्ष पर खाली शिर्ष रोधक तथा खाड़ी के मध्य स्थित रोधिका को मध्य रोधिका कहते हैं।
तटीय तरभाग – तटीय क्षेत्रों के विकसित सपाट दलदली भाग तटीय तर भाग होते हैं जैसे भारत में मैंग्रोवन वाला क्षेत्र है।
सबखा – शुष्क उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के तटीय भाग में सपाट निश्चित जनित कष्टों को साल्ट फ्लैट या सबखा कहते हैं‌।
सांगरीय अपरदन को प्रभावित करने वाली

भूसन्नतियां वलित पर्वत निर्माण

By Team Rudra on Monday, March 29, 2021

भूसन्नति एवं पर्वत संरचना-


प्रथम श्रेणी के उच्चावचो (महाद्वीप एवं महासागर) के भूगर्भिक इतिहास का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि शुरुआती दौर में स्थल खंडों के मध्य जलपूर्ण गर्त होते थे।
दो दृढ़ स्थलखंडो के बीच स्थित इन उथले सकरे जलपूर्ण गर्तों को भूसन्नतियो के नाम पर जाना जाता है। भूसन्नतियो के भूगर्भिक इतिहास का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि सदैव गतिशील व परिवर्तनशील रहे हैं । भूसन्नतियो से ही वलित पर्वतो की संरचना हुई,मानी जाती है। इसलिए भूसन्नतियो को पर्वतों का पालना कहां जाता है।
भूसन्नतिया लंबे संकरें तथा उथले जलीय भाग होती है जिनमें तलछटीय निक्षेप के साथ-साथ तली में धसाव होता है।
भूसन्नति की संकल्पना के विकास में योगदान देने वाले भूगोलविद-
• हांग एवं डाना
• ईवान्श
• सुभुर्ट
(i) एकल भूसन्नति संकल्पना
(ii) बहुल भूसन्नति संकल्पना
• आर्थर होम्स

भूसन्नतियां लम्बे, संकरे तथा उथले जलीय भाग होती है। जिनमें
भूसन्नतिया जलीय पूर्ण भाग होती हैं। जो दृढ़ भूखंडों के बीच अवस्थित होती है। इन दृढ़ भूखंडों को अग्रदेशों stereographic projectionके नाम से जाना जाता है।

“विश्व मानचित्र पर वलित पर्वतों की स्थिति का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान व प्राचीन सभी वलित पर्वतों की उत्पत्ति भूसन्नतियों से हुई है। जैसे हीमालय पर्वत के स्थान पर टेथीस सागर नामक भूसन्नति थी। इसी तरह रॉकी एवं एंडीज पर्वत का निर्माण उससे संलग्न भूसन्नति से हुआ है।
वस्तुत: भूसन्नतिया लंबे संकरे तथा उथले जलीय पूर्ण भाग होती है। जिनमें तलछटीय के निक्षेप के साथ तली में धंसाव होता है। यह जलीय भाग होती है जो दो दृढ़ खंडों के बीच अवस्थित होती है। इन दृढ़ खंडों को अग्रदेश कहा जाता है। भूसन्नतिया गतिशील रहती हैं”
“भूसन्नति के अनेक रुपो को देखकर भूसन्नति के निर्माण को लेकर अनेक विचार दिए गए हैं।
जब महाद्वीपीय धरातल के नीचे संवहन धाराएं दो विपरीत दिशा में चलती है , तो सियाल परत के पतले होने से

अंतर्महाद्वीपीय भूसन्नति का निर्माण होता है। युराल भूसन्नति इसका बेहतरीन उदाहरण है।
महाद्वीपों केे किनारे वाले भाग में पाई जाने वाली भूसन्नति परीमहाद्वीपीय भूसन्नति तथा सागरिया भाग किंतु महाद्वीपों से संलग्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली भूसन्नतिया सागरिया भूसन्नतियो के नाम से जाने जाते हैं।
इस प्रकार संवहन धाराओं के तनाव के कारण सतह के नीचे विपरीत दिशाओं में तथा दबाव के कारण आमने-सामने चलने से परतो में क्रमश: धंसाव होने से भूसन्नति का निर्माण होता है।
भूसन्नतियो को पर्वतों का पालना कहा जाता है। पर्वतों के निर्माण के लिए भुसन्नतियो में लंबे समय तक तलछटो का जमाव होता रहता है। बाद में दबाव द्वारा तलछटो में बलन पड़ने से पर्वतों का निर्माण होता है।
इस तरह भूसन्नति से पर्वत निर्माण प्रक्रिया को समझने के लिए भूसन्नति के इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
भूसन्नति अवस्था में ( Lithogenesis) सर्वप्रथम भूसन्नति का निर्माण होता है। यह भूसन्नति तथा पर्वत निर्माण की प्रारंभिक अवस्था होती है। संवहन धाराओं के सतह के नीचे विपरीत दिशा में चलने से उत्पन्न तनाव के कारण तथा मिलन बिंदु पर दबाव के कारण सतह के धसंने से भूसन्नति का निर्माण होता है।

चित्र

भूसन्नति के निर्माण के बाद समीपवर्ती उच्च स्थलीय भागों से नदिया अपक्ष्यित पदार्थो को इसमें निक्षेपित करना प्रारंभ कर देती हैं।
अवसादो की तली पर भार बढ़ने के कारण तली में धसाव भी होता है।

      भूसन्नति की उत्पत्ति तलछट का जमाव तथा तली में धसाव इसी अवस्था की प्रमुख विशेषताएं हैं। टेथीस भूसन्नति, यूराल भूसन्नति, अप्लेशियन इसके उदाहरण हैं।

 पर्वत निर्माण की अवस्था में जब भूसन्नति तलछट से पूरी तरह भर जाती है। तब अधिक जमाव के कारण संतुलन में  अव्यवस्था होने से पुनः संतुलन लाने हेतु भू संचलन होने लगता है।

इस कारण तलछट में दबाव के कारण तलछट में बलन पडने लगते हैं। यदि स्मपिंडन बल सामान्य रहता है तो भूसन्नति

चित्र

का मध्य भाग , अप्रभावित रह जाता है जिसे मध्य पिंड कहा जाता है।

दबाव की शक्तियों के तीव्र गति से कार्य करने पर परिवलन मोड़ो ग्रीवा खण्डों अपनतियो अभिनतियो आदि के विकास के द्वारा स्थलाकृतियों में काफी जटिलता आ जाती है।
1-पर्वतों के विकास की अवस्था(Glipto genesis) इसका संबंध पर्वतों के उत्थान व विस्तार से है। हालांकि उत्थान के साथ अनाच्छादन की शक्तियां भी कार्य करना आरंभ कर देती हैं अनाच्छादन से प्राप्त मलबे का अन्यत्र निक्षेप होने लगता है।

आलोचना-
1-संपीडन बल का प्रभाव एक पार्श्व से अथवा दोनों पार्श्वो से होता है। स्पष्ट नहीं है।
2-पर्वतों निर्माण व आकार के विषय में पर्याप्त अंतर है।
3-उपरोक्त सीमितताओ के बावजूद वर्तमान में सर्वमान्य है कि भूसन्नतिया रही हैं तथा उन्हीं से पर्वतों विशेषकर वलित पर्वतों की उत्पत्ति है। कोवर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धांत (Geosynclinal oregen theory ) तथा डेली के महाद्वीपीय फिसलन सिद्धांत (Slinding Continent theory)का संबंध भूसन्नतियो से ही है।
कोवर के अनुसार जहां आज पर्वत है वहां पर पहले भूसन्नतिया थी। भूसन्नतियो के चारों ओर स्थित भूखंडों को उन्होंने क्रेटोजेन के नाम से संबोधित किया।
1-भूसन्नति की अवस्था के अंतर्गत उन्होंने बताया कि पृथ्वी में संकुचन के कारण भूसन्नतियो की उत्पत्ति होती है। अवसादीकरण तथा अवतलन की क्रिया इसके प्रमुख घटक हैं।
2-पर्वत निर्माण की अवस्था में संपीडनात्मक बल के कारण भूसन्नति के तल छट में सिकुड़न एवं वलन कारण मालवा वलित होकर पर्वत का रूप धारण कर लेता है। भूसन्नति के किनारों पर निर्मित पर्वतों का कोवर ने रेण्डकेटेन नाम से पुकारा। यदि वलन सामान्य होता है तो वह सन्नति का मध्य भाग अप्रभावित रह जाता है।
अप्रभावित भाग को स्वाशिन वर्ग (मध्य पिंड) कहा। संपीडन बल के तीव्र होने की स्थिति मध्य भाग भी मोड़ पड़ जाता है और इस तरह अपनतियो, अभिनेतियो , ग्रीवा खण्डों का विकास होता है।

डेली ने अपने महाद्वीपीय फिसलन सिद्धांत में बताया कि गुरुत्वाकर्षण बल के कारण भूसन्नति के चारों तरफ स्थित बड़े स्थलखंडों(महाद्वीपो) के भूसन्नति पर दबाव के द्वारा मलबों में वलन पड़ने से पर्वतों की उत्पत्ति हुई।
उनके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद शीघ्र ही मौलिक तरल पदार्थों के ऊपर एक पपड़ी का निर्माण हो गया। उनके अनुसार भूमध्य रेखा एवं ध्रुवो के पास दो कठोर दृढ़ भूखंड थे जिनकी उन्होंने भूमध्य रेखीय तथा ध्रुवीय गुम्बद बताया।
इन दृढ़ भूखंडों के मध्य स्थिति जलीय भाग के मध्य अक्षांशीय खाईं के नाम से तथा आद्य प्रशांत महासागर के नाम से संबोधित किया यह जलीय भाग भूसन्नति के रूप में तथा दोनों गुंबदो का झुकाव इस भूसन्नति की तरफ था फलस्वरूप नदियों द्वारा गुंबदो से प्राप्त मलवा का निक्षेपण भूसन्नतियो में किया जाने लगा। मलवो का सागर की तली में दबाव बढ़ने के तली में निरंतर धसाव होने लगा दबाव एवं धसाव से पार्श्विक दबाव के कारण स्थल खंडों विस्तृत गुंबद में परिवर्तित हो गए।
इस तरह निरंतर दबाव एवं धसाव होने से गुंबदो में विस्तार एवं ऊंचाई बढ़ती गई। इससे गुंबदो के आंतरिक भाग में निर्मित रिक्त स्थान की तरफ भूसन्नति के तरफ मलवो का स्थानांतरण होने लगा हालांकि इस प्रक्रिया के दोलन गुंबद के मध्य भाग की अपेक्षा उसके किनारे वाले भाग में वृद्धि एवं विकास अधिक हुआ। दबाव में वृद्धि से उत्पन्न तनाव बल के तली की सहनशक्ति से अधिक होने के कारण सागर की तली में फलन एवं टूटन प्रारंभ हो जाता है। गुंबद का आधार हटने से गुंबद बड़े-बड़े खंडों में टूट कर भूसन्नति में फिसलने से उत्पन्न दबाव के भूसन्नति का मलवा वलित होकर पर्वत में बदल जाता है। इस तरह इनके अनुसार महाद्वीपों की भूसन्नति की तरफ जितनी अधिक फिसलन हो संपीडन उत्पन्न ही अधिक होने के कारण उतने ही ऊंचे तथा विस्तृत पर्वत का निर्माण होगा।

पर्वत निर्माण प्रक्रिया-
पर्वत द्वितीय श्रेणी के उच्चावच होते हैं जिनका निर्माण अंर्तजनित भूसंचलन के द्वारा होता है विभिन्न प्रकार के उच्चावचो में इनकी ऊंचाई सर्वाधिक होती है।
निर्माण प्रक्रिया के आधार पर पर्वत कई प्रकार के होते हैं ।
जैसे-संपीडन बल द्वारा निर्मित पर्वत को वलित अथवा मोड़ दार तनाव मुलक बल द्वारा निर्मित पर्वत ब्लॉक पर्वत कहलाते हैं। जबकि ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण ज्वालामुखी प्रक्रिया के द्वारा होता है क्योंकि विश्व में मोड़दार पर्वतों का वितरण अधिक विस्तृत व नियमित है। इसलिए पर्वतों की उत्पत्ति एवं विकास को स्पष्ट करने के लिए दिए गए सिद्धांतों के अंतर्गत मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति को ही स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
जी के गिलवर्ट ने पहली बार राकी और इंडीज पर्वतों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के क्रम में ओरोजेनी (Orogeny) शब्द का उपयोग किया है।
इसका तात्पर्य मोड़दार पर्वत उत्पत्ति प्रक्रिया को स्पष्ट करना था।
पर्वत निर्माण से संबंधित आवश्यक चरण-
• अवसादन
• शैल अनुक्रम का विकास
• संरचनात्मक विरूपण
• आग्नेय क्रियाएं
• रूपांतरण
• समस्थैतिकी समायोजन
अवसादन एवं शैल अनुक्रम का विकास- अवसादो के निक्षेपण होने से महाद्वीपीय तट पर छिछले जलीय भागों में मायोजिओ क्लाइन , गाहरे जलीय भागों मेंं यूजिओक्लाइन तथा नितल पर आफियोलाइट्स शैल अनुक्रम का विकास होता है।
संरचनात्मक विरूपण-
संपीडन बल के द्वारा शैल अनुक्रम में संरचनात्मक विरूपण के द्वारा मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति होती है। चुकि महाद्वीपीय तट पर मायोजिओक्लाइन की मोटाई अधिक होती है इसलिए तटीय भागों में मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति अधिक होती है।

तट से दूर जाने पर संपीडन बल में कमी के कारण संरचनात्मक विरूपण में कमी आने से अवसादो में वलन भी कम होता है।
आग्नेय क्रियाएं-
मोड़दार पर्वतों के नीचे क्षेपित हुए प्लेट सीमांत के अत्यधिक तापमान वाले क्षेत्रों में पहुंचने पर क्रस्टो का आंशिक गलन से मैग्मा की उत्पत्ति होती है । इसी को आग्नीय क्रिया कहा जाता है।
रूपांतरण-
अत्यधिक तापमान के कारण मैग्मा के संपर्क में आने से संलग्न चट्टानों का आंशिक गलन होता है। इसी तरह अत्यधिक दबाव के कारण ही चट्टानों का रूपांतर होता है। इस तरह ताप और दाब के द्वारा चट्टानों में रूपांतरण होता है। मैग्मा के शीतली करण से इस तरह आग्नेय चट्टानों का निर्माण होता है जबकि रूपांतरित तथा आग्नेय चट्टानों पर होने वाली अनाच्छादन की क्रिया द्वारा प्राप्त अवसादो के शैलो से अवसादी शैलो का विकास होता है।
इस तरह पर्वतीय क्षेत्र आग्नेय अवसादी तथा रूपांतरित शैलो वाले क्षेत्र होते हैं।
समस्थैतिक समायोजन-
पर्वत निर्माण के दौरान उत्पन्न असंतुलन को संतुलित करने के लिए पृथ्वी समस्थैतिकी संचलन द्वारा समस्थैतिकी समायोजन करती है।
इस प्रकार पर्वत रचना का संबंध केवल उत्पत्ति से ही नहीं बल्कि विकास से भी है।

अनाच्छादन

By Team Rudra on Sunday, March 28, 2021

अनाच्छादन – अनाच्छादन बर्हिजनित भू-संचलन से संबंधित एक ऐसा संयुक्त प्रक्रम है जिसके अंतर्गत अपक्षय, अपरदन और बृहद क्षरण की क्रियाएं होती हैं। अपक्षय परिवहन की अनुपस्थिति में होने वाली एक ऐसी स्थैतिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा चट्टानों में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होता है। परिणाम स्वरूप चट्टानें असंगठित होकर अवसादो में परिवर्तित हो जाती है। हम जानते हैं कि भौतिक अपक्षय को विघटन के नाम से संबोधित किया जाता है वही वियोजन का संबंध रासायनिक अपक्षय से है।
जब इन्हीं अवसादों का अपरदन के कारकों द्वारा स्थानांतरण होता है तो ऐसी स्थिति में विघटन एवं वियोजन की क्रिया को अपरदन कहते हैं। इस प्रकार अपरदन एक गत्यात्मक क्रिया हैं। जब गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव के कारण अपरदन की क्रिया होती है तो उसे वृहद क्षरण कहते हैं। जिसके लिए अपरदन के कारकों का होना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार अन्तर्जनित भू – संचलन के द्वारा जहां पृथ्वी की सतह पर पर्वत, पठार, मैदान के रूप में विविध प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण होता है। वहीं बर्हिजनित भू-संचलन के अंतर्गत अनाच्छादन प्रक्रिया के द्वारा उत्थित भूखंड समप्राय मैदान में परिवर्तित हो जाता है। इस कारण ही बर्हिजनित भूू-संचलन को विनाशात्मक संचलन कहते हैं।

अपक्षयण के प्रकार
• भौतिक अपक्षय
• रासायनिक अपक्षय
• जैविक /प्राण वर्गीय अपक्षय
1- जब अपक्षय के द्वारा चट्टानों में विघटन की क्रिया होती है तो उसे भौतिक अपक्षयण कहते हैं जिसके द्वारा चट्टानों की रासायनिक संरचना एवं संगठन में कोई परिवर्तन नहीं होता है ।

2- लेकिन जब वही जल एवं गैस के द्वारा चट्टानों की रासायनिक संरचना में परिवर्तन होता है तब रासायनिक अपक्षयण के द्वारा चट्टानों का वियोजन हो जाता है।
3- जैविक घटकों द्वारा होने वाले भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय को जैविक अपक्षय कहते हैं ।

अपक्षय की दर को प्रभावित करने वाले कारक
1- स्थलाकृतिक संरचना एवं संगठन
2- स्थलरूपी विशेषताएं
i- ढाल की दिशा
ii- ढाल की लंबाई
iii – ढाल की तीव्रता
3- जलवायु कारक – तापमान, वर्षण की मात्रा, वाष्पीकरण की दर।
स्थालाकृतिक संरचना एवं संगठन – अपक्षय की दर को निर्मित करने वाले कारकों में रासायनिक संरचना एवं संगठन का विशेष महत्व होता है कठोर एवं संगठित चट्टानों की अपेक्षा मुलायम एवं असंगठित चट्टानों का अपक्षयण अधिक होता है।
उदाहरण स्वरूप आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों की तुलना में अवसादी चट्टानों का अपक्षयण अधिक होगा

स्थलस्वरूपी विशेषताएं – ढाल की तीव्रता व लंबाई अधिक होने पर चट्टानों के संगठित होने की संभावनाएं बढ़ जाती है। जैसे – पर्वतीय क्षेत्रों का मैदानी क्षेत्रों की ढल की लंबाई व तीव्रता अधिक होने के कारण अपक्षयण अधिक होता है। इसी तरह अपरदनात्मक ढाल पर जहां चट्टाने अधिक और असंगठित होती हैं वहीं निक्षेपणात्मक ढाल पर संरक्षण प्राप्त होता है।

जलवायु कारक – अपक्षयण की दर को प्रभावित करने वाले कारकों मे जलवायु सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। उष्णकटिबंधीय आद्र जलवायु प्रदेशों में चट्टानों में उपस्थित घुलनशील तत्व घुल कर अलग हो जाते हैं। जिससे चट्टानों की रासायनिक संरचना में परिवर्तन के कारण चट्टाने असंगठित हो जाते हैं । इसी प्रकार उष्णकटिबंधीय शुष्क क्षेत्रों में दैनिक तापांतर सर्वाधिक होने के कारण तापमान में कमी व वृद्धि से चट्टानों में फैलाव व संकुचन होता है । तापमान के द्वारा होने वाले इस भौतिक अपक्षयण की क्रिया को थर्मोक्लास्टि कहते हैं। यही प्रक्रिया जब लवणों के अधिकता वाले क्षेत्रों में होता है। तो इस प्रकार के भौतिक अपक्षयण की क्रिया को हैलोक्लास्टी कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि लवणों के द्वारा जल को अवशोषित करने से जहां क्रिस्टल के आकार की वृद्धि होती है । वहीं निष्कासित किए जाने के कारण क्रिस्टल की आकार में कमी होती है ।

उच्च अक्षांशीय प्रदेशों में तापीय परिवर्तन के कारण जब चट्टानों की संधियों में हिमाच्छादन एवं हिमगलन की प्रक्रिया होती है तब फैलाव एवं संकुचन के कारण तुषार अपक्षयण के द्वारा चट्टाने असंगठित हो जाती हैं। इस प्रकार जहां उष्ण, शुष्क प्रदेश में तापीय प्रभाव से भौतिक अपक्षयण की दर अधिक होती है वही उष्णकटिबंधीय आद्र प्रदेशों में रासायनिक अपक्षयण अधिक प्रभावी होता है। यद्यपि भौतिक एवं रासायनिक अपक्षयण का संबंध जलवायु से संबंधित है तथापि दोनों ही क्रियाएं एक दूसरे को प्रभावित करती हैं । प्राकृतिक कारकों में वनस्पति की सघनता अपच्छयण की दर को नियंत्रित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि यह अन्य कारकों के प्रभाव को नियंत्रित करता है ।

अपरदन – अपरदन की क्रिया में जब अपरदन के कारकों के साथ उपस्थित अवसादो के द्वारा भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन होता है तब अपरदन जनित विभिन्न स्थलाकृतियों की उत्पत्ति होती है अपच्छयण अपरदन को नियंत्रित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि अपक्षयण अपरदन के लिए आधार का कार्य करते हैं।
अपरदन के प्रकार रुप
1- भौतिक अपरदन
• अपघर्षण
• सन्नीघर्षण
• जलगति क्रिया
• अपवहन
• उत्पाटन
• घोलन या संक्षारण
• जल दबाव क्रिया
2- रासायनिक अपरदन
• संक्षारण
• जलयोजन
• ऑक्सीकरण
• कार्बोनेटीकरण
3- जैविक अपरदन

• मानव

बहते हुए जल के द्वारा जल गति क्रिया पवन द्वारा अपवहन तथा हिमनद के लिए उत्पाटन की क्रिया से असंगठित चट्टानें अपरदीत होती हैं । इसी प्रकार अपघर्षण अपरदन के कारकों तथा अवसादों के सम्मिलित प्रभाव से होने वाली एक क्रिया है। जिसके द्वारा संलग्न सतह का कटाव होता है अर्थात अपरदन के यंत्र/कारक संलग्न सतहों पर अपहरण के द्वारा कटाव करते हैं । यह अपरदन से संबंधित सभी क्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

जब अवसादों के आपास में टकराने से विघटन की प्रक्रिया होती है तो उसे सन्नीघर्षण कहते हैं जब अपरदन के कारकों में जल गति क्रिया के द्वारा असंगठित चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होता है तो उसे हम रसायनिक अपरदन अथवा संक्षारण कहते हैं। अपरदन के कारकों में बहते हुए जल का प्रभाव सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्रों में होता है। यही कारण है कि डेविस द्वारा प्रतिपादित सामान्य अपरदन चक्र को सरिता अपरदन चक्र भी कहते हैं।
जैविक अपरदन के अंतर्गत मुख्य रूप से मानव की गतिविधियों को शामिल किया जाता है। जो कि वर्तमान में भौतिक व रासायनिक अपरदन को बढ़ावा देने में मुख्य अभिकर्ता के रूप में उभरा है। नदियां अपरदन की क्रिया कई तरीके से संपन्न करती हैं जैसे – शिर्षवर्ती अपरदन के द्वारा नदी अपने उद्गगम क्षेत्र की ओर अपरदन करती हैं । जिससे नदी की लंबाई में वृद्धि होती है । नदी के द्वारा संपन्न किया जाने वाला इस अपरदन के दौरान पर्वतीय क्षेत्र में सरिता अपरदन जैसी सरिता अपहरण की घटना घटित होती है।पर्वतीय क्षेत्र में ढाल अधिक होने के कारण नदी की तीव्रता काफी अधिक होती है जिससे नदी निम्नवर्ती अथवा ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा घाटी को गहरा करने का कार्य करती है। नदी अपरदन के इस रूप को हम घाटी गर्तन भी कर सकते हैं।
जब वर्षा जल गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से एक निश्चित दिशा में बहने लगता है तो उसे नदि सरिता कहते हैं नदियां भूतल पर समतल स्थापन का कार्य तीन रूपों में करती हैं ।अपरदन, परिवहन , निक्षेप
नदियों का बहता हुआ जल घाटी के पार्श्व अवतली को खरोचता और कुरेदता है। जिस कारण चट्टान चूर्ण को नदी की घाटी से नदी अपने साथ लेकर प्रवाहित होती है । नदी के कटाव वाले कार्य को अपरदन तथा मलवा के स्थानांतरण को परिवहन कहते हैं जब नदियां अवसादो को ले जाने/ प्रवाहित करने में असमर्थ हो जाती है तो वह निक्षेप करने लगती है।

नदी का अपरदन कार्य – नदी का प्रमुख कार्य अपरदन करना है।
सैलसेबरी के अनुसार– नदी के प्रमुख कार्य में एक स्थल का सागर तक ले जाया जाना है।”
गिलवर्डने नदी की अपरदन शक्ति को एक फार्मूले के रूप में प्रदर्शित किया ।
अपरदन शक्ति ( नदी का वेग)2
अर्थात नदी का वेग यदि दोगुना कर दिया जाए तो अपरदन शक्ति 4 गुना हो जाएगा तथा 4 गुना कर दी जाए तो 16 गुना हो जाएगा ।

नदी अपनी युवावस्था में पर्वतीय क्षेत्रों में ऊर्ध्वाधर अपरदन के द्वारा V आकार की घाटी का निर्माण करती है। हालांकि पार्श्विक अपरदन के कारण घाटी के चौड़ा होने का कार्य निरंतर जारी रहता है।
गार्ज एवं कैनियन दोनों ही V आकार की घाटी के रूप में होते हैं जिनके किनारे की दीवार अत्यंत ढाल वाली होती है तथा चौड़ाई की अपेक्षा गहराई अधिक होती हैै। हालांकि गार्ज और कैनियन में अंतर स्थापित करना मुश्किल है फिर भी सामान्यता गार्ज के विस्तार के रूप को कैनियन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कैनियन गार्ज की तुलना में जल विशाल आकार वाले किंतु सकरे होते हैं ।
पहाड़ी क्षेत्रों में नदियां जब खड़े ढाल अथवा क्लिप की ऊपरी भाग से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरती है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। क्षिप्रिका भी जलप्रपात का एक रूप है किंतु क्षिप्रिका की ऊंचाई जलप्रपात से कम तथा ढाल सामान्य होता है। अर्थात क्षिप्रिका को जलप्रपात का छोटा रूप समझना चाहिए। जलप्रपात के तल पर निर्मित गर्तों को जल गर्तिका कहते हैं। जल गर्तिका के विस्तृत रूप को अवनमन कुण्ड कहते हैं। हिमानी क्षेत्रों में भी यह आकृति बनती है तथा जलप्रपात वाले क्षेत्रों के अतिरिक्त भी घाटी की तली में इन आकृतियों का निर्माण अपरदन के द्वारा हो सकता है। नदी के मार्ग में कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतों का क्रमवार क्षैतिज रूप में पाए जाने की स्थिति में घाटी के दोनों तरफ विशेषक अपरदन के द्वारा सोपनाकार सिढिया बन जाती हैं।

चुकी इनके निर्माण में चट्टानों की कठोरता एवं कोमलता का योगदान होता है । इसीलिए इन्हें संरचनात्मक सोपान भी कहते हैं नदी वेदिका इससे मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसके निर्माण में संरचना का योगदान नहीं होता है बल्कि ये आकृतियां अपरदन नवन्मेष जनित आकृतियां हैं इस प्रकार के आकृतियों को घाटी के अंदर घाटी के अथवा दो तले वाली घाटी भी कहते हैं जब नदियां मैदानी क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं तब ऐसी स्थिति में ढाल कम होने के कारण नदी का वेग कम हो जाता है तथा नदियां मैदानी ढाल का अनुसरण करते हुए टेढ़े- मेढ़े रास्ते का अनुसरण करती हैं इस कारण नदियों के मार्ग में कई मुडाव होते हैं। और इन्हीं मुड़ाव वाले स्थानों को विसर्प कहते हैं विसर्प पांच प्रकार के होते हैं।
1- अधाकर्तित विसर्प
2- गंभीरकृत विसर्प
3- इन्ट्रेच्ड विसर्प
4- घिरा हुआ विसर्प
5- अंतः कार्तित विसर्प
इन विसर्पो में अधाकर्तित विसर्प नवोन्मेष का उदाहरण है।
जब नदियां मुडाव वाले मार्ग को छोड़कर अपने मार्ग को सीधा कर लेती है तब ऐसी स्थिति में मुड़ाव वाले क्षेत्रों में गोखुर झील या चाप झील का निर्माण होता है।

नदियां क्षैतिज अपरदन के दौरान समप्राय मैदान का निर्माण करती है । इस तरह के आकृतियों का निर्माण तब होता है जब नदियां अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है। समप्राय मैदान के लिए पेनिप्लेन शब्द का प्रयोग डेविस ने किया जबकि पेंक ने इण्ड्रम शब्द का प्रयोग किया है। समप्राय मैदान पर अवस्थी पहाड़ियों के लिए डेविस ने मोनाडनाक तथा पेंक ने इंसेलवर्ग शब्द का प्रयोग किया है ।

हागवैक्स एवं क्वेस्टा – क्वेस्टा और हागवैक्स का निर्माण झुकी हुई अवशादी वाली शैल वाले क्षेत्रों में चट्टानों के क्षरण के द्वारा होता है। हागवैक्स का किनारा जहां सामान्य ढाल वाला तथा समतल होता है वही दूसरा किनारा तीव्र ढाल वाला एवं उबड़ – खाबड़ होता है। तीव्र एवं उबड़-खाबड़ का संबंध कोमल चट्टानों से होता है । नदिया जब अपने मार्ग पर आगे बढ़ती है तो कोमल चट्टान को का कटाव करते हुए पुनः कठोर चट्टानों के सहारे नीचे उतर कर आगे बढ़ जाती है । तब इस दौरान हागवैक्स जैसी स्थलाकृति का निर्माण होता है। क्वेस्टा भी सुकर कटक से मिलती-जुलती आकृति है किंतु इसका ढाल सुकर कटक से सामान्य होता है।

परिवहन कार्य – नदी के समतल स्थापन कार्यों में परिवहन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है ।

गिलवर्ड ने परिवहन के संबंध में छठवीं शक्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है ।
परिवहन शक्ति = (नदी का वेग)6
इसका तात्पर्य यह है कि नदी के वेग को 2 गुना कर दिया जाये तो नदी के बोझ ढोने की क्षमता में 64 गुना की वृद्धि हो जाएगी । नदियां परिवहन का कार्य कई रूपों में करती है
जैसे –

1 कर्षण द्वारा अथवा लुढ़ककर
2 उत्परिवर्तन द्वारा उछल – उछल कर
3 लटक कर
4 – घूल कर
निक्षेप जनित स्थलाकृति – निक्षेप जनित स्थलाकृतियों को स्थानीय स्तर पर रचनात्मक स्थलाकृति का दर्जा दिया जाता हैै। जबकि अपरदन जनित स्थलाकृतिया विनाशात्मक होती है । जब नदिया परिवहन करने की स्थिति में नहीं होती है तब निक्षेप कार्य प्रारंभ कर देती है ।
निक्षेप के कारण-

जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु– जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु गिरीपदीय मैदान में नदी द्वारा निक्षेप जनित एक रचनात्मक स्थलाकृति है। जब नदियां पर्वत से उतर कर मैदान में प्रवेश करती हैं तब उनकी परिवहन शक्ति में कमी आने के कारण वे अवसादों के रूप में बड़े-बड़े चट्टानों के टुकड़ों को पर्वत पाद के पास तथा बारीक कणों को अपेक्षाकृत परिधीय भागों में अर्धवृत्ताकार रूप में निक्षेपित कर देती हैं । गिरीपदीय मैदान में बनी इस प्रकार की स्थलाकृति जलोढ़ पंख या जलोढ़ शंकु कहलाती है।

जलोढ़ पंख का ढाल एवं ऊंचाई जब सामान्य से अधिक हो जाता है तो उसे जलोढ़ शंकु कहते हैं। टालस शंकु जलोढ़ पंख एवं शंकु से भिन्न होते हैं क्योंकि इनका निर्माण बृहद क्षरण से उत्पन्न अवसादो के सामूहिक स्थानांतरण के द्वारा यथोचित स्थान पर होता है। इस प्रकार टालस शंकु के निर्माण में नदी का कोई योगदान नहीं होता है। जलोढ़ पंख द्वारा निर्मित गिरीपदीय जलोढ मैदान भौगोलिक एवं आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि इन्हीं जल लोड पंखों के परिधि वाले भागों में मानव आवास के साथ खेती, के लिए आवश्यक भूमि उपलब्ध हो जाती है। अद्धशुष्क प्रदेशों में यह क्षेत्र खेती के लिए उत्तम स्थल होते हैं।
प्राकृतिक तटबंध– नदी का तल भी निक्षेप के कारण धीरे-धीरे ऊंचा होता रहता है। मिसीसिपी तथा ह्वेंग ही नदियों से प्राकृतिक तटबंध का निर्माण हुआ है। प्रायः यह तटबंध नदी के जल तल से एक या 2 मीटर ऊंचे होते हैं परंतु कई बार ऊंचाई काफी अधिक होती है उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसीसिपी नदी के प्राकृतिक तटबंध कहीं-कहीं 6 से 7 मीटर तक ऊंचे होते हैं। कभी-कभी यह तटबंध बाढ़ के जल के दबाव का सामना नहीं कर पाते। इनमें दरार पड़ने या टूटने से दूर-दूर तक बाढ़ का प्रकोप फैल जाता है। चीन की ह्वेंग ही नदी की घाटी में भीषण बाढो का यही कारण है। इसलिए ह्वेंग ही नदी को ‘चीन का शोक’ कहा जाता है।
ह्वेंग ही मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।
बाढ़ का मैदान– प्रायः प्राकृतिक तटबंध आसपास के क्षेत्र को नदी बाढ़ से बचाते हैं। परंतु कभी-कभी इन तटबंध में दरार आ जाती है ये टूट जाते हैं और नदी का जल आसपास के क्षेत्र में फैल जाती है। बाढ़ की समाप्ति पर नदी अपना तलछट वहीं पर निक्षेपित कर देती है इस प्रकार एक विस्तृत मैदान का निर्माण हो जाता है जिसे बाढ़ का मैदान कहते हैं। यह मैदान प्रतिवर्ष नदियों द्वारा लाई गई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं इसलिए यह बहुत उपजाऊ होते हैं। ह्वेंग ही, मिसिसिपी, गंगा, सिंधु, नील आदि नदियों के मैदान इसी प्रकार बने हैं।प्राकृतिक तटबंध– वर्षा ऋतु में नदी में जल की मात्रा अधिक हो जाने से जब नदी में बाढ़ आती है तो नदी का जल नदी के किनारों को पार करके बहने लगता है। इस अवस्था में नदी की परिवहन शक्ति तथा नदभार दोनों ही अधिक हो जाते हैं। बाढ़ के समाप्त हो जाने पर नदी अपना नदभार का निक्षेप करना आरंभ कर देती है। यह नीचे नदी के किनारे पर सबसे अधिक होता है क्योंकि किनारों पर घर्षण के कारण वेग सबसे कम हो जाता है। यह क्रम प्रतिवर्ष चलता रहता है और नदी के किनारे ऊंचे होते रहते हैं। इस प्रकार नदी के किनारों पर एक बांध बन जाता है जिसे हम प्राकृतिक तटबंध कहते हैं।

  • डेल्टा– जब नदियां सागर व झील में गिरती हैं तो उनके प्रवाह में अवरोध व वेग में निहायत कमी के कारण समुद्र तथा उसके संलग्न क्षेत्र में एक विशेष प्रकार की रचनात्मक क्षेत्र का निर्माण होता है जिसे पहली बार नील नदी के अध्ययन के दौरान हेरोडोटस ने ग्रीक अक्षर डेल्टा के नाम से संबोधित किया।
  • डेल्टा के निर्माण की आवश्यक दशाएं-
  • उचित स्थान- सागर, झील
  • नदी का आकार तथा आयतन अधिक
  • मार्ग लंबा
  • मुहाने के पास नदी का वेग अत्यंत मंद
  • सागरिया लहरें तथा ज्वारीय तरंगे निर्बल हो
  • सागरीय तात्या सागरीय प्लेटें स्थायी हो।
  • डेल्टा का वर्गीकरण
  • आकृति के अनुसार
  • चापाकार डेल्टा
  • पंजाकार डेल्टा
  • ज्वारनदमुख डेल्टा
  • रुण्डित डेल्टा
  • पालयुक्त (क्षींण डेल्टा)
  • विस्तार के अनुसार
  • बृद्धिमान डेल्टा
  • अवरोधित डेल्टा
  • परित्यक्त डेल्टा

चापाकार डेल्टा– इसका निर्माण उस समय होता है जब नदी की मुख्यधारा द्वारा पदार्थों का निक्षेप बीच में अधिक होता है। इससे बीच का भाग निकला हुआ एवं किनारे का भाग संकरा होता है। इस प्रकार के डेल्टा का आकार वृत्त के चाप या धनुष के समान होता है। उदाहरण- गंगा नदी का डेल्टा, राइन नदी का डेल्टा, नील नदी एवं ह्वांहो, सिंधु, मिकांग नदियों का डेल्टा।

पंजाकार डेल्टा– इस प्रकार का डेल्टा प्राकृतिक नदी तटबंधों के जलीय भाग में मनुष्य की उंगलियों के आकार में धारा की शाखाओं में बटने से निर्मित होता है। इनका आकार पक्षियों के पैरों के पंजों से मिलता है।

उदाहरण- मिसिसिपी नदी का डेल्टा।

ज्वारनदमुख डेल्टा– नदी का जल मग्न मुहाना जहां सागर की लहरें निक्षेपित पदार्थों को बहाकर ले जाती हैं एश्चुअरी कहलाता है। ऐसे मुहानो में संकरे डेल्टा का निर्माण होता है।

उदाहरण– नर्मदा, मैकेंजी, हडसन, विस्चुला, ताप्ती, ओडर, एल्ब, सीन, ओब, साइन नदिया इसी प्रकार के डेल्टा हैं।

रूण्डित डेल्टा– सागरीय लहरों के द्वारा डेल्टा निरंतर कटता छटता रहता है। ऐसे कटे-फटे डेल्टा मग्नाकार या रूण्डित डेल्टा कहलाते हैं।

उदाहरण– रायोग्राण्डे का डेल्टा (संयुक्त राज्य अमेरिका) होंग नदी का डेल्टा (वियतनाम)

पालियुक्त डेल्टा– जब नदी की मुख्यधारा की अपेक्षा उसके मुहाने पर किसी वितरिका द्वारा अलग डेल्टा का निर्माण किया जाता है तब मुख्य डेल्टा को पालियुक्त डाटा कहते हैं। इसमें मुख्य डेल्टा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

भौतिक भूगोल की प्रकृति एवं विषय क्षेत्र

By Team Rudra on Sunday, March 28, 2021

भौतिक भूगोल की प्रकृति एवं विषय क्षेत्र –
प्राचीन काल से ही भूगोल विचारकों के अध्ययन का एक केंद्र बिंदु रहा है।
प्राचीन विचारकों यथा भारतीय , रोमन, यूनानी तथा मध्यकालीन एवं आधुनिक भूगोलवेत्ताओं ने भूगोल को परिभाषित करने का प्रयास किया है ।हम जानते हैं कि भूगोल आंग्ल भाषा के ज्योग्राफी का है। इसकी उत्पत्ति यूनानी भाषा के Ge (जी) तथा Grapho(ग्राफो) के योग से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ पृथ्वी का वर्णन होता है। पीटर हैगेट के अनुसार भूगोल पृथ्वी का दर्पण है।
हम्बोल्ट ने पृथ्वी के अध्ययन को भूगोल के अध्ययन का प्रमुख केंद्रीय विषय वस्तु बताया।
वही कार्ल रिटर के अनुसार भूगोल का उद्देश्य पृथ्वी के तल का अध्ययन है जो मानव का निवास गृह है।
विषय क्षेत्र- पृथ्वी पर स्थित भुदृश्य
भूगोल की प्रकृति व विषय क्षेत्रों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
भूदृश्य दो प्रकार के होते हैं-
1-प्राकृतिक भूदृश्य
2-सांस्कृतिक भू दृश्य
आधुनिक काल के भूगोलवेत्ता वरेनियस ने अपनी पुस्तक ज्योग्राफिक जेनेरेलिस में भूगोल की प्रकृति एवं विषय क्षेत्र को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
हम जानते हैं कि प्राकृतिक भूदृश्य का अध्ययन वर्तमान में हम भौतिक भूगोल के अंतर्गत करते हैं।
भूदृश्यों के प्रमुख वर्गीकरण को आधार बनाते हुए भूगोल के दो प्रमुख विभाग निर्धारित किए गए हैं।
1-भौतिक भूगोल
2-मानव भूगोल
भौतिक भूगोल के अंतर्गत हम मुख्य रूप से प्राकृतिक भूदृश्यों से संबंधित भौगोलिक तथ्यों का अध्ययन करते हैं।

भू आकृति विज्ञान का मुख्य अध्ययन वस्तु पृथ्वी पर स्थित विभिन्न प्रकार की उच्चावच है।
उच्चावचो की निर्माण प्रक्रम एवं मानव के अंतरसंबंधों का अध्ययन भी इसके अंतर्गत करते हैं।
हम जानते हैं कि उच्चावच तीन प्रकार के होते हैं-
1-प्रथम श्रेणी के उच्चावच- महाद्वीप, महासागर
2-द्वितीय श्रेणी के उच्चावच- पर्वत, पठार, मैदान
3-तृतीय श्रेणी के उच्चावच- नदी, पवन, आदि द्वारा निर्मित तृतीत स्थालाकृति
भू आकृति विज्ञान के अंतर्गत अग्रलिखित विषय वस्तुओं का हम लोग अध्ययन करते हैं।
•भू आकृति विज्ञान की उत्पत्ति एवं विषय क्षेत्र
•पृथ्वी की भूगर्भिक समय सारणी
•पृथ्वी की उत्पत्ति
•महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति
•प्लेट टेक्टोनिक सिद्धांत तथा वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन •सिद्धांत
•भू संचलन
•पृथ्वी की आंतरिक संरचना
•चट्टान
•भूकंप
•ज्वालामुखी
•पर्वत निर्माण
•पर्वत पठार मैदान
•अपवाह तंत्र एवं अपवाह प्रतिरूप
•अनाच्छादन प्रक्रम
•अपक्षय प्रक्रम
•जलधारा आकार की
•अपरदन चक्र की संकल्पना
•थार की संकल्पना
•तृतीय स्थलाकृतियां
•भू अकारामिती
•अनुप्रयोगी भूअकारामिति

स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांत ( Theory of landform development)

By Team Rudra on Thursday, February 18, 2021

परिचय –

स्थलरूप की उत्पत्ति से संबंधित विषय वस्तु भू-आकृतिक विज्ञान के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र बिंदु रहा है।
अनेक भू-आकृतिक विज्ञानियों ने स्थलाकृतिक विकास को मॉडलों के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है किंतु आज भी कोई भी मॉडल सर्वमान्य नहीं हो पाया है। स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांतों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।
1- समय निर्भर स्थल रूप संकल्पना – डेविस
2- time independent landform concept on dynamic equilibrium concept – स्ट्रॉलर
3- प्रक्रम रूप संकल्पना ( process from concept)
4- जलवायु भू-आकारिकी संकल्पना ( climatogenetic concept)
5- संरचना रूप संकल्पना ( structure from concept)
6- विवर्तनिकी संकल्पना ( tectonic concept)
हम जानते हैं कि स्थल आकृतियों अनंतर्जात बल तथा बहिर्जात बल का प्रतिफल होती हैं। स्कॉटिश भूगोलवेत्ता हटन ने माना “न आदि का कोई पता है और न अंत का कोई भविष्य” है। No vestige of the beginning, no prospect of an end”. कथन के माध्यम से भूविज्ञान में चक्रीय पद्धति की संकल्पना को जन्म दिया और इसी आधार पर उन्होंने एकरूपतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। आगे चलकर अमेरिकी विद्वान डेविस ने भौगोलिक अपरदन चक्र की संकल्पना के माध्यम से स्थलरूपों के विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया। पेंक ने भू-आकृति सिस्टम अथवा विश्लेषण के माध्यम से स्थल रूपों के उत्पत्ति को बताने का प्रयास किया।
स्थल रूपों के विकास को स्पष्ट करने के क्षेत्र में अग्रलिखित भूगोलवेत्ताओं ने सराहनीय प्रयास किया है।
1- शुष्क अपरदन चक्र की संकल्पना – डेविस ( 1905) ,बीटी ( 1911), स्वीजिक ( 1918), सैण्डर्स ( 1921)
2- क्रिकये का पैनप्लेनेशन
3- किंग का पेडिप्लेनशन चक्र
4- पुगं तथा थामस का सावाना अपरदन चक्र
5- गतिक संतुलन संकल्पना – स्ट्रॉलर, चोले,हेग।
6- मोरिसावा का भू – आकृतिकी विवर्तनिकी मॉडल
7- सूम एवं लिटी का खंड कालिक अपरदन मॉडल
ये मॉडल डेविस के मॉडल के परिमार्जित रूप हैं।

स्थलाकृतिक विकास के सिद्धांत


डेविस का अपरदन चक्र


डेविस ने स्थल रूपों के विकास से संबंधित कई सामान सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इनका भू-आकृतिक सिद्धांत कई सिद्धांतों का समूह है।
1- सरिता का जीवन चक्र (1899)
2- शुष्क अपरदन चक्र ( 1903, 1905, 1930)
3- भौगोलिक चक्र ( 1899)
4- हिमानी अपरदन चक्र ( 1900,1906)
5- सागरी अपरदन चक्र ( 1912)
नोट – इन्होंने परहिमानी तथा कास्ट क्षेत्रों के निर्मित स्थलाकृतियों से संबंधित किसी स्थलाकृतिक विकास सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया है।

  • डेविस का भौगोलिक चक्र या अपरदन चक्र सिद्धांत वर्हिजनित भू – संचलन के सिद्धांत से पृथ्वी के सतह पर होने वाले परिवर्तन के संदर्भ में पावेल ने (18। ) आधार तल की संकल्पना का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार अपरदन क्रिया अधारतल तक होती है। अर्थात जब स्थलाकृतियां अधारतल ( मुख्यतः समुद्र जल स्तर) को प्राप्त कर लेती है तब अपरदन क्रिया समाप्त हो जाती हैं। पावेल की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए डेविस ने स्थलाकृतिक विकास से संबंधित अपने अपरदन चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया।
  • इनके अनुसार अपरदन चक्र समय कि वह अवधि जिसके अंतर्गत उतिथ भूखंड अपरदन की क्रिया द्वारा आधार तल को प्राप्त कर लेते हैं।
  • डेविस के अनुसार स्थलाकृतिया स्थलाकृतिक संरचना प्रक्रम तथा अवस्था के प्रतिफल होते हैं।इसे डेविस के त्रिकूट भी कहा जाता है। डार्विन के विकासवाद की संकल्पना से प्रभावित होकर इन्होंने स्थलाकृतियों के विकास की तुलना जैविक समुदाय/घटक से की। इनके अनुसार स्थलाकृतियों का भी एक अपना जीवन चक्र होता है। तथा इसके विकास यात्रा को भी जैविक घटकों के समान युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था में वर्गीकृत किया जा सकता है।

मान्यताएं

1- उत्थान अल्पकालिक व तीव्र गति से होता है।

2- युवावस्था में स्थितिज व गतिज ऊर्जा अत्यधिक होता है।

3- उत्थान की प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही अपरदन की प्रक्रिया होती है।

4- नदियां तब तक अपरदन करती हैं जब तक वह प्रमाणित ना हो जाए ( आधार ताल)

5- अल्पकालिक तीव्र उत्थान के बाद स्थलाकृति दीर्घकाल तक स्थिर रहती हैं।

सापेक्षिक ऊंचाई = ऊर्ध्वाधर अपरदन की ऊंचाई ( + -) = क्षैतिज अपरदन

तैयारी की अवस्था – इसे अपरदन चक्र की अवस्था में स्थान नहीं दिया जाता है। इस अवस्था मेंं स्थलाकृतिया अल्पकाल मेंं तीव्र गति से उठ जाती हैं।

मुख्य संरचना

  • डेविस का मॉडल एक समय नियंत्रित मॉडल है उनके अनुसार स्थल रूप संरचना प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल होता है।
  • इनके अनुसार अपरदन चक्र, समय कि वह अवधि है जिसके अंतर्गत एक उत्थित भूखंड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृति बिहीन समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता है।
  • इन्होंने अपनी भौगोलिक चक्र को तीन अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है।
  • डेविस के अनुसार उत्थान के प्रक्रिया के समाप्ति के बाद ही अपरदन का कार्य शुरू होता है।
  • डेविस ने इसे तैयारी की अवस्था कहा और अपने मॉडल में इसकी स्थापना नहीं किया।

1- युवावस्था ( youth stage)

  • अपरदन चक्र की युवावस्था में निक्षेप और सापेक्ष उच्चावच अधिक होते हैं।
  • इस अवस्था में कई विशिष्ट स्थलाकृतियों का जन्म होता है। V आकार की घाटी, जलप्रपात व क्षिप्रिका गार्ज और कैनियन
  • सर्वप्रथम दालों के अनुरूप अनुवर्ती नदियों का विकास/छोटी नदियां एवं सहायक नदियों की संख्या भी कम।
  • इस अवस्था में जल विभाजन की चौड़ाई काफी अधिक होती है।
  • शीर्षवर्ती अपरदन द्वारा सरिता अपहरण की घटना इस अवस्था की एक प्रमुख घटना है।
  • घाटी के गहरे होने की अवस्था भी इसे कहते हैं।
  • पादपाकार अपवाह प्रतिरूप का विकास।
  • बोझ कम होने के कारण ( परिवहन क्षमता के अनुरूप) नदी की बहाव गति तीव्र।
  • अपरदन सर्वाधिक किंतु कार्यक्रम
  • ढाल अधिक

2- प्रौढ़ावस्था ( Meture stage)

  • जब क्षैतिज अपरदन की दर ऊर्ध्वाधर अपरदन की दर से अधिक हो जाती है। वैसी स्थिति में स्थलाकृति अपनी विकास की प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करती हैं। चुकीं इस अवस्था में पार्श्विक अपरदन के द्वारा घाटी चौड़ी होती है इसलिए इसे घाटी के चौड़ा होने की अवस्था कहते हैं।
  • इस अवस्था में निरपेक्ष उच्चावच तथा सापेक्ष उच्चावच दोनों में तेजी से कमी आती है। पार्श्विक अपरदन के कारण जल विभाजक काफी सकरे हो जाते हैं। जल प्रपात तथा क्षिप्रिकाए ,V आकार की घाटी जैसी स्थलाकृतिया लुप्त हो जाती है।
  • जलोढ़ पंक, जलोढ़ शंकु, तटबंध आदि नई स्थलाकृतिया विकसित होती हैं।
  • सहायक नदियों की संख्या अत्यधिक।
  • जलोढ़ वर्षा एवं जलोढ़ शंकु की एक दूसरे से विस्तृत होकर मिलने गिरपदीय जालौर मैदानों का निर्माण।
  • मुख्य नदी के आधार तल को प्राप्त कर क्रमबद्ध हो जाने, साम्यावस्था की परिच्छेदिका का निर्माण
  • इस तरह नदी के अपरदन एवं निक्षेप कार्यों में संतुलन स्थापित होता है।
  • समुद्र भागों में बलखाती हुई प्रवाहित नदियों के द्वारा विसर्पो, गोखुर झील, एवं तटबंध का निर्माण।


वृद्धावस्था ( old stage)

  • जब ऊर्ध्वाधर अपरदन का दर स्थगन हो जाता है तो स्थलाकृति अपने विकास की वृद्धावस्था में पहुंच जाती है।
  • इस अवस्था में क्षैतिज अपरदन के साथ अवसादो के निक्षेपण के कारण निरपेक्ष तथा सापेक्ष उच्चावच में तीव्र गति से कमी आती है।
  • इस अवस्था में पार्श्विक अपरदन तथा घाटी के चौड़ा होने का कार्य जारी रहता है।
  • सहायक नदियों की संख्या प्रौढ़ावस्था से कम किंतु वृद्धावस्था से कम होती है।
  • सहायक नदियां आधार तल को प्राप्त कर लेती हैं।
  • इस अवस्था में निरपेक्ष तथा सापेक्ष उच्चावच दोनों न्यूनतम होते जाते हैं। जब स्थलाकृति अपने आधार तल को प्राप्त कर लेती है तब की स्थिति में आकृति बिहीन समतल मैदान का निर्माण होता है। जिसे डेविस ने पेनिप्लेन कहा। तथा पेनिप्लेन पर कठोर चट्टानों से निर्मित अवशिष्ठ स्थलाकृति को मोनाडनाक कहा।
  • इस अवस्था में विसर्प एवं गोखुर झील का विस्तार तथा डेल्टा आदि विशिष्ट आकृतियां विकसित होती हैं।
  • डेविस ने अपने भौगोलिक चक्र का वर्णन करते समय नदी प्रक्रम को महत्व दिया।


आलोचना

प्रासंगिकता

  • प्रलयवाद की संकल्पना ,एकरूपता वाद के सिद्धांत तथा गिल्बर्ट के भू-आकृति नियमों ने भू-विज्ञान के साथ-साथ भू-आकृति विज्ञान के विकास हेतु आधार का कार्य किया।
  • डेविस ने अपने अपरदन चक्र के माध्यम से उपरोक्त नियमों व संकल्पनाओं का उपयोग किया।
  • वर्तमान में स्थल रूप विकास का सिद्धांत के परिपेक्ष में जो भी अध्ययन हो रहा है। उसमें डेविस की अहम भूमिका रही।
  • डेविस के अपरदन चक्र के बिना स्थल रूप विकास सिद्धांत की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

प्लेट विवर्तनिकी

By Team Rudra on Sunday, December 13, 2020

भूमिका

  • क्रस्ट एवं ऊपरी मेंटल के ऊपरी परत से निर्मित स्थल मंडल तथा जलमंडल के बृहद खंड को प्लेट कहते हैं। जो दुर्बलता मंडल के ऊपर संचालन करते हैं इन्हें प्लेटों के संचालन के कारण प्लेट के आंतरिक भागों में होने वाले विरूपण के अध्ययन को प्लेट विवर्तनिकी कहते हैं।
  • प्लेट विवर्तनिकी विस्थापन का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं जाता है, बल्कि यह महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत पूरा चुंबकत्व अध्ययन तथा सागर नितल प्रसरण सिद्धांत का सम्मिलित रूप है।

1- प्रशांत प्लेट

2- उत्तरी अमेरिकन प्लेट

3- दक्षिणी अमेरिकन प्लेट

4- अफ्रीकन प्लेट

5- यूरेशियन प्लेट

6- भारतीय प्लेट या इंदौर ऑस्ट्रेलियन प्लेट

7- अंटार्कटिका प्लेट।

इसके अलावा कई छोटे प्लेट हैं इनमें फिलीपींस प्लेट, अरेबियन प्लेट, कैरीबियन प्लेट, कोकोस प्लेट (पनामा के पास) ,नजका प्लेट(पेरू के पास), स्कोशिया प्लेट ( अर्जेंटीना के दक्षिण में), सोमाली प्लेट,वर्मी प्लेट इत्यादि।

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का विकास:

  • वर्ष 1955 में सर्वप्रथम कनाडा के भू-वैज्ञानिक जे. टूजो विल्सन (J-Tuzo Wilson) ने ‘प्लेट’ शब्द का प्रयोग किया।
  • वर्ष 1967 में मैकेंजी, व पारकर पूर्व के उपलब्ध विचारों को समन्वित कर ‘प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया।
  • बाद में वर्ष 1968 में मॉर्गन ने इस सिद्धांत को रेखांकित किया।

प्लेट एवं प्लेट विवर्तनिकी:

  • क्रस्ट एवं ऊपरी मेंटल की ऊपरी परत से निर्मित 5 किलोमीटर से लेकर 200 किलोमीटर मोटाई की ठोस परत अर्थात् स्थलमंडल के वृहद भाग को प्लेट कहते हैं। क्रस्ट + ऊपरी मेंटल का ऊपरी भाग= प्लेट
  • दो प्लेटों को विभाजित करने वाली रेखा को प्लेट सीमा कहते हैं।
  • प्लेट सीमा के दोनों ओर स्थित क्षेत्र जहां प्लेटो की गति का सर्वाधिक प्रभाव होता है उसे प्लेट सीमांत (plate merging ) कहते हैं।
    • यह कई खंडों में विभाजित होती है जो महाद्वीपीय और महासागरीय क्रस्ट से निर्मित होती है।
    • इनमें सिलिका, एल्युमिनियम तथा मैग्नीशियम की अधिकता होती है।
    • प्लेटो की दूर जाने तथा पास आने की क्रिया को विवर्तनिकी कहते हैं।
    • प्लेटो का संचलन दो प्रकार का होता है। ऊर्ध्वाधर संचलन द्वारा और क्षैतिज संचलन
  • ये प्लेटें स्वतंत्र रूप से पृथ्वी के दुर्बलमंडल (प्लास्टिक मंडल) पर विभिन्न दिशाओं में संचलन करती हैं।
  • प्लेटों के एक दूसरे के सापेक्ष होने वाले संचलन के परिणामस्वरूप पृथ्वी की सतह पर होने वाले परिवर्तन के अध्ययन को प्लेट विवर्तनिकी कहते हैं।

प्लेट्स के संचरन का कारण

  • मुख्यतः संवहन तरंग, कटक दबाव एवं स्लैब खिंचाव को सम्मिलित रूप को प्लेट संचलन के लिये उत्तरदायी माना जाता है।
    • जिसमें संवहन तरंगों का योगदान सर्वाधिक होता है।
    • ध्यातव्य है कि संवहन तरंगों की उत्पत्ति तापमान में वृद्धि एवं दाब में कमी के कारण गर्मगलित पदार्थ अर्थात् मैग्मा के प्रभाव से होती है।

प्लेट संचलन के प्रकार: प्लेटों का संचलन तीन प्रकार से होता है।

अपसारी संचलन-

  • जब दो प्लेटें एक-दूसरे की विपरीत दिशा में गमन करती हैं तो उसे अपसारी संचलन कहा जाता हैं।
  • अपसारी प्लेट किनारों पर नए क्रस्ट का निर्माण होने के कारण इन्हें रचनात्मक सीमा तथा सीमांत भी कहते हैं।
  • विश्व के अधिकांश सीमांत तथा अपसारी सीमा मध्य महासागरीय कटकों के सहारे हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण मध्य-अटलांटिक कटक है।
  • अपसारी संचलन के द्वारा प्लेटो का निर्माण होता है।

अभिसारी संचलन-

  • इसमें दो प्लेटें एक-दूसरे की ओर गति करती हैं। यहाँ पर भारी (अधिक घनत्व वाली) एवं तेज़ गति वाली प्लेट का हल्की व कम गति वाली प्लेट के नीचे क्षेपण होता है।
  • क्षेपण के कारण यहाँ क्षेपित सीमांत का क्षय होता है। इसके फलस्वरूप इसे विनाशात्मक सीमा एवं सीमांत भी कहते हैं।
  • अभिसारी सीमा पर जब कोई भी प्लेट गहराई में क्षेपित होती तो यहाँ ज्वालामुखी पर्वतों के स्थान पर वलित पर्वतों का निर्माण होता है।
  • हिमालय पर्वत तथा अप्लेशियन पर्वत का निर्माण अभिसारी प्लेट सीमा पर ही हुआ है।
  • अभिसारी संचलन द्वारा प्लेटो का विनाश होता है।

अभिसारी प्लेट संचलन तीन प्रकार से होता है।

1-महाद्वीपीय- महासागरीय संचलन

2- महाद्वीपीय- महाद्वीपीय संचलन

3- महासागरीय- महासागरीय संचलन

समानांतर प्लेट संचलन/संरक्षी प्लेट सीमा तथा सीमांत-

  • जब प्लेटें एक-दूसरे के समानांतर गति करती हैं जिससे न तो किसी प्रकार की पर्पटी का निर्माण होता है न विनाश होता है समानांतर प्लेट संचलन या संरक्षी प्लेट सीमांत कहलाता है।
  • संरक्षी प्लेट सीमा पर बहुत अधिक भूकंप आते हैं। 
  • प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर भूंकप, ज्वालामुखी एवं पर्वत निर्माण की प्रक्रिया की व्याख्या की जा सकती है।

सागर तल प्रसरण

प्लेटों की गतिशीलता के कारण इनके के किनारे या सीमायें तीन प्रकार के पाए जाते हैं।

विनाशात्मक/अभिसारी किनारा

इस प्रकार के किनारों के सहारे दो प्लेटें एक दूसरे की ओर गति करती हैं और टकराकर उनमें से भारी प्लेट हलकी प्लेट के नीचे क्षेपित होती है। मुड़कर नीचे की ओर क्षेपित होने वाला यह हिस्सा गहराई में जा कर ताप और दाब की अधिकता के कारण पिघलकर मैग्मा में परिवर्तित होता है।जिस गहराई पर यह घटना होती है उसे क्षेपण मण्डल या बेनीऑफ़ ज़ोन कहते हैं। ऐसे किनारों के सहारे भूसन्नतियों के पदार्थ दबाव के कारण मुड़कर पर्वतों का निर्माण करते हैं। नीचे जाकर पिघला पदार्थ मैग्मा प्लूम के रूप में ऊपर उठ कर ज्वालामुखीयता भी उत्पन्न करता है।

रचनात्मक/अपसारी किनारा

जहाँ दो प्लेटें एक दूसरे के विपरीत गतिशील होती हैं, अर्थात एक दूसरे से दूर हटती हैं वहाँ नीचे से मैग्मा ऊपर उठकर नयी प्लेट का निर्माण करता है। इन किनारों पर पाए जाने वाले सबसे प्रमुख स्थलरूप मध्य महासागरीय कटक हैं। जब यह किनारा किसी महाद्वीप पर स्थित होता है तो रिफ्ट घाटियों का निर्माण होता है।नयी प्लेट के निर्माण के कारण इसे रचनात्मक किनारा भी कहते हैं।

संरक्षणात्मक किनारा

संरक्षी किनारा वह है जिसके सहारे दो प्लेटे एक दूसरे को रगड़ते हुए गतिशील हों, अर्थात न तो अपसरण हो रहा हो न ही अभिसरण। सामान्यतः इस किनारे के सहारे एक दूसरे को रगड़ते हुये विपरीत दिशाओं में गतिशील होती हैं किन्तु यह अनिवार्य नहीं है, यदि दो प्लेटें एक ही दिशा में गतिशील हों और उनकी गति अलग-अलग हो तब भी उनके किनारे रगड़ते हुये संरक्षी किनारा बना सकते हैं। इनके सहारे ट्रांसफोर्म भ्रंश पाए जाते हैं। चूँकि इनके सहारे न तो प्लेट (क्रस्ट या स्थलमण्डल) का निर्माण होता है और न ही विनाश अतः इन्हें संरक्षी/संरक्षणात्मक किनारे कहते हैं जहाँ निर्माण/विनाश के सन्दर्भों में यथास्थिति संरक्षित रहती है।

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