ज्वालामुखीयता की संकल्पना – पृथ्वी पर अन्तर्जनित अकास्मिक भू संचलन के अंतर्गत ज्वालामुखी प्रक्रिया का संबंध पृथ्वी के आंतरिक भागो में मैग्मा की उत्पत्ति से लेकर उनके आंतरिक परतो से होते हुए पृथ्वी की सतह पर मैग्मा का ज्वालामुखी के रूप में उदगार होने से होता है। पृथ्वी के आंतरिक भागों में बना मैग्मा जब सतह पर प्रकट होता है तो उसे लावा कहते हैं। ज्वालामुखी प्रक्रिया के समय कई प्रकार के पदार्थों का उदगार होता है जिसमें गैस जलवाष्प विखंडित पदार्थ एवं तप्त लावा सर्वप्रमुख होते हैं। इनमें गैसों का सर्वाधिक प्रतिशत रहता है मैग्मा एक गर्म गलित पदार्थ हैै। जिसकी उत्पत्ति तापमान में वृद्धि, दाब में कमी तथा जल की मात्रा में होने वाली वृद्धि से संबंधित परिवर्तन से सम्मिलित प्रभाव से होता है।
मैग्मा में उपस्थित तरल एवं गैसीय पदार्थों की मात्रा अधिक होने पर ज्वालामुखी प्रक्रिया के संभावना बढ़ जाती है जबकि मैग्मा में उपस्थित सिलिका की मात्रा ज्वालामुखी की विस्फोटकता को निर्धारित करते हैं। क्योंकि सिलिका की मात्रा का आम्लीयता एवं गाढ़े पन से समानुपातिक संबंध होता है। इसलिए मैग्मा में सिलिका की मात्रा अधिक होने पर गाड़ी मैग्मा का केंद्रीय विस्फोट ज्वाला प्रक्रिया के द्वारा सतह पर उदगार होने से शपोयोलाइट एवं एंण्डेसाइट चट्टान से ज्वालामुखी पर्वत का निर्माण होता है जबकि इसके विपरीत कम गाढ़े क्षारीय मैग्मा के सतह पर शांत प्रकार की ज्वालामुखी प्रक्रिया के द्वारा उद्गार होने से वह साल्ट से निर्मित संरचना की उत्पत्ति होती है।
उदगार से निकाले पदार्थ –
1 – गैस व जलवाष्प
2 – विखंडित पदार्थ
3 – तप्त लावा
इस समय गैसों का योगदान सर्वाधिक तथा कार्बन डाइऑक्साइड , नाइट्रोजन, सल्फर डाइऑक्साइड आदि महत्वपूर्ण गैस भी रहती हैं।
विखंडित पदार्थों में ज्वाला के बारीक धूल से लेकर बड़े-बड़े सम्मिलित किया जाता है। बड़े-बड़े टुकड़ों को बम कहते हैं। मटर के आकार के या अखरोट के दानों के आकार के टुकड़ों को लेपिली कहते हैं। बहुत बारिक कणों को ज्वालामुखी धूल कहते हैं।
जब उदगार के साथ द्रव रूप में पिघला हुआ पदार्थ बाहर आता है तो उसे लावा कहते हैं। लावा को सिलिका की मात्रा के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है।
Acid lava – रंग – पीला ,गाढ़ा तथा भार हल्का
Basic lava – कालिक ,भारी , क्षारीय
ज्वालामुखी के प्रकार – विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी विश्व के अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं। उदगार की अवधि तथा ज्वालामुखी उद्गार की तीव्रता के आधार पर इन्हें अनेक वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है।
उदगार की अवधि के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण –
1 सक्रिय ज्वालामुखी – ज्वालामुखियों से सदैव ज्वालामुखी पदार्थ निकलने की स्थिति में उक्त ज्वालामुखी को जागृत अथवा सक्रिय ज्वालामुखी कहते हैं । स्ट्रांबोली ज्वालामुखी इसके उदाहरण हैं। स्ट्रांबोली ज्वालामुखी से सदैव प्रज्वलित गैसों के निकलने के कारण उसे भूमध्य सागर प्रकाश स्तंभ कहा जाता है। दक्षिणी अमेरिका, माउंट कोटोपैक्सी, विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी हैै।
प्रसुप्त ज्वालामुखी – ऐसे ज्वालामुखी जो उद्गार के बाद शांत पड़ जाते हैं किंतु उनमें कभी भी उद्गार हो सकता है।
जापान का फ्यूजीयामा इटली का विसुवियश , इंडोनेशिया का क्राकाट्रोवा आदि।
मृत ज्वालामुखी – इस प्रकार के ज्वालामुखीयों में अपने भूगर्भिक इतिहास में काफी लंबे समय से उद्गार नहीं हुआ है ज्वालामुखी के उद्गार के तुल्यता के आधार पर
1 – केंद्रीय उद्गार वाले ज्वालामुखी
2 – हवाई तुल्य ज्वालामुखी
ये अपेक्षाकृत काम विस्फोटक होते हैं तथा उद्धार भी शांत ढंग से होता है। जब कभी भी गैसों के साथ लावा के छोटे-छोटे लाल पिंड फब्बारे के तरह उठने लगते हैं तथा हवा के तेज होने की स्थिति में लावा के पिंड खींचकर लंबे चमकीला धागे की तरह हो जाते हैं। इन्हें हवाई द्वीप के लोग पेले के बाल की संज्ञा देते हैं।
किलायु ज्वालामुखी इसका उदाहरण है।
स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी – भूमध्य सागर में स्थित सिसिली द्वीप के उत्तर में स्थित लिपाली द्वीप के स्ट्राम्बोली द्वीप के नाम पर इसका नामकरण किया गया।
ये मामूली विस्फोट प्रकार के ज्वालामुखी हैं।
वलकेनियन ज्वालामुखी – इस प्रकार के ज्वालामुखी में ज्वालामुखी पदार्थ भयंकर विस्फोट तथा अत्यधिक तीव्रता के साथ बाहर निकलते हैं।
काफी ऊंचाई पर उठने के कारण यह फूल गोभी की तरह दिखाई पड़ते हैं। भूमध्य सागर में स्थित लिपाली द्वीप के वाल्केनो नामक ज्वालामुखी के आधार पर इसका नामकरण किया गया।
पीलियन तुल्य ज्वालामुखी – यह सर्वाधिक विनाशकारी और विस्फोटक होते हैं । इसके अंतर्गत विखंडित पदार्थों के अधिक ऊंचाई पर जाने से जलते हुए बादल के रूप में दिखाई पड़ते हैं। 1902 में पश्चिमी द्वीप समूह के मार्टनिक द्वीप में पेली नामक ज्वालामुखी से हुए भयानक उद्गार के कारण सेंट पेरी नगर पुर्णतया नष्ट हो गया था।
विसुवियस तुल्य ज्वालामुखी – इस तरह के ज्वालामुखी के बारे में सर्वप्रथम प्लीनी ने बताया था। इसलिए इसे प्लीनियन प्रकार का ज्वालामुखी कहा जाता है। गैसीय तीव्रता के कारण लावा तीव्र गति से तीव्र गति व भयानक विस्फोट के सत्य बाहर निकलता है। इसके अंतर्गत निर्मित ज्वालामुखी बादल का आकार फूलगोभी की तरह होता है।
2 दरारी उदगांव वाले ज्वालामुखी – दरारों के माध्यम से बिना विस्फोट से होने वाले ज्वालामुखी प्रक्रिया को ज्वालामुखी दरारी उद्गार वाले ज्वालामुखी कहते हैं।
इसके विस्फोटक प्रवृत्ति का न होने का मुख्य कारण गैसों एवं ठंडे पदार्थों कम होना है ।
चुकि लावा पतला होता है इसलिए इनसे लावा पठारो का निर्माण होता है। आइसलैंड में होने वाला दरारें उद्भेदन के साथ कोलंबिय तथा दक्कन के पठार का निर्माण दरारी उदगार का ही उदाहरण है।
ज्वालामुखी स्थलाकृतिया – जब लावा धरातल पर आने से पूर्व ठंडा हो जाता है तो उसे उस दौरान अनेक प्रकार की स्थलाकृति बनते हैं ।
बैथोलीथ – गुंबद के आकार वाली स्थलाकृति का आधार तल काफी गहराई में होता है । ग्रेनाइट चट्टानों के रूप में विश्व के अधिकांश पर्वतों के कोर में ये मौजूद होते हैं।
लैकोलिथ – धरातल के निकट परतदार चट्टानों के बीच गुंबदाकार संरचना में मैग्मा के जमने से इसका निर्माण होता है।
फैकोलिथ – वलन के अभिनतियो एवं अपनतियो में तरंग रुपए लावा के जमा को फैकोलिथ कहते हैं।
लोकोलिथ – तश्तरी नुमा अवतल आकार वाली छिछली बेसिन मे लावा के जमाव को लोकोलिथ कहा जाता है।
शील – 2 संस्तरों के बीच समानांतर रूप में लावा के जमाव को शील कहते हैं।
डाईक – दो संस्तरो के बीच लंबवत रूप में लावा के जमाव को डाइक ( कलाम) कहते हैं।
उदगार के तीव्रता के कारण भी विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया बनती हैं।
1 – दरारी उद्भेदन द्वारा लावा के पठार का निर्माण होता है।
2 – केंद्रीय विस्फोट द्वारा अनेक प्रकार के शंकुुुओ के साथ क्रेटर व काल्डेरा का निर्माण होता है।
विभिन्न प्रकार ज्वालामुखी शंकु –
शिण्डर शंकु – इनकी ऊंचाई कम होने के साथ साथ इनका ढाल कम होता है। इनके निर्माण में समृद्ध ज्वालामुखी पदार्थों में तरल पदार्थ शामिल नहीं होते हैं। मैक्सिको का जोरल्लो सान सल्वाडोर का माउंट इजालको फिलीपींस के लुजोन द्वीप का कैग्बिन आदि शिण्डर शंकु के उदाहरण है।
शील्ड शंकु – इसका निर्माण लावा के काफी दूर तक फैलने से होता है ऐसा लावा के पतले होने की स्थिति में संभव है इसे बेसिक अथवा पैठिक लावा शंकु भी कहते हैं इसकी ऊंचाई कम होती है जैसे हवाई दीप का मोनालोह।
शंकु में शंकु – लंबे अंतराल के पश्चात प्रसुप्त ज्वालामुखी में अपेक्षाकृत छोटे परमाणु वाले ज्वालामुखी विस्फोट होने से शंकु के अंदर शंकु का निर्माण होता है।
मिश्रित शंकु – इसे परतदार शंकु भी कहते हैं। क्योंकि इसका निर्माण ज्वालामुखी पदार्थों के परत दर परत जमा होने से होता है। विश्व के अधिकांश ज्वालामुखी इसी श्रेणी के हैं।
अम्लीय लावा शंकु – लावा के काफी गाढ़ा व चिपचिपा होने से कम दूरी में अधिक ऊंचाई तक तेजी से शीतल होने के कारण इस प्रकार के शंकु का निर्माण होता है यह तीव्र ढाल वाले ऊंचे शंकु होते हैं।
परिपोषित शंकु – जब ज्वालामुखी मुख्य नदी से कई छोटी-छोटी नालीकाएं बन जाती है तो ऐसी स्थिति में इन छोटी-छोटी नलिकाओं के द्वारा मिश्रित लावा से मुख्य शंकु पर कई छोटे-छोटे अन्य शंकुओ का निर्माण हो जाता है जिन्हें परीपोषित शंकु के नाम से पुकारा जाता है।
U.S.A का माउंट सस्ता इसका ही उदाहरण है।
क्रेटर एवं काल्डेरा – ज्वालामुखी के शीर्ष पर स्थित कीप के आकार गर्त को क्रेटर कहते है। कालाडेरा इस क्रिटर का विस्तृत रूप होता है। इसका निर्माण क्रेटर के धंसने से होता है अथवा ज्वालामुखी के विस्फोट के द्वारा होता हैं। जब क्रेटर अथवा कालाडेरा में जल भर जाता है तो वह क्रेटर अथवा काल्डेरा झील के रूप में जाने जाते हैं।
अमेरिका ओरोगन महाराष्ट्र की लोनार राजस्थान के पुष्कर आदि झीलें काल्डेरा का उदाहरण है।
जापान का एरा तथा अमेरिका का वैलिस काल्डेरा विश्व के बड़े काल्डेरा में से एक है।
अन्य विशिष्ट स्थलाकृतिया
शोल्फ तारा – जब किसी ज्वालामुखी से राख व लावा निकलना बंद हो जाता है किंतु उसके बाद भी बहुत दिनों तक उससे विभिन्न प्रकार की गैसे व वाष्प निकलता रहता है। तो इस प्रकार के गंधकीय धुवारे भूमध्य सागर के किनारे स्थित शोल्फ तारा ज्वालामुखी के नाम पर इसे ज्वालामुखी की इस प्रकार के विशिष्ट अवस्था को शोल्फ तारा कहते हैं।
10,000 धुवारो की घाटी से प्रसिद्ध अलास्का की करीमई ज्वालामुखी शोल्फ तारा का उदाहरण है।
गीजर – ये ज्वालामुखी क्षेत्रों में गर्म जल स्रोत होते हैं जिनमें से निरंतर गर्म जलवाष्प फव्वारे के रूप में निकलते रहते हैं। आइसलैंड ग्रैंड गीजर , अमेरिका का एलोस्टोन पार्क , न्यूजीलैंड के गीजर विश्व प्रसिद्ध है।
ज्वालामुखी का विश्व वितरण – विश्व के ज्वालामुखी वितरण मानचित्र के अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि सामान्यतः ज्वालामुखी क्षेत्रों का संबंध प्लेट सिमांतो से है।
प्लेट सीमांतों को आधार बनाते हुए विश्व में ज्वालामुखी वितरण का अध्ययन करने के लिए हम विश्व को प्रमुख ज्वालामुखी क्षेत्रों में विभाजित कर सकते हैं।
परी प्रशांत मेखला – विश्व के लगभग दो तिहाई ज्वालामुखी का संबंध इसी में मेखला से है। इसका संबंध अभिसारी प्लेट सीमांत से है। जिसके अंतर्गत महासागरीय महाद्वीपीय तथा महासागरीय, महासागरीय अपसारी प्लेट सीमांतों के अपक्षरण एवं टक्कर के कारण भारी प्लेटों के नीचे क्षेपण तथा पुन: उसके ज्वालामुखी के रूप में लावा सतह पर आते हैं।
ज्वालामुखी की अधिकता से इसे अग्र श्रृंखला भी कहते हैं।
विश्व के अधिकांश उच्च ज्वालामुखी इसी पेटी में स्थित है।
जैसे विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी माउंट कोटोपैक्सी तथा विश्व का सबसे ऊंचा ज्वालामुखी एकांकागुआ चिली में स्थित है।
जापान का पिजियामा , अमेरिका का सस्ता रेनियहुड , फिलीपींस का माउंटताल एवं मेंयान इस मेखला में स्थित प्रमुख ज्वालामुखी है।
मध्य महाद्वीपीय पेटी – इसका संबंध महाद्वीपीय महाद्वीपीय अभिसरण प्लेट सीमांतों से है। स्ट्रांबोली , विसुवियस ,एंटना , इरान का देवमंद कोहेसुल्तान, काकेसस का एलवुर्ज अल्मानिया का आरारात , इंडोनेशिया क्राकाटोआ इस पेटी के महत्वपूर्ण ज्वालामुखी हैं।
मध्य अटलांटिक मेखला – इसका संबंध अपसारी प्लेट सिमांतो से है। जिसके अंतर्गत भ्रंश घाटी वाले क्षेत्रों में ज्वालामुखी उद्गार होता है।
अफ्रीका का भ्रंश घाटी क्षेत्र – किलमंजारो तथा माउंट केनिया इसमें मेखला के प्रमुख ज्वालामुखी हैं।
अतंराप्लेट ज्वालामुखी – इसका संबंध प्लेटो के अंदर ही आने वाली ज्वालामुखी से है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार किसी एक तप्तस्थल (हॉटस्पॉट) के द्वारा ज्वालामुखी मेखला तथा अनेक तप्त मेखला के द्वारा ज्वालामुखी गुच्छों की उत्पत्ति होती है।
जैसे हवाई द्वीप ज्वालामुखी रेखा तथा केनारी द्वीप गुच्छे का उदाहरण है।
हालांकि महाद्वीपीय क्रस्ट की मोटाई अधिक होने पर अंत: प्लेट ज्वाला मुख्यता की संभावना काफी कम हो जाती है।
भारत में अतीत में डाल्मा क्षेत्र राजमहल एवं अबोर पहाड़ी क्षेत्र ,हिमालय क्षेत्र, दक्कन लावा क्षेत्र मालानी एवं किराना क्षेत्र कुडप्पा ,बिजावर एवं ग्वालियर क्षेत्र भारत में ज्वालामुखी क्षेत्र हैं।