भूसन्नति एवं पर्वत संरचना-
प्रथम श्रेणी के उच्चावचो (महाद्वीप एवं महासागर) के भूगर्भिक इतिहास का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि शुरुआती दौर में स्थल खंडों के मध्य जलपूर्ण गर्त होते थे।
दो दृढ़ स्थलखंडो के बीच स्थित इन उथले सकरे जलपूर्ण गर्तों को भूसन्नतियो के नाम पर जाना जाता है। भूसन्नतियो के भूगर्भिक इतिहास का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि सदैव गतिशील व परिवर्तनशील रहे हैं । भूसन्नतियो से ही वलित पर्वतो की संरचना हुई,मानी जाती है। इसलिए भूसन्नतियो को पर्वतों का पालना कहां जाता है।
भूसन्नतिया लंबे संकरें तथा उथले जलीय भाग होती है जिनमें तलछटीय निक्षेप के साथ-साथ तली में धसाव होता है।
भूसन्नति की संकल्पना के विकास में योगदान देने वाले भूगोलविद-
• हांग एवं डाना
• ईवान्श
• सुभुर्ट
(i) एकल भूसन्नति संकल्पना
(ii) बहुल भूसन्नति संकल्पना
• आर्थर होम्स
भूसन्नतियां लम्बे, संकरे तथा उथले जलीय भाग होती है। जिनमें
भूसन्नतिया जलीय पूर्ण भाग होती हैं। जो दृढ़ भूखंडों के बीच अवस्थित होती है। इन दृढ़ भूखंडों को अग्रदेशों stereographic projectionके नाम से जाना जाता है।
“विश्व मानचित्र पर वलित पर्वतों की स्थिति का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान व प्राचीन सभी वलित पर्वतों की उत्पत्ति भूसन्नतियों से हुई है। जैसे हीमालय पर्वत के स्थान पर टेथीस सागर नामक भूसन्नति थी। इसी तरह रॉकी एवं एंडीज पर्वत का निर्माण उससे संलग्न भूसन्नति से हुआ है।
वस्तुत: भूसन्नतिया लंबे संकरे तथा उथले जलीय पूर्ण भाग होती है। जिनमें तलछटीय के निक्षेप के साथ तली में धंसाव होता है। यह जलीय भाग होती है जो दो दृढ़ खंडों के बीच अवस्थित होती है। इन दृढ़ खंडों को अग्रदेश कहा जाता है। भूसन्नतिया गतिशील रहती हैं”
“भूसन्नति के अनेक रुपो को देखकर भूसन्नति के निर्माण को लेकर अनेक विचार दिए गए हैं।
जब महाद्वीपीय धरातल के नीचे संवहन धाराएं दो विपरीत दिशा में चलती है , तो सियाल परत के पतले होने से
अंतर्महाद्वीपीय भूसन्नति का निर्माण होता है। युराल भूसन्नति इसका बेहतरीन उदाहरण है।
महाद्वीपों केे किनारे वाले भाग में पाई जाने वाली भूसन्नति परीमहाद्वीपीय भूसन्नति तथा सागरिया भाग किंतु महाद्वीपों से संलग्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली भूसन्नतिया सागरिया भूसन्नतियो के नाम से जाने जाते हैं।
इस प्रकार संवहन धाराओं के तनाव के कारण सतह के नीचे विपरीत दिशाओं में तथा दबाव के कारण आमने-सामने चलने से परतो में क्रमश: धंसाव होने से भूसन्नति का निर्माण होता है।
भूसन्नतियो को पर्वतों का पालना कहा जाता है। पर्वतों के निर्माण के लिए भुसन्नतियो में लंबे समय तक तलछटो का जमाव होता रहता है। बाद में दबाव द्वारा तलछटो में बलन पड़ने से पर्वतों का निर्माण होता है।
इस तरह भूसन्नति से पर्वत निर्माण प्रक्रिया को समझने के लिए भूसन्नति के इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
भूसन्नति अवस्था में ( Lithogenesis) सर्वप्रथम भूसन्नति का निर्माण होता है। यह भूसन्नति तथा पर्वत निर्माण की प्रारंभिक अवस्था होती है। संवहन धाराओं के सतह के नीचे विपरीत दिशा में चलने से उत्पन्न तनाव के कारण तथा मिलन बिंदु पर दबाव के कारण सतह के धसंने से भूसन्नति का निर्माण होता है।
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भूसन्नति के निर्माण के बाद समीपवर्ती उच्च स्थलीय भागों से नदिया अपक्ष्यित पदार्थो को इसमें निक्षेपित करना प्रारंभ कर देती हैं।
अवसादो की तली पर भार बढ़ने के कारण तली में धसाव भी होता है।
भूसन्नति की उत्पत्ति तलछट का जमाव तथा तली में धसाव इसी अवस्था की प्रमुख विशेषताएं हैं। टेथीस भूसन्नति, यूराल भूसन्नति, अप्लेशियन इसके उदाहरण हैं।
पर्वत निर्माण की अवस्था में जब भूसन्नति तलछट से पूरी तरह भर जाती है। तब अधिक जमाव के कारण संतुलन में अव्यवस्था होने से पुनः संतुलन लाने हेतु भू संचलन होने लगता है।
इस कारण तलछट में दबाव के कारण तलछट में बलन पडने लगते हैं। यदि स्मपिंडन बल सामान्य रहता है तो भूसन्नति
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का मध्य भाग , अप्रभावित रह जाता है जिसे मध्य पिंड कहा जाता है।
दबाव की शक्तियों के तीव्र गति से कार्य करने पर परिवलन मोड़ो ग्रीवा खण्डों अपनतियो अभिनतियो आदि के विकास के द्वारा स्थलाकृतियों में काफी जटिलता आ जाती है।
1-पर्वतों के विकास की अवस्था(Glipto genesis) इसका संबंध पर्वतों के उत्थान व विस्तार से है। हालांकि उत्थान के साथ अनाच्छादन की शक्तियां भी कार्य करना आरंभ कर देती हैं अनाच्छादन से प्राप्त मलबे का अन्यत्र निक्षेप होने लगता है।
आलोचना-
1-संपीडन बल का प्रभाव एक पार्श्व से अथवा दोनों पार्श्वो से होता है। स्पष्ट नहीं है।
2-पर्वतों निर्माण व आकार के विषय में पर्याप्त अंतर है।
3-उपरोक्त सीमितताओ के बावजूद वर्तमान में सर्वमान्य है कि भूसन्नतिया रही हैं तथा उन्हीं से पर्वतों विशेषकर वलित पर्वतों की उत्पत्ति है। कोवर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धांत (Geosynclinal oregen theory ) तथा डेली के महाद्वीपीय फिसलन सिद्धांत (Slinding Continent theory)का संबंध भूसन्नतियो से ही है।
कोवर के अनुसार जहां आज पर्वत है वहां पर पहले भूसन्नतिया थी। भूसन्नतियो के चारों ओर स्थित भूखंडों को उन्होंने क्रेटोजेन के नाम से संबोधित किया।
1-भूसन्नति की अवस्था के अंतर्गत उन्होंने बताया कि पृथ्वी में संकुचन के कारण भूसन्नतियो की उत्पत्ति होती है। अवसादीकरण तथा अवतलन की क्रिया इसके प्रमुख घटक हैं।
2-पर्वत निर्माण की अवस्था में संपीडनात्मक बल के कारण भूसन्नति के तल छट में सिकुड़न एवं वलन कारण मालवा वलित होकर पर्वत का रूप धारण कर लेता है। भूसन्नति के किनारों पर निर्मित पर्वतों का कोवर ने रेण्डकेटेन नाम से पुकारा। यदि वलन सामान्य होता है तो वह सन्नति का मध्य भाग अप्रभावित रह जाता है।
अप्रभावित भाग को स्वाशिन वर्ग (मध्य पिंड) कहा। संपीडन बल के तीव्र होने की स्थिति मध्य भाग भी मोड़ पड़ जाता है और इस तरह अपनतियो, अभिनेतियो , ग्रीवा खण्डों का विकास होता है।
डेली ने अपने महाद्वीपीय फिसलन सिद्धांत में बताया कि गुरुत्वाकर्षण बल के कारण भूसन्नति के चारों तरफ स्थित बड़े स्थलखंडों(महाद्वीपो) के भूसन्नति पर दबाव के द्वारा मलबों में वलन पड़ने से पर्वतों की उत्पत्ति हुई।
उनके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद शीघ्र ही मौलिक तरल पदार्थों के ऊपर एक पपड़ी का निर्माण हो गया। उनके अनुसार भूमध्य रेखा एवं ध्रुवो के पास दो कठोर दृढ़ भूखंड थे जिनकी उन्होंने भूमध्य रेखीय तथा ध्रुवीय गुम्बद बताया।
इन दृढ़ भूखंडों के मध्य स्थिति जलीय भाग के मध्य अक्षांशीय खाईं के नाम से तथा आद्य प्रशांत महासागर के नाम से संबोधित किया यह जलीय भाग भूसन्नति के रूप में तथा दोनों गुंबदो का झुकाव इस भूसन्नति की तरफ था फलस्वरूप नदियों द्वारा गुंबदो से प्राप्त मलवा का निक्षेपण भूसन्नतियो में किया जाने लगा। मलवो का सागर की तली में दबाव बढ़ने के तली में निरंतर धसाव होने लगा दबाव एवं धसाव से पार्श्विक दबाव के कारण स्थल खंडों विस्तृत गुंबद में परिवर्तित हो गए।
इस तरह निरंतर दबाव एवं धसाव होने से गुंबदो में विस्तार एवं ऊंचाई बढ़ती गई। इससे गुंबदो के आंतरिक भाग में निर्मित रिक्त स्थान की तरफ भूसन्नति के तरफ मलवो का स्थानांतरण होने लगा हालांकि इस प्रक्रिया के दोलन गुंबद के मध्य भाग की अपेक्षा उसके किनारे वाले भाग में वृद्धि एवं विकास अधिक हुआ। दबाव में वृद्धि से उत्पन्न तनाव बल के तली की सहनशक्ति से अधिक होने के कारण सागर की तली में फलन एवं टूटन प्रारंभ हो जाता है। गुंबद का आधार हटने से गुंबद बड़े-बड़े खंडों में टूट कर भूसन्नति में फिसलने से उत्पन्न दबाव के भूसन्नति का मलवा वलित होकर पर्वत में बदल जाता है। इस तरह इनके अनुसार महाद्वीपों की भूसन्नति की तरफ जितनी अधिक फिसलन हो संपीडन उत्पन्न ही अधिक होने के कारण उतने ही ऊंचे तथा विस्तृत पर्वत का निर्माण होगा।
पर्वत निर्माण प्रक्रिया-
पर्वत द्वितीय श्रेणी के उच्चावच होते हैं जिनका निर्माण अंर्तजनित भूसंचलन के द्वारा होता है विभिन्न प्रकार के उच्चावचो में इनकी ऊंचाई सर्वाधिक होती है।
निर्माण प्रक्रिया के आधार पर पर्वत कई प्रकार के होते हैं ।
जैसे-संपीडन बल द्वारा निर्मित पर्वत को वलित अथवा मोड़ दार तनाव मुलक बल द्वारा निर्मित पर्वत ब्लॉक पर्वत कहलाते हैं। जबकि ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण ज्वालामुखी प्रक्रिया के द्वारा होता है क्योंकि विश्व में मोड़दार पर्वतों का वितरण अधिक विस्तृत व नियमित है। इसलिए पर्वतों की उत्पत्ति एवं विकास को स्पष्ट करने के लिए दिए गए सिद्धांतों के अंतर्गत मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति को ही स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
जी के गिलवर्ट ने पहली बार राकी और इंडीज पर्वतों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के क्रम में ओरोजेनी (Orogeny) शब्द का उपयोग किया है।
इसका तात्पर्य मोड़दार पर्वत उत्पत्ति प्रक्रिया को स्पष्ट करना था।
पर्वत निर्माण से संबंधित आवश्यक चरण-
• अवसादन
• शैल अनुक्रम का विकास
• संरचनात्मक विरूपण
• आग्नेय क्रियाएं
• रूपांतरण
• समस्थैतिकी समायोजन
अवसादन एवं शैल अनुक्रम का विकास- अवसादो के निक्षेपण होने से महाद्वीपीय तट पर छिछले जलीय भागों में मायोजिओ क्लाइन , गाहरे जलीय भागों मेंं यूजिओक्लाइन तथा नितल पर आफियोलाइट्स शैल अनुक्रम का विकास होता है।
संरचनात्मक विरूपण-
संपीडन बल के द्वारा शैल अनुक्रम में संरचनात्मक विरूपण के द्वारा मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति होती है। चुकि महाद्वीपीय तट पर मायोजिओक्लाइन की मोटाई अधिक होती है इसलिए तटीय भागों में मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति अधिक होती है।
तट से दूर जाने पर संपीडन बल में कमी के कारण संरचनात्मक विरूपण में कमी आने से अवसादो में वलन भी कम होता है।
आग्नेय क्रियाएं-
मोड़दार पर्वतों के नीचे क्षेपित हुए प्लेट सीमांत के अत्यधिक तापमान वाले क्षेत्रों में पहुंचने पर क्रस्टो का आंशिक गलन से मैग्मा की उत्पत्ति होती है । इसी को आग्नीय क्रिया कहा जाता है।
रूपांतरण-
अत्यधिक तापमान के कारण मैग्मा के संपर्क में आने से संलग्न चट्टानों का आंशिक गलन होता है। इसी तरह अत्यधिक दबाव के कारण ही चट्टानों का रूपांतर होता है। इस तरह ताप और दाब के द्वारा चट्टानों में रूपांतरण होता है। मैग्मा के शीतली करण से इस तरह आग्नेय चट्टानों का निर्माण होता है जबकि रूपांतरित तथा आग्नेय चट्टानों पर होने वाली अनाच्छादन की क्रिया द्वारा प्राप्त अवसादो के शैलो से अवसादी शैलो का विकास होता है।
इस तरह पर्वतीय क्षेत्र आग्नेय अवसादी तथा रूपांतरित शैलो वाले क्षेत्र होते हैं।
समस्थैतिक समायोजन-
पर्वत निर्माण के दौरान उत्पन्न असंतुलन को संतुलित करने के लिए पृथ्वी समस्थैतिकी संचलन द्वारा समस्थैतिकी समायोजन करती है।
इस प्रकार पर्वत रचना का संबंध केवल उत्पत्ति से ही नहीं बल्कि विकास से भी है।