लॉर्ड कैनविन का मत- इनके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति वायव्य कुण्डलाकार निहारिका से हुई है। यह अपनी प्रारंभिक अवस्था में वायव्य अवस्था में थी। पृथ्वी के शीतल होते समय संकुचन के कारण कुछ भाग ऊंचा रह गया तथा कुछ भाग नीचे की ओर धंस गया। ऊपर उठा भाग महाद्वीप बना तथा नीच धंसा भाग महासागर बना।
आलोचना–
1- महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत के विपरीत।
2- इनके अनुसार महाद्वीपों एवं महासागरों का वितरण दोनों गोलार्धों में समान होनी चाहिए जबकि वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है।
लैपवर्थ एवं लव की संकल्पना– इन्होंने पृथ्वी पर बड़े पैमाने पर होने वाले वलन क्रिया को महाद्वीप एवं महासागरों की उत्पत्ति का कारण बताया। लैपवर्थ के अनुसार पृथ्वी के उष्मा के लगातार ह्रास होने के कारण उसके पपड़ी में संकुचन प्रारंभ हो गया। संकुचन के कारण वलन का निर्माण हुआ। वलन की अपनति वाला भाग महाद्वीप बन गया जबकि अभिनति वाला भाग महासागर बना।
आलोचना–
• केवल तापीय ह्रास एवं संकुचन के कारण वलन की क्रिया घटित हुई न्याय संगत नहीं जान पड़ता।
• सागरीय तथा स्थलीय भाग पर स्वतंत्र वलन बड़े पैमाने पर पाया जाना प्रमाणित नहीं हो पाता है।
लव ने लैपवर्थ की उपयुक्त परिकल्पना में संशोधन प्रस्तुत किया।
गणितीय सूत्रों के आधार पर बताया कि किसी भी वस्तु का ज्यामिति एवं गुरुत्व एक प्रकार नहीं हो सकता।
पृथ्वी की केंद्रीय आकर्षण शक्ति के कारण उसके धरातलीय भागों पर अनेक स्थानों पर उठाव एवं धसाव हुआ। धंसे भागों में जल संचयन के कारण महासागरों का निर्माण हुआ जबकि ऊपर उठे भाग महाद्वीपों में परिवर्तित हुए।
लव के अनुसार महाद्वीपों की स्थिति महासागरों के प्रति ध्रुवस्त है।
लोथियन ग्रीन की चतुष्फलक परिकल्पना– कुछ वैज्ञानिकों ने ज्यामिति आधार पर महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति की समस्या को सुलझाने का प्रयास किया।
इली डी ब्यूमाण्ट की पैण्टागोनल डोडेकाहेड्रान परिकल्पना को इस क्षेत्र में प्रथम प्रयास माना जाता है। किंतु ज्यामितीय सिद्धांतों में लोथियन ग्रीन की चतुष्फलकीय परिकल्पना (Tetrahedral hypothesis) अधिक महत्वपूर्ण है। हालांकि यह परिकल्पना कुछ अशुद्धियों एवं त्रुटियों से ग्रस्त है। किंतु स्थल और सागरों का सही वितरण प्रस्तुत करती है। इसी तरह उत्पत्ति के विषय में यह परिकल्पना सही विवरण प्रस्तुत करती है।
इन्होंने निम्नांकित तथ्यों को अपनी परिकल्पना द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया-
1- उत्तरी गोलार्ध में स्थल तथा दक्षिणी गोलार्ध में जल की बहुलता।
2- स्थल तथा जल का त्रिभुज के रूप में पाया जाना।
3- महाद्वीपों तथा महासागरों की प्रतिध्रुवस्त स्थिति।
4- प्रशांत महासागर का विस्तार अत्यधिक है जो पृथ्वी के क्षेत्रफल का एक तिहाई भाग घेरे हुए हैं।
5- प्रशांत महासागर चारों ओर से नवीन पर्वत से घिरा हुआ है।
उपयुक्त तथ्यों के आलोक में लोथियन ग्रीन ने 1975 में अपना चतुष्फलकीय संकल्पना प्रस्तुत किया। इनका समस्त सिद्धांत चतुष्फलक के समान विशेषताओं पर आधारित है।
चतुष्फलक वह आकृति है जो बराबर भुजाओं वाले चार त्रिभुजों (जोकि सपाट तथा चपटा धरातल वाले होते हैं) की बनी होती है।
ग्रीन ने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन ज्यामितीय के इन 2 तथ्यों के आधार पर बताया-
1- एक गोला वह आकृति है जिसका आयतन उसके धरातलीय क्षेत्र के अपेक्षा सर्वाधिक होता है।
2- एक चतुष्फलक वह आकृति है जिसका आयतन धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा न्यूनतम होती है।
इनके अनुसार पृथ्वी चतुष्फलक के समरूप है। उनके अनुसार यदि किसी गोले के धरातल पर चारों ओर से समान दबाव डाला जाए तो गोला चतुष्फलक के आकार में परिवर्तित हो जाता है।
इसी विचार को उन्होंने पुनः पृथ्वी पर लागू किया इनके अनुसार पृथ्वी अपने उत्पत्ति के समय गोले के रूप में थी। उत्पत्ति के कुछ समय बाद वह शीतल होना प्रारंभ हो गई। पृथ्वी की पपड़ी सबसे पहले व तीव्र गति से शीतल हुई तथा उसका आंतरिक भाग धीरेे-धीरे धीरे शीतल होने लगा। चुकी आंतरिक भाग धीरे-धीरे शीतल हो रहा था। इस परिणाम स्वरूप उसका आयतन पृथ्वी की पपड़ी की तुलना में काफी घट गया। तथा उसमें पृथ्वी की पपड़ी की तुलना में ज्यादा संकुचन भी हुआ।
उल्लेखनीय है कि पृथ्वी की पपड़ी बहुत पहले ही शीतल हो गई थी इसलिए उसमें और अधिक सिकुड़न नहीं आ सका।
पृथ्वी के ऊपरी व आंतरिक भागों में इस कारण से काफी अंतर आ गया। इस तरह शीतल होने व संकुचन के कारण पृथ्वी का आकार चतुष्फलक के रूप में होने लगा।
यहां हमें ध्यान देना है कि पृथ्वी की बनावट में भिन्नता के कारण पृथ्वी विशुद्ध चतुष्फलक के रूप में नहीं हो सकी क्योंकि हम जानते हैं की चतुष्फलक के सपाट भाग के विपरीत दिशा में कोने वाले भाग होते हैं जो नुकीले होते हैं जबकि पृथ्वी के विषय में कोणात्मक भाग नुकीला नहीं होता है बल्कि उत्तल व मोटा होता है।
लोथियन ग्रीन के अनुसार इस परिकल्पना के आधार पर सागर व स्थल के वर्तमान वितरण को पूर्णतया समझाया जा सकता है।
उपरोक्त चित्र के माध्यम से स्थल व जल के वितरण को समझा जा सकता है। चित्रानुसार इसके उत्तरी चपटे भाग पर आर्कटिक महासागर स्थित है।
शेष सपाट तीन चपटे भाग पर प्रशांत, हिंद व अटलांटिक महासागर का विस्तार है। जल से उठे कोणात्मक भागों के सहारे उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप फैले हैं।
उत्तरी ध्रुव पर जल तथा दक्षिण ध्रुव पर स्थल की विद्यमानता इनके सिद्धांत को प्रमाणिकता प्रदान करती है।
दक्षिणी शीर्ष बिंदु को छोड़कर शेष तीन शीर्ष बिंदु उत्तरी गोलार्ध में पाए जाते हैं। वर्तमान महाद्वीपों की स्थिति को देखा जाए तो वे चतुष्फलक के भाति दिखाई पड़ते हैं। इनका आधार उत्तर की तरफ तथा शिर्ष दक्षिण की तरफ दिखाई पड़ते हैं।
ग्रेगरी इस परिकल्पना के समर्थक हैं किंतु वे इस परिकल्पना में कुछ संशोधन के सुझाव देते हैं। इनके अनुसार चतुष्फलक के लम्बवत किनारे स्थिर रहेंगे तथा ऊपरी भाग सपाट सतह को घेेरने वाले तीनों सतह परिवर्तनशील होंगे। इसी तरह फ्रेक ने अपने मानचित्र में कैंब्रियन युग के उत्तरी व दक्षिणी गोलार्ध में जल व स्थल के वितरण को पूर्णतया विपरीत दिखाया है।
इस प्रकार ग्रेगरी व फ्रेक के कुछ संशोधनों ने लोथियन ग्रीन के चतुष्फलक परिकल्पना को अधिक सार्थक बना दिया।
टेलर की महाद्वीपीय परिकल्पना
( 1908 ) –
टेलर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना के द्वारा स्थल व क्षैतिज स्थानांतरण को स्पष्ट करना चाहते थे। उनका मुख्य उद्देश्य टर्शियरी युग के मोड़दार पर्वत की व्याख्या करना था। वे उत्तर से दक्षिण दिशा तथा पश्चिम से पूर्व दिशा में फैले मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति की प्रक्रिया का हल करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने संकुचन सिद्धांत के विपरीत महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का प्रतिपादन किया हालांकि एंटोनियो स्नाइडर ने यूरोप तथा अमेरिका में कोयलो की परतों में विद्यमान वनस्पतियों के समानता संदर्भ में महाद्वीपीय प्रवाह का विचार विश्व समुदाय के समक्ष रखा।
टेलर के सिद्धांत की मुख्य बातें – उन्होंने ज्वारिय बल को स्थल प्रवाह का मुख्य कारण बताया। उनके अनुसार क्रीटेशियस युग में जब चंद्रमा पृथ्वी के निकट रहा होगा तो उसका ज्वारीय बल भी काफी अधिक रहा होगा।
• क्रेटेशियस युग से उन्होंने अपने सिद्धांत की शुरुआत की उनके अनुसार मुख्यत: दो स्थल खंड थे।
1 – लारेंशिया ( उत्तरीय ध्रुव के पास)
2 -गोंडवाना लैंड (दक्षिणी ध्रुव के पास)
• उनके अनुसार महाद्वीप मुख्यत: सियाल से बने हुए हैं। जिनका सागरों में पूर्णतय: अभाव है।
• उनके अनुसार स्थलखंडों का प्रवाह मुख्य रूप से विषुवत रेखा के तरफ हुआ।
• इनके अनुसार क्रीटेशियस युग में चंद्रमा की पृथ्वी के नजदीक स्थिति के कारण ज्वारीय शक्ति अत्यधिक थी । इसके कारण ही पृथ्वी की परिभ्रमण शक्ति में काफी वृद्धि हो गई।
• परिभ्रमण की अधिकता के परिणाम स्वरूप लारेशिया तथा गोंडवाना लैंड का विषुवत रेखा की तरफ प्रवाह आरंभ हो गया।
• तनाव एवं विभंजन के कारण स्थल खंड के टूटने तथा प्रवाहित होने से वैफिन की खाड़ी , डेविस जलडमरूमध्य, रास सागर आदि का निर्माण हुआ। इसी तरह प्रवाहित होते हुए महाद्वीप के बीच खाली स्थान पर अटलांटिक तथा हिंद महासागर का निर्माण हुआ।
• उन्होंने हिमालय काकेशस आदि पर्वतों के निर्माण का मुख्य कारण स्थल रूपों का ध्रुवो से विषुवत रेखा की तरफ स्थानांतरण को बताया। उनके अनुसार जहां भी अवरोध कम था । स्थलीय भाग लोब के रूप में प्रवाहित होने लगा तथा उनके अग्र भागों में पर्वत एवं द्वीपों आदि की उत्पत्ति हुई।