आलोचनात्मक भूगोल
परिचय- मात्रात्मक क्रांति ने भूगोल को एक विषय के रूप में स्थापित करने में तत्कालीन समय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। किंतु सामाजिक मूल्यों, मानवीय भावनाओं आदि की उपेक्षा किए जाने के कारण इसकी सीमाएं भूगोल के विद्वानों के समक्ष एक बड़ी चुनौती बन कर उभरी। डेविड हार्वे, डेडले स्टंप आदि भूगोलवेत्ताओ ने इसे भूगोल के समक्ष एक चुनौती माना। मात्रात्मक क्रांति से उत्पन्न चुनौतियों के कारण भौगोलिक अध्ययन के नए उपागमो में कार्य किया जाने लगा। उसी का परिणाम था कि भूगोल में अध्ययन के कई उपागमो का जन्म हुआ। जिसे संयुक्त रूप से आलोचनात्मक भूगोल के नाम से जाना जाता है।
आलोचनात्मक भूगोल के प्रकार
- व्यवहारपरक अथवा आचारपरक भूगोल (मानव के व्यवहार का अध्ययन)
- कल्याणपरक भूगोल (मानव की समस्याओं का अध्ययन तथा उसके संभावित उपायों का चर्चा)
- मार्क्सवादी भूगोल
- मानवतावादी भूगोल (मानव के सृजनशीलता विवेक तर्कशक्ति)
- नारीवादी भूगोल
- उत्तर आधुनिकतावादी भूगोल
व्यवहारपरक भूगोल- मानवीय व्यवहार को महत्व देने वाले विधितंत्र का संबंध व्यवहारपरक भूगोल से है। इसे व्यवहारपरक उपागम भी कहा जा सकता है। इसके अनुसार किसी भी मानवीय क्रियाकलाप का मूल उससे प्राप्त सूचनाएं हैं। जो उसकी पृष्ठभूमि, अनुभव, ज्ञान तथा आत्मबोध पर आधारित होता है। व्यवहारवादी उपागम हमें यह बताता है कि पृष्ठभूमि तथा सूचनाओं में भिन्नता मानव व्यवहार पर निर्णायक प्रभाव डालती है। किर्क ने व्यवहारपरक भूगोल का समर्थन करते हुए कहा कि भूगोल में सांख्यिकी विधियों का प्रयोग तो ठीक है किंतु प्रयोग एवं निष्कर्ष में आए अंतर की ठीक-ठीक व्याख्या व्यवहारपरक उपागम या विधितंत्र ही कर सकता है।
उत्पत्ति का कारण- मात्रात्मक विधितंत्र कई जटिल सामाजिक समस्याओं की व्याख्या करने में असफल रहा। मात्रात्मक क्रांति में मानव को मशीनी कृत मानव तथा आर्थिक मानव का दर्जा दिया गया तथा उसकी भावनाओं, व्यवहारों की उपेक्षा की गई। मानव -पर्यावरण के अंतर संबंधों को समझने में व्यवहारपरक उपागम अत्यंत उपयोगी साबित हुआ। भूगोल एक सामाजिक विज्ञान है अतः इसके लिए ऐसे विधितंत्र की जरूरत थी जो भूगोल की अन्य विषयों के साथ अथवा भूगोल के अंदर ही विद्वमान विभिन्न शाखाओं के विद्यमान अंतरसंबंधों की व्याख्या कर सकें।
विलियम किर्क, हैंगर स्टैंड, वालसन, गोल्ड, डाउन्स, पैरेटो, एलेन प्रेड, सोनेफिल्ड, गिलबर्ट व्हाइट, वर्टन, डेविड हफ, बुकफिल्ड आदि व्यवहारपरक भूगोल के समर्थक भूगोलवेत्ता हैं।
वाल्सन के अनुसार आचारपरक उपागम मानव भूगोल की कुंजी है जिसके द्वारा हम विधितंत्र की समस्याओं को समझने के साथ इसके निराकरण के उपायों को भी ढूंढ सकते हैं।
किर्क ने “progress in geography” नामक शोधपत्र में कहा कि सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण हेतु आचारपरक विधितंत्र सर्वाधिक वैज्ञानिक विधितंत्र है। हैगर स्टैंड ने आचारपरक विधितंत्र में मानवीय क्रियाओं को पांच क्रम में वर्गीकृत किया।
इसी क्रम में विलियम किर्क ने मानवीय क्रियाओं को छह चरणों में बांटा।
डाउन्स ने अपने मॉडल में यह बताया की किस प्रकार वास्तविक जगत की सूचनाएं व्यक्ति के वैक्तिक, सांस्कृतिक, धारणात्मक तथा ज्ञान के अनुसार उसके मस्तिष्क में एक प्रतिबिंब बनाता है जिसके बाद मानव संसाधनों के दोहन हेतु निर्णय लेता है।
वोल्डिंग ने अपने परंपरागत मॉडल में मानव पर्यावरण संबंधों को अग्र लिखित तरीके से बताया है-
सोने फील्ड ने 1977 में जालीनुमा वातावरणीय मॉडल प्रस्तुत किया।
सोनेफील्ड ने अपने इस मॉडल द्वारा यह बताने का प्रयास किया कि व्यक्ति और समाज की सोच दोनों का संयुक्त प्रभाव क्षेत्र विशेष के कार्यिक तथा भौगोलिक वातावरण पर पड़ता है। संकुचित सोच तथा रूढ़िवादी समाज की स्थिति में कार्यिक तथा भौगोलिक वातावरण का दायरा भी संकुचित हो जाता है। इसके विपरीत आधुनिक, तार्किक तथा उदारवादी सोच कार्यिक तथा भौगोलिक दोनों के परिक्षेत्र को विस्तृत कर देता है।
मानसिक मानचित्र व्यवहारवादी भूगोल में गोल्ड द्वारा प्रतिपादित एक महत्वपूर्ण संकल्पना है। मानसिक मानचित्र सूचना और निर्वचन का मिश्रण है जो किसी स्थान के बारे में न केवल जानता है बल्कि उसके बारे में सोचता भी है। गोल्ड के अनुसार मनुष्य स्वयं के मस्तिष्क में बने मानचित्र के आधार पर न केवल विचार करता है बल्कि अवबोध, चिंतन आदि प्रक्रिया से गुजरते हुए निर्णय भी लेता है।
प्रेड ने “व्यवहार तथा अवस्थिति” के नाम से एक पुस्तक लिखी उस पुस्तक में उन्होंने बताया कि अवस्थिति के बारे में व्यवहारवादी मैट्रिक्स की सहायता ली जा सकती है।
इस मैट्रिक्स के अधोभाग की स्थिति यह दर्शाती है कि उद्यमी के पास सांचे के ऊपर ही दाहिनी कोने की स्थिति के अपेक्षा अवस्थिति के बारे में निर्णय लेने के अधिक विकल्प हो सकते हैं। आर्थिक मानव सांचे के निचले दाहिने कोने में होता है सांचे पर स्थित विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार का निर्णय लेते है जो व्यक्ति असफल होते हैं वह इस सांचे से बाहर हो जाते हैं। तथा धीरे-धरे अच्छा निर्णय लेने वाले व्यक्ति आर्थिक मानव के निकट पहुंच जाते हैं। हालांकि इस मैट्रिक्स से केवल संभावित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। कभी-कभी कम सूचना व कम कुशलता वाले व्यक्ति भी स्थिति के बारे में अच्छा निर्णय ले लेता है।
हार्वे ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि यह मैट्रिक्स अस्पष्ट अव्यवहर्य तथा व्यवहार की जटिल प्रकृति का अति सरलीकृत रूप है।
प्रासंगिकता- इस उपागम के कारण सामाजिक आर्थिक कई मॉडल प्रतिपादित हुए यह उपागम अनुभवाश्रित तथा मात्रात्मक दोनों विधितंत्रों की तुलना में ज्यादा उपयोगी साबित हुआ इसमें किसी भी प्रकार की समस्या तथा उसका सूचनाओं से अंतरसंबंध को व्यवस्थित ढंग से समझने हेतु विशिष्ट प्रकार के अर्न्तदृष्टी प्रदान की।प्रवसन प्रक्रिया को समझने में यह मैट्रिक्स तुलनात्मक रूप से ज्यादा उपयोगी साबित हुआ।
आलोचना- मानव भूगोल के दृष्टिकोण से इसके मॉडल अत्यंत जटिल साबित हुए माडलों को प्रतिपादित करने के क्रम में व्यवहारवादी खुद मात्रात्मक भूगोल की कमियों से ग्रस्त हो गए। इनके द्वारा बंद कमरों में किए गए प्रयोगों के आधार पर बनाए गए मॉडल सामाजिक जटिलताओं से मेल नहीं खाते इसी कारण डेविड हार्वे ने व्यवहारात्मक अवस्थिति सिद्धांत पर अनेक तरह की आशंकाएं प्रकट की। व्यव्हारात्मक भूगोल का आधार मानव विज्ञान है जिसके लिए अनुकूल माहौल भूगोल में उपलब्ध नहीं है।
अतिवादी भूगोल- मार्क्सवाद का प्रभाव अनेक विषयों के भौतिक भूगोल पर भी पड़ा। मार्क्सवादी भूगोलवेत्ता भूगोल की विषय वस्तु के अंतर्गत विद्यमान प्रत्येक प्रकार की असमानता, भेदभाव आदि का विरोध करते हैं तथा उसके लिए उचित कदम उठाने की सलाह देते हैं। चिंतन के स्तर पर यह उच्च मानवतावादी तथा कल्याणपरक है। इसके अंतर्गत पूंजीवादी को सभी प्रकार की और समानता व भेदभाव पर्यावरणीय विनाश आदि भौगोलिक तथा मूल कारण माना गया है। उल्लेखनीय है कि मार्क्सवाद की संकल्पना ऐतिहासिक भौतिकतावाद पर आधारित है इसके अंतर्गत पूंजीपति और सर्वहारा 2 वर्ग सदियों से अस्तित्व में रहे हैं। मार्क्स के अनुसार सभी समस्याओं का जड़ आर्थिक है इसलिए पूंजीवाद का विनाश कर के ही विद्यमान चुनौतियों से निपटा जा सकता है। इस विचारधारा के भूगोल में प्रतिपादक प्रोफेसर पीट थे। जिन्होंने एंटीकोड नामक पत्रिका के माध्यम से उग्र सुधारवादी विचारों को फैलाया। अतिवादी भूगोल के अंतर्गत नारीवाद का समर्थन, रंगभेद का विरोध, और समानता तथा ओ मानवीयता का विरोध जैसे प्रमुख मुद्दों का चिंतन किया गया। भाषण, लेख, पत्रिका, विरोध प्रदर्शन, जुलूस, सभा, पैम्पलेट आदि इस विचारधारा के प्रचार-प्रसार की प्रमुख विधियां रही हैं। इनके विचार अत्यंत क्रांतिकारी थे फिर भी यह किसी बेहद योजना का निर्माण नहीं कर सके। 1976 के बाद इनका विलय मानवतावाद तथा कल्याणवाद में हो गया। वर्तमान भूगोल में नारीवादी भूगोल का अध्ययन एक स्वतंत्र विषय वस्तु के रूप में किया जा रहा है।
मानवतावाद- इसके प्रतिपादक यी फूं तुआन (1976) थे। इस उपागम के अंतर्गत मानव के सृजनशीलता, तर्कशक्ति, विवेक शक्ति आदि का अध्ययन किया जाता है। आलोचनात्मक क्रांति के अन्य उपागमो के भाति इसकेे भी अध्ययन के केंद्र में मानव है किंतु इसके अंतर्गत मानव की विशिष्ट स्थिति को बोध कराने वाले मुख्य मानवीय प्रतिरूप का अध्ययन, विश्लेषण किया जाता है। इसे लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा भूगोल कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। विलियम किर्क, गुएल्के (आदर्शवाद), हैरिस जॉन राइट इसके प्रमुख समर्थक भूगोलवेत्ता हैं। रेक्लस, हरबर्टशन, कोष्टोटिन जैसे भूगोलवेत्ता में भी मानवतावादी भूगोल की झलक दिखाई देती है।
मानवतावादी भूगोल की अध्ययन की विधियां
- आदर्शवादी विधि (Iadilism)
- अस्तित्ववाद (Existentialism)
- दृश्य मान विधि (Phenomenalism)
आदर्शवादी विधि- आदर्शवाद या प्रत्ययवाद संवृत्तिशास्त्र (घटना क्रिया विज्ञान) की श्रृंखला की एक दार्शनिक विचारधारा है जिसकी मान्यता है कि अभीकर्ताओं के विचार द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के विषयों में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है इसकी मुख्य मान्यता यह है कि मानव का मस्तिष्क ही प्रधान तत्व है मानव के मस्तिष्क में कल्पित विश्व के इतर किसी भौतिक अथवा वास्तविक विश्व का कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरे शब्दों में इसके अनुसार मानव जीवन की वास्तविकता मानव मस्तिष्क द्वारा निर्मित वास्तविकता है। इस प्रकार तात्विक (metaphysical) ज्ञान सिद्धांत पर आधारित तर्क (epistemological) इस विचारधारा के मुख्य तत्व हैं। संक्षेप में आदर्शवाद के बारे में यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई विश्व नहीं है जिसे मानव मस्तिष्क से जाना नहीं जा सकता है। इस विचारधारा की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह मानव के अचेतन (unconscious) अवचेतन (subconscious) व्यवहार की अनदेखी करता है।
दृश्यमान विधि (phenomenalism) इसे घटना क्रिया विज्ञान अथवा संवृत्तिशास्त्र कहते हैं। यह एक दार्शनिक दृष्टिकोण है जो मूल निरपेक्षता तथा वस्तुनिष्ठ अध्ययन को अपूर्ण मानता है तथा मनुष्य के अनुभवजन तत्वों को अधिक महत्व देता है। यह विषय तथा अध्येता को एक दूसरे से पृथक नहीं मानता है। तथा अध्ययन तत्व से मानसिक पूर्वाग्रह रहित तादात में स्थापित करने पर बल देता है। इडमण्ड हुर्सेल को समृद्धिशास्त्र का जन्मदाता माना जाता है। हालांकि मानव भूगोल में इस चिंतन का सर्वप्रथम प्रयोग रेल्फ द्वारा 1970 में किया गया।
अल्फ्रेड सूत्ज गियोर्गी, सेमुअल बट्टीमोर अन्य प्रमुख समर्थक भूगोलवेत्ता हैं। तुआन इस विधि का बहुत बड़ा समर्थक था। उनके अनुसार भूगोल मनुष्य का दर्पण है एवं मनुष्य के अस्तित्व और संघर्ष का सार है। इन्होंने मानव और स्थान के बीच घनिष्ठ संबंध व्यक्त करने के लिए टोपोहिला शब्द का प्रयोग किया।
अस्तित्ववाद- यह भी समृद्धिवाद की श्रृंखला की एक कड़ी है। इसके अंतर्गत प्रत्येक घटनाक्रिया अथवा अस्तित्व से संबंधित विचार भूगोल के लिए कहीं न कहीं उत्तरदायी होता है। अस्तित्ववाद की मान्यता यह है कि अस्तित्व (जीवन का अनुभव) संचेतना से पहले आता है तथा मनुष्य अपना निर्माण स्वयं करता है। इनके अनुसार भू दृश्य के निर्माण के लिए कोई न कोई कारक अवश्य उत्तरदाई होता है इसलिए अस्तित्ववाद को भू दृश्य की जननी कहा जाता है।
व्यवहारिकतावाद- यह किसी पूर्व निर्धारित नियम अथवा सिद्धांत को मान लेने में विश्वास नहीं रखता बल्कि भूल सुधार को नियम प्रदान करता है तथा प्राक्कथनो के निर्माण सिद्धांत व नियमों के उपयोग हेतु अनुभव आधारित घटनाओं की व्याख्या या प्रकथन (prediction) करता है। यह विचारधारा सिद्धांतवाद तथा आदर्शवाद के विरोध में तथा प्रकृतिवाद के निकट है। यह शाश्वत मूल्यों तथा पारलौकिक आदर्शों पर विचार नहीं रख रखता है।
रहस्यवाद – कल्पनाओ पर आधारित इस वाद के अंतर्गत कल्पना शक्ति के आधार पर ही आदर्श अथवा लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। किसी वस्तुस्थिति अथवा तथ्य की व्याख्या करने में लोक कथाओंं, कहानियों तथा लोकगीतों का प्रश्रय लिया जाता है । ह्यूमरव्हेट , अनीग्जिमेण्डर , हेरोडोटस आदि विचारक इस वाद से प्रेरित थे।
ईश्वरवाद – इसके अंतर्गत पृथ्वी सहित संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना किसी अज्ञात परम शक्ति के द्वारा हुई है । कार्ल रिटर प्रमुख ईश्वरवादी भूगोलवेत्ता रहे हैं।इनके अनुसार प्रत्येक तत्व को ईश्वर ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाने हेतु सुनियोजित ढंग से किया है। इनके अनुसार शरीर की रचना आत्मा के लिए हुई है उसी प्रकार पृथ्वी की रचना मानव जाति के उपयोग हेतु हुई है।
डार्विनवाद – आठवीं शताब्दी के मध्य में इस संकल्पना का उदय यूरोप में हुआ। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम “origin of species” (1859) है। इनके अनुसार प्राकृतिक चयन तथा योग्यतम की उत्तरजीविता survival of the fittest ही प्रजातियों के उद्भव और विकास का प्रमुख कारण है। हर्वट स्पेंसर ने डार्विन के विकासवाद सिद्धांत के आधार पर ही उद्विकासीय नियम का प्रतिपादन किया। डार्विन का भूगोल पर समकालीन समय में गहरा प्रभाव देखा गया। भूगोल की नियतिवादी विचारधारा पर डार्विन का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। ग्रिफिथ टेलर ने भी नव निश्चयवाद को नियामक सिद्धांत प्रस्तुत करते समय प्राकृतिक कारकों पर पर्याप्त बल दिया है। परिस्थितिकी उपागम, तंत्र उपागम तथा सतत विकास जैसी वर्तमान की संकल्पना पर डार्विनवाद का प्रभाव स्पष्ट है।
मार्क्सवाद – इस वाद का मुख्य उद्देश्य पूंजीवाद की समाप्ति तथा साम्यवादी शासन व्यवस्था की स्थापना है। कार्ल मार्क्स के द्वारा लिखी गई पुस्तक “दास कैपिटल” साम्यवादीयो की प्रमुख ग्रंथ है। ऐतिहासिक भौतिकतावाद तथा वर्ग संघर्ष का सिद्धांत साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था की प्रमुख संकल्पनाएं हैंं। इनके अनुसार सभी प्रकार की समस्याओं का मूल कारण पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली है। मार्क्स के अनुसार समाज के विकास का इतिहास उत्पादन प्रणाली के विकास का इतिहास है उल्लेखनीय है कि कार्ल मार्क्स तथा एंजिल्स को कम्युनिस्ट घोषणापत्र बनाने की जिम्मेदारी दी गई। यहघोषणा पत्र ही बाद में साम्यवाद के उद्देशिका के रूप में जाना गया।पीट,हार्वे, मूंगी आदि भूगोलविद मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर भौगोलिक अध्ययन की मार्क्सवादी उपागम का मात्रात्मक क्रांति के विरोध में सूत्रपात किया। “एंटीपोड”र्मार्क्सवादी भूगोलवेताओं के द्वारा स्थापित प्रमुख पत्रिका है।
प्रकार्यवाद (functionalism) “इमाइल दुर्खीम” को प्रकार्यवाद का प्रवर्तक माना जाता है। प्रकार्यवाद के अनुसार समाज संस्तरीत और अन्योन्याश्रित तंत्र के रूप में होता है। तथा स्वरूप व प्रकार को एक दूसरे से संबंधित माना जाता है।
मालिनोवस्की कहते हैं कि मानवीय तथ्यो की व्याख्या उसके विकास के प्रत्येक स्तर पर उसके कार्यों द्वारा की जाती है। उनके अनुसार संस्कृति के विशिष्ट अंगों का केवल विशिष्ट स्वरूप ही नहीं होता है बल्कि उनके विशिष्ट प्रकार भी होते हैं। भूगोल पर भी तंत्र उपागम के रूप में प्रकार्यवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
अपवादवाद ( Exceptionalism)- अपवादवाद के प्रवर्तक “इमानुएल कांट” माने जाते हैं।