मानव वातावरण संबंध
प्राचीन काल से ही मानव और प्राकृतिक पर्यावरण के अंर्तसंबंधों पर आधारित अध्ययन को महत्व दिया जाता रहा है। देश , काल , परिस्थिति के संदर्भ में मानव व वातावरण के संबंधों में बदलाव आता रहता है। इन बदलते संबंधों ने भूगोल में कई विचारधाराओं को जन्म दिया।
मानव भूगोल में प्रचलित प्रमुख वाद
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नियतिवाद
मानव वातावरण के संबंधों के अंतर्गत विकसित नियतिवादी संकल्पना में प्रकृति की सत्ता को सर्वोपरि माना गया है। इस वाद में प्रकृति को सर्वशक्ति माना गया है, जो मानव के सभी पहलुओं यथा सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, क्रियाकलाप व व्यवहार को नियंत्रित करती है। यह एक प्रकार का भौतिक प्रकृतिवाद है। जो प्राचीन ग्रीक व रोमन परंपराओं में स्पष्ट दिखता है।
प्राचीन सभ्यताओं ( भारतीय, मेसोपोटामिया, बेवीलोन, सुमेरिया) में प्रकृति के विभिन्न रूपों में पूंजी जाती रही है। प्राचीन विचारको यथा अरस्तु, हैरोडोटस, हिप्पार्कस आदि द्वारा प्रकृति को श्रेष्ठ बताया गया है।
हिप्पार्कस मानना था कि जल, वायु, अग्नि तथा स्थान का मानव के विकास पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। अरस्तु के अनुसार किसी भी क्षेत्र विशेष की जलवायु दशा वहां के मानव समुदाय की जीवन शैली को प्रभावित करती हैं। इसी कारण से शीतोष्ण क्षेत्र के लोग अधिक साहसी व शक्तिशाली होते हैं जबकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के लोग मानसिक रूप से सुस्त (अक्रिय) होते हैं।
रोमन भूगोलवेत्ता स्ट्रेबो का यह मानना था कि उच्चावच जलवायु व भौगोलिक अवस्थिति का मानव जीवन शैली पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।उनके अनुसार इटली की तटीय अवस्थिति व भूमध्यसागरीय जलवायु के कारण वहां की प्राकृतिक दशाएं मानव वास के लिए अत्यंत अनुकूल है, जो इटली के विकास व रोमन साम्राज्य के विस्तार का महत्वपूर्ण कारण है।
इब्नखाल्दून को प्रथम पर्यावरण नियतिवादी माना जाता है। अलबरूनी, अल मसूदी जैसे मध्यकालीन अरबी भूगोलवेत्ताओं का भी प्रकृति की सत्ता में पूर्ण विश्वास था।
इमैनुअल काण्ट , हम्बोल्ट रिटर जैसे जर्मन भूगोलवेत्ताओ ने भी भौगोलिक अध्ययन में प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव को अधिक महत्व प्रदान किया।
हंबोल्ट प्रकृति व मानव को एक ही परितंत्र के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार दोनों के मध्य अन्योन्याश्रित संबंध होता हैं। वे मानव प्रकृति के संबंधों को स्पष्ट करने के लिए ‘hanging together’ शब्द का उपयोग करते हैं। यहां तक की रिटर जो एक मानव भूगोलवेत्ता थे और ईश्वर वादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे, ने भी अपनी पुस्तक अर्डकुण्डे में मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य संबंधों को स्पष्ट करने का प्रयास किया था।
मानव भूगोल के संस्थापक रैटजेल को नियतिवादी विचारधारा को स्पष्ट रूप से प्रभावित करने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक एंथ्रोपॉजियोग्राफी – 1881 में इस संकल्पना पर विस्तृत प्रकाश डाला।
1- रैटजेल के अनुसार – प्राकृतिक पर्यावरण मानव की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। इनका मानना था कि समान स्थितियां समान जीवन शैली को जन्म देती है। रैटजेल से प्रभावित होकर अमेरिकी भूगोलवेत्ता कुमारी चर्चिल सैंपुल ने अमेरिका में इस विचारधारा को प्रचारित, प्रसारित करने का प्रयास किया। अपनी पुस्तक ‘influence of geographical environment’ में इस विचारधारा का समर्थन करते हुए कहा कि मानव का जन्म पृथ्वी की धूल से हुई है, यही पृथ्वी मानव का पालन पोषण भी करती हैं। मानव पर प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए लिखा कि पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली मैदानी प्रदेशों केे समुदाय से भिन्न होती है। ऐसे (पर्वतीय) समुदाय न केवल एक ही जीवन व्यतीत करते हैं बल्कि उनमें अलगाववाद की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।
2- रीटर व डार्विन को वैज्ञानिक नियतिवादी कहा गया क्योंकि उन्होंने प्रत्यक्ष निरीक्षण वह वैज्ञानिक अन्वेषण के आधार पर मानव प्रकृति संबंधों को स्पष्ट करने का प्रयास किया। हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक climate and civilization में इतिहास को भूगोल का उत्पाद माना। उनका मानना था कि जलवायु परिवर्तन इतिहास में संवेदना पैदा करता है।
3- इस प्रकार देखा जाए तो प्राकृतिक पर्यावरण पर आधारित निश्चयवादी विचारधारा का प्रभाव भौगोलिक अध्ययन में प्राचीन काल से होकर द्वितीय विश्व युद्ध तक बना रहा।
आलोचनात्मक मूल्यांकन करने पर यह विचारधारा अत्यंत अतिरंजित प्रतीत होती है।
4- फ्रेंडरिक लीप्ले ने स्थान कार्य लोक संकल्पना तथा डियोलिन्स ने ‘society is fashioned by environment के माध्यम से प्रकृतिवाद में आस्था व्यक्त की। अर्नेस्ट हैकेल अपनी इकोलॉजी की संकल्पना में अनुकूलन की बात करते हैं।
यह एक अतिरंजित विचारधारा थी , तथा इसका विरोध संभववाद, नव नियतिवाद का प्रतिपादन करके किया गया। यदि वर्तमान संदर्भ में भी देखा जाए तो भी यह विचारधारा सही नहीं है क्योंकि मानव ने अपने कौशल के बल पर मानव प्रतिकूल प्रदेश में ( आर्कटिक, रेगिस्तान एवं विश्वतरेखी प्रदेशों) भी अपने निवासी योग्य स्थान बनाया बल्कि अपनी सुविधानुसार उसमें परिवर्तन भी किया। इसी तरह हरित गृह में सब्जी उगाना , कृत्रिम वर्षा, रेगिस्तान में नवीन सिंचाई की विधियों से फसल उगाने के द्वारा मानव श्रेष्ठता सिद्ध हुई।
लेकिन वर्तमान समय में पर्यावरण अवनयन तथा आपदा क्रिया में उसके दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं। इसलिए हमें नवनियत का विचारधारा का समर्थन करना चाहिए, जो मानव प्रकृति अंतर्संबंधों को विजेता – दास के रूप में नहीं बल्कि दोनों के बीच समायोजन पर बल देता है। उत्तराखंड में आई आपदा इस कथन को सही ठहराती है कि प्रकृति के आदेशों को मानकर ही हम उस पर विजय पा सकते हैं।